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कूलर साहब का इंतज़ार : नदीम एफ़. पराचा

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अहमद परवेज़ की पेंटिंग
राची में हाल ही में तामीर हुए क्लिफ्टन फ़्लाइ-ओवर का अच्छा-ख़ासा हिस्सा सूफ़ी संत अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी की मज़ार से होकर गुज़रता है. कुछ दो महीने पहले उस पर ड्राइव करते हुए मुझे लगा कि मैंने एक मलंग को देखा है जिसे मैं कभी जानता था.
फ़्लाइ-ओवर जहाँ ख़त्म होता है उसके दाहिनी तरफ बने फुटपाथ पर वह पड़ा था. करीब से देख सकूँ इसलिए मैंने गाड़ी धीमी की और वाकई वही था हालाँकि अब वह सत्तर पार की उम्र में था. मैंने उसे तेईस सालों से नहीं देखा था मगर मुझे उसकी शक्ल अच्छी तरह याद थी और खासकर उसका नाम: खस्सू.
मैंने गाड़ी फुटपाथ के करीब ली जहाँ वह बड़े आराम से से सोया हुआ था. गाड़ी का शीशा नीचे कर मैं चिल्लाया, ‘खस्सू!खस्सू!’
मगर खस्सू जवाब ही नहीं दे. मैंने अपनी गाड़ी फुटपाथ के किनारे खड़ी करने की कोशिश की ताकि नीचे उतर सकूँ, मगर गाड़ियों का एक रेला मेरी गाड़ी के पीछे जमा होना शुरू हो गया था, और उनके ड्राइवर इस कदर दीवानावार हॉर्न बजा रहे थे जैसे कि उनकी ज़िंदगियाँ उस पर टिकी हुई हों.
मैंने सहज बोध से गाड़ी बाएँ लेकर रास्ते के बीच में ली और आगे बढ़ा. करीब हफ़्ते भर बाद मैं खस्सू को ढूँढने फिर गया मगर वह कहीं नहीं मिला.
लगभग 1995तक अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार के बिलकुल पीछे कुछ अपार्टमेंट्स की कतार हुआ करती थी. ये अपार्टमेन्ट साठ के दशक में बने थे और वहां पार्किंग की काफी बड़ी जगह थी. मैं और मेरे कुछ दोस्त वहाँ अक्सर क्रिकेट खेलने जाया करते. ये अस्सी और नब्बे के दशक के शुरूआती सालों के दरमियान की बात है.
1995के बाद उन अपार्टमेंट्स को तोड़ने की शुरुआत हुई और आज उस प्लाट पर रियल इस्टेट टाइकून मलिक रियाज़ द्वारा एक विशाल इमारत बनाई जा रही है.
अस्सी के दशक के आखिरी सालों में मैं अपने दोस्तों के साथ शाह ग़ाज़ी मज़ार पर (ज़्यादातर कुतुहलवश) अक्सर जाया करता, खासकर जुमेरात की शामों को जब वहाँ कव्व्वाली की महफ़िलें लगतीं. पता नहीं वे महफ़िलें अब भी लगती हैं या नहीं मगर नब्बे के दशक के शुरूआती सालों तक हर जुमेरात को दस बजे से लेकर आधी रात तक कव्वाली की महफ़िलें बिलानागा लगा करतीं.
खस्सू से से मेरी पहली मुलाक़ात यहीं हुई थी. मेरा ख़याल है ये 1987की बात है. हमने उम्र के महज बीस साल पूरे किए थे. खस्सू वहाँ था, हमेशा हरे रंग के लहराते कुर्ते में, बहुरंगी फ़कीराना टोपी, सफ़ेद होती छोटी दाढ़ी और कलाइयों पर बहुत से कड़े पहने.
अगर वह कव्वाली में नहीं है (जहाँ वह आम तौर पर होता) तो एक लफ्ज़ न बोलता. जब गाना-बजाना अपने चक्करदार उरूज पर पहुँचता तो खस्सू नंगे पैर कूद कर एक दिलचस्प अराजक नृत्य (धमाल) शुरू करता; लगातार ‘हक़, हक़, हक़ अल्लाह!’ चिल्लाता हुआ. कव्वाली के बाद फ़ौरन वह अपनी हमेशा की ग़मगीन अवस्था में लौट जाता.
एक दिन मेरे एक दोस्त ने एक और मलंग से पूछा कि खस्सू की क्या दास्ताँ है. उसने हमें बताया कि खस्सू को उसके बचपन में मज़ार के फाटक पर छोड़ दिया गया था (जो पचास के दशक का आखिरी दौर रहा होगा). तब से वह यहीं रह रहा है.
उस मलंग ने हमें बताया कि खस्सू हमेशा से इस तरह खामोश (या ग़मगीन) नहीं था. और फिर एक शानदार कहानी सामने आई. उसने कहा, ‘खस्सू इंतज़ार कर रहा है.’
किसका इंतज़ार?’कूलर साहब का....’ उसने जवाब दिया. वह दरअसल कहना चाहता था कलर साहब.
कूलर साहब कौन थे? वह मलंग तुरंत उर्दू छोड़ पंजाबी पर आ गया: ‘कूलर साहब (मज़ार के मलंगों के) अज़ीज़ दोस्त थे. खासकर के खस्सू के. खस्सू अब भी उनका मुन्तज़िर है.
कूलर साहब गए कहाँ? “ख़ुदा के पास,’ मलंग ने हमें बताया.
फिर खस्सू क्यों अब भी उनका मुन्तज़िर है? कूलर साहब ने उससे कहा था कि के वह उस ड्राइंगको पूरा करने लौटेंगे जो वह खस्सू के लिए बना रहे थे,’ मलंग ने समझाया. ‘मगर वह कभी नहीं आए. हमें पता चला कि उनका इंतकाल हो गया. मगर खस्सू ने कभी इस बात पर यकीन नहीं किया. वह अब भी उनका इंतज़ार कर रहा है.
अगले कुछ महीनों में हमें मालूम हुआ कि कूलर साहब कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान के अग्रणी मुसव्विरों में से एक अहमद परवेज़थे. परवेज़ का 1979में इंतकाल हो गया था.
रावलपिंडी में पैदा हुए परवेज़ ने चित्रकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत पंजाब विश्वविद्यालय से की थी. चूंकि वे एक बेचैन रूह के मालिक थे, वे जल्द ही 1955में लन्दन चले गए.
साठ के दशक के आखिरी दौर में वे पाकिस्तान लौटे और कराची में आ बसे. सत्तर के दशक में मुल्क के प्रमुख कलाकारों में उनका शुमार होने लगा और कराची शहर के उस वक़्त फलते-फूलते कला पटल पर उनका गहरा प्रभाव था.
अपने प्रशंसकों से घिरे होने के बावजूद बेचैन और बेक़रार बने रहे, कभी संतुष्ट न होने वाले.
उनकी जीवन शैली और भी अनियमित होने लगी. यूके, यूएस और पाकिस्तान के कला समीक्षकों द्वारा जीनियस कहे जाने को लेकर और अपनी कृतियों के लिए बड़ी आसानी से खरीदार पाने को लेकर बेपरवाह परवेज़ के बारे में उनके एक समकालीन ने टिप्पणी की कि वे पैसे के साथ ऐसा बर्ताव करते थे ‘जैसे उससे उन्हें नफरत हो.’
कला समीक्षक सलवत अली ने (डॉन अखबार में) परवेज़ के प्रोफाइल में लिखा कि ‘उपद्रव और बातचीत में बेहद उत्तेजित हो जाना परवेज़ की प्रवृत्ति थी.’ ग्लोबल पोस्ट की उप-सम्पादक और कला समीक्षक मरिया करीमजी अपने पाठकों को बताती हैं कि ‘1970के दशक में मुल्क के माने हुए कलाकारों में से एक अहमद परवेज़ अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार में नियमित रूप से आते थे और उन्हें वहां हाथों में चिलम लिए अक्सर देखा जा सकता था.’
कला समीक्षक और परवेज़ के समकालीन बताते हैं कि उन्होंने जितना पैसा कमाया वह सब शराब पर खर्च हो जाता था. जो लोग उनकी सोहबत में आ रहे थे, उनसे उकताकर वे कराची की विभिन्न सूफ़ी मज़ारों पर जाने लगे. कराची की अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार पर वे नियमित रूप से आने लगे.
कला समीक्षक ज़ुबैदा आग़ा अहमद परवेज़ पर केन्द्रित एक आलेख में कहती हैं कि जैसे-जैसे उनकी शोहरत बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनकी जीवन शैली और भी अनियमित और ‘अस्वास्थ्यकर’ होती गई.
1970के दशक के अंत तक वे लगभग स्थायी रूप से अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार के मैदानों पर रहने लगे. उसी दौरान खस्सू के साथ उनका याराना हुआ होगा.
लाहौरवासी कलाकार मक़बूल अहमद ने, जो 1970के दशक के आखिरी सालों में लाहौर कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स के छात्र थे, मुझे बताया कि कैसे वे अपने आदर्श अहमद परवेज़ से मिलने कराची आए मगर जो दिखाई दिया उससे भौंचक्का रह गए. ‘ये 1978की बात है. परवेज़ ख़स्ताहाल थे. न उन्होंने मेरी तारीफ़ तस्लीम की और न मौजूदगी. वे बेहद परेशान थे, मगर किसी की समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्यों था.’
मक़बूल ने बताया कि परवेज़ लाखों रुपये कमा सकते थे: ‘उन्होंने थोड़ा पैसा कमाया भी मगर ऐसा लगता था कि उनकी उसमें दिलचस्पी नहीं थी. वे ऐसा बर्ताव करते जैसे वे उन लोगों को अपनी आत्मा बेच रहे हों जिन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि उनकी कला के मानी क्या हैं.’ मक़बूल ने फिर कयास लगाया, ‘शायद इसी अपराध बोध ने उन्हें बेघर मलंगों के हाथों में पहुँचा दिया?’
सरकार द्वारा प्रतिष्ठित प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस अवार्ड से नवाजे जाने पर भी परवेज़ की परीशां जीवन-शैली जारी रही. और फिर वह हो गया. और किसी को ताज्जुब नहीं हुआ.
1979में वे अचानक गिरे और होटल के कमरे में मृत पाए गए. वह होटल कराची में आई.आई. चुन्द्रिगर रोड के करीब वाला बॉम्बे होटल था जो अब बंद हो चुका है.
अहमद परवेज़
परवेज़ द्वारा खुद अपने पर थोपे गए एकाकीपन और बर्बाद कर देने वाली जीवन शैली पर रंज करते हुए एक कला समीक्षक ने डॉन अखबार के लिए लेख में यह जोड़ा कि ‘अहमद परवेज़ में अभी बीस और सालों की प्रतिभा शेष थी. मगर शायद इस प्रतिभा ने ही उनकी तकदीर का फैसला इस ट्रेजिक अंदाज़ में कर दिया.’
मैं अब इस बात से वाकिफ़ हूँ कि मज़ार पर उनका दोस्त खस्सू अब भी ज़िन्दा है. हालाँकि जब मैंने उसे आखिरी बार देखा तब वह सो रहा था, मगर ऐसा लगा कि वह अब भी कूलर साहब का इंतज़ार कर रहा था. और उस ड्राइंगका जिसका वादा उससे 36साल पहले किया गया था.

मशहूपत्रकार नदीम एफ. पचाका यह पीकूलर साहब का इंतज़ार भारत भूषण तिवारी ने अनुवाद कर `एक ज़िद्दी धुन` के लिए भेजा है।

सीपीआईएम की आंखों पर हिंदुत्व का परदा?

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`लग्गी जे तेरे कालज़े हाल्ले छुरी नहीं
एह ना समझ शहर दी हालत बुरी नहीं`
(सुरजीत पात्तरकी पंक्तियां)

 


`देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उसमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।` 

- प्रकाश करात


CPIM (माकपा) के अब चल बसे, रिटायर हो गए या कर दिए गए नेताओं की पीढ़ी की अगुआई के दौरान युवा नेता-कार्यकर्ता कहा करते थे कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे युवाओं (असल में तब अधेड़) के हाथ में बागडोर आएगी तो पार्टी अपने सच्चे इंक़लाबी ट्रैक पर दौड़ने लगेगी। इन दोनों में से भी करात को ही ज्यादा सिद्धांतवादी और टंच खरा माना जाता रहा था। पार्टी के सर्वोच्च पद पर करात के बाद येचुरी की बारी आई है। इस बीच फासिस्ट ताकतों के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष का दम भरने वाली पार्टी अपना गढ़ कहे जाने वाले बंगाल में ही बद से बदतर स्थिति का शिकार होती गई है। देश के मौजूदा हालात के बीच किसी भी प्रगतिशील या सेक्युलर कही जाने वाली पार्टी को ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ ही सकता है। लेकिन, निराशाजनक यह है कि ऐसी विकट परिस्थितियों में CPIM अपने दो सबसे दैदीप्यमान कहे गए सितारों के लगातार टकराव के लिए चर्चा में रही है। यहां तक कि पार्टी के सबसे पुराने नेताओं में शामिल अच्युतानंदन तक को सार्वजनिक अपमान का बार-बार सामना करना पड़ा। खुले में हो रही इन कारगुजारियों को पीत पत्रकारिता या सिनीसिज़्म कहकर टाल पाना भी तब मुमकिन न रहा जब करीब तीन महीने पहले CPIM की सेंट्रल कमेटी की बैठक में से गुस्से से बाहर निकलीं सेंट्रल कमिटी की मेंबर और एडवा की जनरल सेक्रेट्री जगमति सांगवान ने मीडिया के सामने पार्टी के सभी पदों और सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। जगमति को बंगाल चुनाव में करारी हार पर चर्चा के दौरान कांग्रेस से गठजोड़ को लेकर प्रस्ताव की भाषा पर ऐतराज था। उनके मुताबिक हल्के शब्द का इस्तेमाल कर बंगाल में हुई गलती को छुपाने की कोशिश हो रही थी।माना यह भी गया था कि जगमति करात केम्प से थीं और इसलिए इतनी आक्रामक हुई थीं। बहरहाल, पार्टी ने इस्तीफा दे देने वालों को भी निष्कासित करने की अपनी परंपरा जगमति के साथ भी दोहरा दी थी। इसके बाद भी कांग्रेस से गठजोड़ के इस मुद्दे के बहाने पार्टी की भीतरी कलह जारी रही थी। लेकिन, कांग्रेस से गठजोड़ के औचित्य-अनौचित्य की बहस के बीच करात ने अचानक बीजेपी और संघ परिवार को सर्टीफिकेट देते हुए कह दिया कि `देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उनमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`

स्वभाविक है कि हिंदुस्तान की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के एक शीर्ष नेता का यह बयान सकते में डालने वाला था। और यह अचानक `जुबान फिसलने वाला मसला नहीं था`, बाकायदा अखबार में लेख लिखकर छपवाया गया था। अाउटलुक के मुताबिक- इरफान हबीब ने माकपा पोलित ब्यूरो को एक कड़ी चिट्ठी लिखकर पार्टी की राजनीतिक-रणनीतिक लाइन को लेकर सवाल उठाया था। इरफान हबीब के अनुसार, `माकपा को भाजपा एवं संघ परिवार जैसे फासीवादी ताकतों को रोकने के उपाय सोचने चाहिए। न कि कांग्रेस को लेकर बेमतलब की बहस में उलझना चाहिए।` जवाब में प्रकाश कारात का मन्तव्य आया है कि `देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उनमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है। इन हालात में माकपा को किसी अन्य की जरूरत नहीं। माकपा की वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है।`

करात चाहते तो सिर्फ इतना कह सकते थे कि बंगाल के चुनावी गठजोड़ से लेकर यूपीए सरकार को समर्थन समेत तमाम पुराने अनुभवों और कांग्रेस की राजनातिक-आर्थिक नीतियों के मद्देनज़र अब आगे कांग्रेस से गठजोड़ का कोई तुक नहीं बनता है। माकपा को किसी अन्य की जरूरत नहीं है। वे पार्टी के पारंपरिक वाक्य को भी साथ में रख ही सकते थे कि माकपा की वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है। कांग्रेस से गठजोड़ के विरोध के लिए क्या इतना काफी नहीं था? पर शायद उन्हें बीजेपी-संघ को एक सर्टीफिकेट देने की ही जरूरत थी और यह मुमकिन नहीं है कि वे नहीं जानते थे कि पूरा फोकस इसी पर होना है और इसी पर विवाद खड़ा होना है। सवाल यह है कि इसके पीछे वजह क्या थी। क्या वे संघ के फासिस्ट हिंदुत्ववादी अभियानों के देशव्यापी व्यापक असर के बीच हिंदू जनता को कोई संदेश देना चाहते थे? आखिर, सभी सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियां मान ही चुकी हैं कि मुसलमानों पर जुल्मो सितम के मसले पर बहुत कड़े सैद्धांतिक स्टेंड पर रहने से बदली हुई परिस्थितियों में चुनावी राजनीति के लिहाज से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी CPIM ग़रीब मुसलमान जनता का विश्वास वापस हासिल करने में नाकाम रह चुकी थी। केरल में करात के विश्वसनीय माने जाने वाले पी. विजयन ने भी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही अखबारों में जो विज्ञापन जारी किया था, उसमें भी केरल को A Truly God`s Own Country  में तब्दील करने की प्रतिबद्धता जताई थी। दक्षिण में संघ के बढ़ते असर से भी शायद विजयन एंड कंपनी को यह खतरा हो कि भविष्य में केरल में भी कांग्रेस के बजाय मुकाबला बीजेपी से ही हो सकता है। शायद यह अकारण नहीं है कि एक तरफ केरल की CPIM सरकार संघ की शाखाओं को लेकर कुछ कड़े फैसले ले रही हो और तभी केरल के ही पार्टी के सर्वाधिक प्रसार वाले मलयाली मुखपत्र में करात लिख रहे हों कि `यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`।

हर स्याह-सुफ़ेद के बावजूद सीपीआईएम से उम्मीद का रिश्ता बनाए रहे सेक्युलर कार्यकर्ताओं और पार्टी से बाहर रहकर भी उस पर यक़ीन रखने वालों पर क्या गुजरी होगी, यह सोचकर भी दिल परेशान हो उठता है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी या उसके महासचिव तुरंत करात के कथन से पल्ला झाड़ सकते थे। लेकिन, सियासत के उस प्रचलित जुमले `यह उनकी निजी राय है, पार्टी इससे इत्तेफाक नहीं रखती है`,को भी कष्ट देना जरूरी नहीं समझा गया। कुछ लोगों का ख्याल था कि करात का बयान पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के लिए चल रही उठापटक का हिस्सा है। लेकिन, इस बारे में जवाब देने के बजाय बंगाल इकाई भी चुप्पी ही साधे रही। तो क्या बंगाल इकाई और उसके संरक्षक कहे जा रहे सीताराम येचुरी को भी यह भय सताया कि करात के बयान का स्पष्ट विरोध जिस बहस को जन्म दे सकता है, वह बंगाल के हिंदू अभिजात्य और हिंदू मध्य वर्ग को और दूर छिटका सकती है? या फिर जो भी मजबूरी रही हो, पार्टी नेतृत्व की चुप्पी ने करात के कथन को (जो बकौल एक बुजुर्ग कॉमरेड, प्रकाश करात के चेहरे पर bad patch की तरह है) पार्टी के चेहरे पर नहीं चिपका दिया? क्या अब यह नहीं माना जाना चाहिए कि यही पार्टी लाइन है?  
`वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है`, मेंयूं भी पार्टी के प्राय: हर इलाके के नेतृत्व के लिए व्यापक अपील है। जब कि फासिस्ट झुंड़ कभी भी, कहीं भी, बिना किसी भी वजह के सामूहिक हत्याओं और रेप जैसी वारदातों को उत्सव की तरह अंजाम दे रहे हों, संवैधानिक संस्थाओं को बेमानी किया जा रहा हो, तब सिर्फ मज़दूर एकता ज़िंदाबाद जैसे नारे लगाकर आंखें मूंद लेना ही शायद ज्यादा सुविधाजनक हो। वरना क्या वजह थी कि पार्टी काडर भी अपने नेता के बयान पर खामोशी ओढ़कर बैठ जाए? आखिर एक कार्ड होल्डर का फर्ज़ प्रतिवाद भी होता होगा? लेकिन, एक बड़ा बुद्धिजीवी तबका जो लगातार खुद भी बता रहा था कि फासिस्ट घेरेबंदी हो चुकी है और यह कई मायनों में अभूतपूर्व है, कि यह घेरेबंदी लोकतंत्र को प्रहसन में तब्दील कर बिना किसी इमरजेंसी के ही कर दी गई है, कि फासिस्ट हमारी जनता की चेतना का अपहरण कर चुके हैं, कि मीडिया और देशी-विदेशी पूंजीवादी घराने, कितने ही डोमा उस्ताद और तमाम लुंपन समूह फासिस्टों के साथ खड़े हैं, कि देश को युद्धोन्माद पर रख दिया गया है, कि देश में कई राज्यों में जनता के खिलाफ ही युद्ध जैसी स्थितियां पैदा कर दी गई हैं, कि देश की गरिमा, तमाम संसाधन गिरवी रख दिए गए हैं, कि...। जी, एक बड़ा बुद्धिजीवी तबका जो हमें लगातार फासिस्टों से आगाह कर रहा था, उसे भी अचानक काठ मार गया। क्या उसे अपना लिखा-कहा अब एक पार्टी के नेता के बयान के बाद डिलीट करना था? उस कथन के पक्ष में तर्क जुटाने थे? या हमेशा की तरह हस्तिनापुर की गद्दी से बंधे होने की भीष्म पितामही घुटन में डूबकर मर जाना था? 
लेकिन, जब लंबी प्रैक्टिस बड़े नामों को खामोश रहने पर मजबूर कर दे, तब भी कोई बोल ही पड़ता है। जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया बोले-  `एक वामपंथी बुजुर्ग नेता जो कि जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष भी हैं, ने कहा है कि मोदी सरकार निरंकुश है लेकिन फासिस्ट नहीं है. मेरा उन कामरेड से कहना है कि अगर वह और लड़ना नहीं चाहते हैं तो रिटायर हो जाएं और न्यूयॉर्क चले जाएं. हम अपनी लड़ाई खुद लड़ लेंगे.'दूसरी-तीसरी पंक्ति के लोगों से जवाब में जो कहलाया गया, उसमें बौखलाहट ज्यादा थी- 'कन्हैया कल का लड़का, पोस्टर बॉय, अति उत्साही, अचानक लाइम लाइट में आ गया हीरो, उसे सीमा में रहना चाहिए, फासीवाद फासीवाद...हुं...बुर्जुआ..'टाइप। लेकिन, कन्हैया खुद संघर्ष और यातनाओं से गुजर रहे हैं, उनका मजाक उड़ाना उलटा ही पड़ रहा था। इन्हीं कन्हैया को सीपीआईएम चुनाव प्रचार में ले जाने के लिए उतावली थी। बात तो यह है कि इस युवा का आने वाला कल पतनशील भी हो जाए तो भी न उसका आज का संघर्ष बेमानी होगा, न उसका सवाल। असल में, कन्हैया की नसीहत की चोट गहरी थी। एक सज्जन लिख रहे थे कि क्या कन्हैया के कहे से कांग्रेस और भ्रष्ट क्षेत्रीय दलों से समझौते कर लिए जाएं। कोई पूछ सकता था कि क्या आपकी पार्टी अभी तक लगातार यही नहीं करती आई थी। 
लेकिन, गौरतलब यह था कि कन्हैया को दिए जा रहे जवाब में साम्प्रदायिकता का जिक्र भी भेड़िया आया-भेड़िया आया जैसे जुमले से किया जा रहा था। 2 सितंबर की हड़ताल का हवाला देकर कहा जा रहा था कि मजदूरों की लड़ाई यानी वर्ग संघर्ष ही एक रास्ता है। मध्य वर्गीय मसलों को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। यह दिमाग़ी पतन, गद्दारी और बेशर्मी का चरम था। क्या सामूहिक हत्याओं का शिकार बनाए गए लोग, बलात्कार का शिकार बनाई गई महिलाएं, जलती आग में फेंक दिए गए बच्चे - ये मध्य वर्ग के मसला थे? 
Jairus Banajiने प्रकाश करात के जवाब में जो तीखा लेख लिखा, उस पर भी कई दिन गहरी चुप्पी रही। आख़िर अबVijay Prashadने उनका रिजोइंडर लिखा है पर वह भी मूल सवाल का जवाब देने के बजाय 2 सितंबर की हड़ताल, वर्ग संघर्ष और फासिज्म की परिभाषाएं ही देता है। आपको याद होगा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद के वर्षों में पहले बीजेपी की केंद्र में साझा सरकार बनने और फिर गुजरात हिंसा के बाद केंद्र में मोदी के बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का प्रधानमंत्री बनने तक कहा जाता था कि देश में इतनी विविधताएं हैं और उसका सेक्युलर ढांचा इतना मजबूत है कि बीजेपी मनमानी करने लायक बहुमत हासिल नहीं कर सकती है। यह भी नसीहत दी जाती थी कि मोदी का जिक्र करना ही मोदी को मजबूती देता है। करात और उनकी बुद्धिजीवी टीम अभी भी न सिर्फ लगभग वैसी ही बातें दोहरा रही है बल्कि नई हास्यास्पद बातें भी कर रही है-  
`There is no imminent crisis to the fractured and complex Indian bourgeoisie, nor is there any indication that the BJP government has the stomach to move against the Constitution or even towards an Emergency regime. The BJP pushes its right-wing agenda, but it is hampered by a host of political adversaries – not only political parties, but also pressure groups and mass sentiment that will not allow it to enact its complete agenda. The fact that one hundred and eighty million workers went on strike shows that there remains wide opposition to the BJP’s ‘labour reform’ agenda, one that is otherwise quite acceptable to large sections of the parliamentary opposition (including the Congress Party).`
हालांकि इस बात का जवाब ऊपर दिया जा चुका है और असल में तो जवाब देना ही गैरजरूरी है कि क्या बीजेपी के संविधान के खिलाफ जाने या इमेरजेंसी लाने की संभावनाएं हैं। और क्या यह सब करने के लिए इमरजेंसी की जरूरत है? क्या आपके नेताओं और बुद्धिजीवियों के पुराने कहे-लिखे और आपके अखबारों के पन्नों को ही आपके आगे नहीं कर दिया जाना चाहिए? क्षेत्रीय दलों और प्रेशर ग्रुप्स के हालात और नतीजों पर भी क्या अलग से रोशनी डालने की जरूरत है? और मास सेंटीमेंट? क्या सारा खेल मास सेंटीमेंट पर ही नहीं खेला जा रहा है? क्या मास सेंटीमेंट के नाम पर ही घरों में घुसकर हत्याएं नहीं की जा रही हैं? क्या आपको याद है कि फांसी के फैसले तक में The collective conscience of the society का हवाला दिया जा चुका है? 
आप अब एक खोज लाते हैं कि आरएसएस की विचारधारा फासिस्ट न होकर सेमी फासिस्ट है। क्योंकि `it can never hope to achieve hegemony over the popular imagination, but has to impose its fascistic ideology from above, through the institutions, by manipulation of the media, by deceit rather than by the creation of conviction.`काश इतना भी सही होता। संघ का यक़ीन मीडिया और तमाम संस्थाओं पर कब्जे से ज्यादा  popular imagination पर ही रहा है। या कहिए कि इसी रास्ते से वह इस स्थिति में पहुंची है कि पूंजीवादी ताकतें और अमेरिका उस पर यकीन कर सके कि उनके एजेंडे को निर्बाध ढंग से लागू करने की क्षमता कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी में है। popular imagination पर असर डालकर या वहां पहले ही मौजूद कचरे से तालमेल कर वह तमाम संस्थाओं को कब्जाने और संचालन करने की स्थिति में पहुंचा है। हकीकत यह है कि इतनी विशाल पार्टी होने और संघर्षों का इतिहास होने के बावजूद CPIM और दूसरी सेक्युलर शक्तियां इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा नाकाम रही हैं।  
``Fissures along caste and regional lines are too deep to allow the RSS to dig its roots into the Indian popular imagination. If it elevates Hindi, it will alienate Tamils. If it pushes the Ram Mandir, it does not speak as loudly to Bengalis as those who read Tulsidas. The BJP – the electoral arm of the Parivar – finds it hard to break into regions of India where the RSS is not as powerful. It makes alliances. These are opportunistic. These alliances strengthen the BJP in Delhi, but do not allow it to penetrate the popular consciousness elsewhere.``क्या कोई भोलेपन से इन बातों पर यक़ीन कर सकता है? जाति और क्षेत्रवाद के गड्ढ़ों का सबसे ज्यादा फायदा संघ ने ही उठाया है. दलितों और पिछड़ों से घोषित घृणा के बावजूद, आरक्षण का सैद्धांतिक विरोध करने के बावजूद अपने अभियानों में इनका सबसे ज्यादा इस्तेमाल भी करने की कुव्वत को संघ साबित करता रहा है। लगभग एक ही खित्ते में वह एक जगह एक जाति की घृणा का इस्तेमाल कर सकता है और लगभग उसी जगह में दूसरी जाति की घृणा का। हरियाणा और वेस्ट यूपी के दंगों का अध्ययन आपके काम का हो सकता है। बंगाल, नोर्थ ईस्ट, साउथ कहां उसकी ताकत नहीं है? दरअसल, कॉमन सेंस का जैसा निर्माण या इस्तेमाल संघ ने किया है और जिस तरह की सामग्री लगातार वॉट्सएप और सोशल मीडिया के दूसरे साधनों से लगातार प्रसारित होती है और उसका जैसा असर होता है, उसका कोई अनुमान आपको क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है कि दूसरी संभावनाएं नहीं थीं या नहीं हैं, पर या तो इस मोर्चे पर ईमानदारी से काम नहीं किया गया या फिर इसका हवाला देकर काम चलाया जाता रहा।

`When the BJP is on the RSS’s (and VHP’s) turf, then matters are different. The Gujarat pogrom of 2002 took place in a setting where the RSS and the VHP had prepared the terrain.` ऐसी बातों पर क्या कहा जाए? बीजेपी कहां आरएसएस (हां VHP भी तो वही है) के टर्फ पर नहीं है? जहां बीजेपी आपको अकेली मजबूत नहीं दिखाई देती, वहां भी आरएसएस टर्फ बिछा रही होती है या बिछा चुका होता है। आप क्या नहीं जानते हैं कि नॉर्थ ईस्ट में भी, केरल में भी, बंगाल में भी? कई बार अपनी रणनीति के तहत उस टर्फ पर वह दूसरी पार्टियों को चलने दे रहा होता है। 
कांग्रेस के साथ गठजोड़ न करें, आप अकेले संघर्ष करें, इससे क्या एतराज हो सकता है? सवाल आपकी इसी लाइन से है- `यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`। 
और इसके बचाव में आपके तर्कों से। `वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है`कहते हुए आप अरसे तक दलितों और स्त्रियों के सवालों से मुंह मोड़ते रहे। आपके नेतृत्व से वे गायब रहे और फिर तमाम संघर्षों के बावजूद आप उन तबकों में विश्वसनीयता खोते रहे। एक सवाल आपसे लगातार और अब सच्चर आयोग का हवाला देकर पूछा ही जाता रहा है कि आखिर बंगाल में इतने बरसों के शासन में मुसलमान और दूसरे कमजोर तबकों की हालत इतनी दयनीय क्यों रही। यह भी कि आदिवासी क्षेत्रों में जब भयंकर दमन शुरु हुआ, तो आप कहां खड़े थे? सोनी सोरी तो नक्सलवादी नहीं थीं। यदि वे नक्सल या संघ की भी कार्यकर्ता होतीं तो भी एक स्त्री की योनि में पत्थर भर देने के कृत्य के इतना चर्चित हो जाने के बावजूद आप की महिला विंग तक खामोश क्यों बनी रहीं? क्या वजह है कि आपके पास बुद्धिजीवियों का बड़ा जखीरा होने के बावजूद मुश्किल मसलों पर खामोशी छा जाती थी और अरुंधति जैसे ऑथेंटिंक स्वर आप बर्दाश्त नहीं कर पाते थे? क्या आप जानते हैं कि लेफ्ट के लिए सरकार बना पाने से ज्यादा मूल्यवान अगर कुछ है तो विश्वसनीयता ही है? और क्या आप जानते हैं कि ताजा प्रकरण में आप वही खो रहे हैं?
जहां तक 2 सितंबर की हड़ताल का सवाल है, तो आपको सलाम। लेकिन अगर आप इसे और हड़ताल में शामिल `one hundred and eighty million` लोगों के शामिल होने को करात की लाइन (जो कि अब पार्टी लाइन ही लगती है), का कवच बनाएंगे तो हमें आपको बताना पड़ेगा कि इनमें एक हिस्सा उस मध्य वर्ग और सरकारी नौकरियों के पैसे से उच्च वर्ग में तब्दील हो चुके लोगों का भी था, जिसे प्राथमिकता न देने के नाम पर आपके लोग साम्प्रदायिकता के सवाल को भेडि़या-भेड़िया आया करार देने लगते हैं। और हड़ताल में शामिल होने व इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगा लेने के बावजूद इस तबके की प्राथमिकता में भी ये सब सवाल शामिल नहीं हैं। वेतन बढ़वाने के लिए इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने वालों की बड़ी संख्या बीेजपी को वोट भी करती रही। यह बात किसी हद तक कमजोर तबके के मजदूरों के बारे में भी कही जा सकती है। यह बताने का मक़सद आंदोलन को प्रश्नांकित करना नहीं है बल्कि यह याद दिलाना है कि इसकी ओट में आप एक बुरे रास्ते पर चल पड़ने का बचाव नहीं कर सकते।

(मेरी अंग्रेजी कमजोर है और आपकी बातें अंग्रेजी में ही होती हैं। मेरी मूल चिंता को न भूलिएगा और अपने कदमों को उस रास्ते से वापस खींचिएगा तो आपका सबसे बड़ा अहसान लेफ्ट लीगेसी पर होगा।)
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प्रकाश करात का इलस्ट्रेशन Hindustan Times की साइट से साभार
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(आप यह पोस्ट KAFILA पर अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं।)

सुधीश पचौरी और संपादक की बीमार मानसिकता का विरोध

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फोटो 5 अक्तूबर 2013 के उसी कार्यक्रम का है जिसे सुधीश पचौरी बर्दाश्त नहीं कर सका था। 

हमारे प्यारे कविवीरेन डंगवालकी बीमारी को लेकर 6 अक्तूबर 2013 को `दैनिक हिंदुस्तान` में सुधीश पचौरी की घिनौनी टिप्पणी प्रकाशित हुई थी तो पचौरी और अख़बार के संपादक की चारों तरफ निंदा हुई थी। मेल बॉक्स की सफाई करते हुए यह मेल भी सामने आया जो उस बीमार मानसिकता के विरोध में HT Media ltd की Chairperson शोभना भरतिया को भेजा गया था।


श्रीमती शोभना भरतिया
अध्यक्षा
एच. टी. मीडिया लि.
हिंदुस्तान टाइम्स भवन
नई दिल्ली


प्रिय महोदया,
हम आपका ध्यान आपके संस्थान द्वारा प्रकाशित हिंदी के लोकप्रिय दैनिक हिंदुस्तान में 6 अक्टूबर को प्रकाशित एक व्यंग्य की ओर दिलाना चाहते हैं। यह व्यंग्य एक ऐसे व्यक्ति पर है जो कि कैंसर से पीड़ित है। हद यह है कि व्यंग्य उस व्यक्ति के बीमार होने पर है।  इसके लेखक हैं सुधीश पचौरी। इस बीच पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में इस की भर्त्सना करते हुए टिप्पणी भी प्रकाशित हुई है। (कृ. देखें संलग्न टिप्पणी)

हिंदी के जिस जानेमाने कवि का मजाक उड़ाया गया है, उस अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कवि का नाम है, वीरेंद्र डंगवाल। इस के बावजूद कि कवि के संदर्भ को शब्दों के चातुर्य से ढका हुआ है पर सारा हिंदी जगत जानता है कि किस की मजाक उड़ाई गई है। इस लेख के पीछे छिपी अमानुषिकता और निर्ममता का कोई सानी नहीं है। दुनिया के किसी भी समाचारपत्र में साहित्य या व्यंग्य के नाम पर शायद ही कहीं ऐसा देखने को मिलता हो। सच यह है कि कोई भी सभ्य समाज इस तरह की बेहूदगी और बर्बरता नहीं दिखला सकता जैसी कि आपके अखबार के माध्यम से सामने आई है। हम आपसे अपेक्षा करते हैं कि आप इस को एक बार देखें और विचार करें कि क्या इस तरह की हरकत किसी अखबार को शोभा देती है?

हमें आशा थी कि अखबार के संपादक मामले की गंभीरता को देखते हुए इस बीच इस पर जरूर कार्रवाई करेंगे। पर अफसोस की बात यह है कि दो माह से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद संपादक ने कुछ नहीं किया बल्कि वह यह उम्मीद किए बैठा लगता है कि लोग इस आमानुषिकता को भूल जाएंगे। इससे जाहिर होता है कि इस व्यंग्य के छापने में आपके संपादक का पूरा-पूरा हाथ है।

आप इस मामले में क्या कार्रवाई करती हैं और क्या नहीं, यह आपका सरोकार है पर हिंदी से जुड़ा होने और हिंदी समाज का हिस्सा होने के नाते हमें आपका ध्यान इस ओर दिलाना जरूरी लगा है। हम इस तरह के कृत्य से अपनी असहमति और विरोध अभिव्यक्त करते हैं।
सधन्यवाद
भवदीय

1. आनंद स्वरूप वर्मा

2. असद जै़दी

3. रामशरण जोशी

4. पंकज बिष्ट

5. अजय सिंह

6. प्रकाश चौधरी

7. अशोक पाण्डे

8. शिरीष मौर्य

9. धीरेश सैनी



To
Smt. Shobhana Bhartia
The Chairperson
H T Media Ltd.
New Delhi

Dear Madam
We the following Hindi Writers would like to draw your attention to an item published by your well known Hindi daily Hindustan on 6th Oct. 2013. This so called humer or satir is on a man suffering from the dreded desease of Cancer. This 'pice of humer' is written by a man called Sudheesh Pachauri.

For your information a number of Hindi magaziesns and social media sites have taken note of it and commented on this dasderdly act. (Pl see the encolsed clipping).

This sort of inhumanity and heartlessness in the name of freedom of the press is unthinkable and unheard of. It is neither literature nor journalism. The fact is that no civilised society can allow this sort of indecency and barbarianism. The name of the poet who has been reduculed in this piece is Virendre Dangwal, a recipent of Sahitya Academi award. We request you to just have a look at it and decide of your own whether this is justified by any yardstick? Through this letter we would also like to express our displeasure as well as our opposition to this sort of writing.

with best wishes

1. A. S. Verma
2. Asad Zaidi
3. R. S. Joshi
4. Pankaj Bisht
5. Ajay Singh
6. Dheeresh Saini
7. Prakash Chaudhri
8. Shirish Morya
9. Ashok Panday




शारीरिकबनाममानसिकरुग्णता
पहलेयहटिप्पणीदेखलीजिए:
''एकगोष्ठीमेंएकथोड़ेजीआएऔरएकअकादमीबनादिएगएकविकेबारेमेंबोलेवहउनथोड़ेसेकवियोंमेंहैं, जोइनदिनोंअस्वस्थचलरहेहैं।वहगोष्ठीकविताकीअपेक्षाकविकेस्वास्थ्यपरगोष्ठितहोगई।फिरस्वास्थ्यसेफिसलकरकविकीमिजाजपुरसीकीओरगई।थोड़ेजीबोलेकिउनकाअस्वस्थहोनाएकअफवाहहै, क्योंकिउनकेचेहरेपरहंसीशरारतअबभीवैसीहीहै। (क्यागजब'फेसरीडिंग` है? जराशरारतेंभीगिनादेतेहुजूर)हमनेजबथोड़ेजीकेबारेमेंउसथोड़ीसीशाममेंमिलनेवालेथोड़ोंसेसुना, तोलगाकियारयेसवालतोथोड़ेजीसेकिसीनेपूछाहीनहींकिभईथोड़ेजीआपकविताकरतेहैंयाबीमारीकरतेहैं? बीमारीकरतेहैंतोक्यावेबुजुर्गचमचेआपकेडाक्टरहैंजोदवादेरहेहैं।लेकिन'चमचई` मेंऐसेसवालपूछनामनाहै।`` यहटुकड़ा'ट्विटरागायन, ट्विटरावादन!` शीर्षकव्यंग्यकाहिस्साहैजोदिल्लीसेप्रकाशितहोनेवालेहिंदीदैनिकहिंदुस्तानमें 6 अक्टूबरकोछपाथा।इसव्यंग्यकीविशेषतायहहैकियहएकऐसेव्यक्तिकोनिशानाबनाताहैजोएकदुर्दांतबीमारीसेलड़रहाहै।हिंदीकेअधिकांशलोगजानतेहैंकिवहकौनव्यक्तिहै।दुनियामेंशायदहीकोईलेखकहोजोबीमारपरव्यंग्यकरनेकीइसतरहकीनिर्ममता, रुग्णमानसिकताऔरकमीनापनदिखानेकीहिम्मतकरसकताहो।
परयहकुकर्मसुधीशपचौरीनेकियाहैजिसेअखबार'हिंदीसाहित्यकार` बतलाताहै।हिंदीवालेजानतेहैंयहव्यक्तिखुरचनियाव्यंग्यकारहैजिसकीकॉलमिस्टीसंबंधोंऔरचाटुकारिताकेबलपरचलतीहै।
इसव्यंग्यमेंउसगोष्ठीकासंदर्भहैजोसाहित्यअकादेमीपुरस्कारसेसम्मानितसबसेमहत्त्वपूर्णसमकालीनजनकविवीरेनडंगवालकोलेकरदिल्लीमेंअगस्तमेंहुईथी।वहनिजीव्यवहारकेकारणभीउतनेहीलोकप्रियहैंजितनेकिकविकेरूपमें।वीरेनउनसाहसीलोगोंमेंसेहैंजिन्होंनेअपनीबीमारीकेबारेमेंछिपायानहींहै।वहकैंसरसेपीडि़तहैंऔरदिल्लीमेंउनकाइलाजचलरहाहै।पिछलेहीमाहउनकाआपरेशनभीहुआहै।
हमव्यंग्यकेनामपरइसतरहकीअमानवीयताकीभर्त्सनाकरतेहैंऔरहिंदीसमाजसेभीअपीलकरतेहैंकिइसव्यक्तिकी, जोआजीवनअध्यापकरहाहै,  निंदाकरनेसेचूके।यहसोचकरभीहमारीआत्माकांपतीहैकियहअपनेछात्रोंकोक्यापढ़ाताहोगा।हमउसअखबारयानीहिंदुस्तानऔरउसकेसंपादककीभीनिंदाकरतेहैंजिसनेयहव्यंग्यबिनासोचे-समझेछपनेदिया।हममांगकरतेहैंकिअखबारइसघटियापनकेलिएतत्कालमाफीमांगेऔरइसस्तंभकोबंदकरे।
-समयांतर, नवंबर 2013 मेंछपीटिप्पणी
(पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले लेखकों के फोन नंबर भी दिए गए थे जो यहां पोस्ट में हटा दिए गए हैं।)

कम्बख़्त दस्तावेज़ `पासपोर्ट` और नानी का इंतिक़ाल

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(सईद नक़वी की पुस्तक ‘बीइंग दि अदर: दि मुस्लिम इन इण्डिया` (अलिफ़ बुक कंपनी, 2016) के एक अध्याय ‘ग्रोइंग अप इन अवध’’ का हिस्सा )
अनुवाद और प्रस्तुति : भारतभूषण तिवारी


हमारे समरसतापूर्ण अस्तित्व और मुक्त सांस्कृतिक अंतर्मिश्रण के चलते 1947 में हुए बँटवारे का दर्द कुछ गहरा था क्योंकि घनिष्ठता से जुड़े कुनबे भी अकस्मात् बंट गए. यह ज़िन्दगी की एक दर्दनाक विडम्बनाओं में से एक है कि हमारी इतनी अच्छी ख़ाला-नानी, नानी अम्मी, जिन्होंने हमेशा मुस्तफ़ाबाद में दफ़नाए जाने का ख़्वाब देखा था, लाहौर में अल्लाह को प्यारी हुईं. उनका शरीर हिंदुस्तान वापिस नहीं लाया जा सका और हम उनके जनाज़े में शरीक नहीं हो सके. आज के दौर में,  जहाँ छोटे परिवार बढ़ते जाते हैं, ख़ाला-नानी शायद दूर की रिश्तेदार लगे, मगर हमारे परिवार में ऐसा नहीं था जो कि पारम्परिक संयुक्त परिवार व्यवस्था पर आधारित था. मेरी अम्मी की अम्मी अपने कुनबे में सबसे बड़ी थीं और नानी अम्मी सबसे छोटी. मेरी अम्मी से उनका ख़ास लगाव था जिनकी निगहबानी में वह बड़ी हुई थीं. इसका नतीजा यह नहीं हुआ कि नानी अम्मी के अपने बच्चों का ख़याल न रखा गया हो; एक दूसरे पर अत्यधिक आश्रित रहने वाली उस व्यवस्था में उनके अपने बच्चों का ख़याल औरों ने रखा. दरअसल, जैसा कि मैंने पहले बताया, मुस्तफ़ाबाद का हमारा घर ममेरे-फ़ूफ़ेरे-मौसरे भाई-बहनों, मामियों-मौसियों-फूफियों और मामाओं-फ़ूफ़ाओं-मौसियों से भरा रहता (जिनकी तादाद मुहर्रम, बच्चा पैदा होने, किसी की मौत होने या शादी-ब्याह के मौकों पर सौ तक पहुँच जाती).

अपने इंतकाल के दिन तक नानी अम्मी को पासपोर्ट नामके दस्तावेज़ को समझने में बेहद मुश्किल हुई. वह इस इल्म के साथ बड़ी हुई थीं कि एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए फ़क़त रेलगाड़ी के टिकट की दरकार होती है.  यह बात आसानी से समझ में आती है क्योंकि पहले की उनकी सारी यात्राएँ यूपी में अवध तक सीमित रहीं. वह बाराबंकी में पैदा हुईं, बिलग्राम में ब्याहीं और मुस्तफ़ाबाद या लखनऊ मेरे माता-पिता से मिलने आती रहीं. फिर बँटवारा हुआ, उसके बाद ज़मींदारी प्रथा का ख़ात्मा और फिर उनके शौहर का इंतकाल जो एक छोटे-मोटे  सामंत थे. बाराबंकी और बिलग्राम के घर जीण-शीर्ण हालात में थे. नानी अम्मी हमारे साथ रहने आ गईं और मुस्तफ़ाबाद और लखनऊ के बीच आना-जाना करती रहीं.

पासपोर्ट की ज़रूरत इसलिए आन पड़ी थी कि उनकी दो बेटियाँ पाकिस्तान में ब्याहीं और वहीं रह गईं. उनकी कश्मकश उतनी ही शदीद थी जितनी टोबा टेक सिंह की (सआदत हसन मंटो का एक काल्पनिक चरित्र) जो यह नहीं  समझ पाया कि बँटवारा होने पर उसका गाँव पाकिस्तान में कैसे ‘जा’ सकता है; उसी तरह नानी अम्मी नहीं समझ पाईं कि उनकी बेटियाँ दूसरे मुल्क कैसे ‘जा’ सकती हैं. कोई अपना घरबार हमेशा के लिए कैसे छोड़ सकता है? उन्हें दिलासा देने की कोशिश में यह बतलाया गया कि उनकी बेटियाँ, सुग़रा  और सकीना, वाकई घर छोड़ कर नहीं जा रही हैं. बम्बई में उनकी लड़कियों के वास्ते दो ‘बहुत अच्छे लड़के’ थे, मगर लाहौर लखनऊ से बेहद करीब था. तिस पर वे ‘लड़के’ (जिन्हें पाकिस्तान के कुछ कज़िन ने ढूँढा था) बहुत अच्छी ‘ज़ात’ के थे. ( उपमहाद्वीप के मुसलमानों पर हिन्दू जाति प्रथा के असर को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. सैयद, शेख़, पठान अब भी ऊँची जातियाँ हैं और जुलाहे और दीगर पेशेगत श्रेणियों को नीचा माना जाता है.)
    
हिंदुस्तान का नक्शा निकाल कर बिछाया गया. नानी अम्मी को दिखाया गया कि कैसे त्रिवेंद्रम, मद्रास, बैंगलोर, हैदराबाद, बम्बई ये सब हिंदुस्तान में होते हुए भी लखनऊ से लाहौर क्या कराची से भी ज़्यादा दूर थे. उन्हें बतलाया गया की हिंदुस्तान-पाकिस्तान की सरहद महज एक बनावटी सरहद थी जिसे चंद हफ़्तों में एक ‘अंग्रेज़’ सर सिरिल रैडक्लिफ ने जल्दी-जल्दी में खींच दिया था, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच की सरहद का फैसला करने के लिए मुकर्रर लिए गए दो कमीशनों के मुखिया थे. वक़्त के साथ-साथ सरहद ख़त्म हो जाएगी और वह  उसे एक अस्थायी असुविधा के तौर पर ही  लें.

इसलिए नानी अम्मी सुग़रा और सकीना को पाकिस्तान के ‘लड़कों’ से ब्याहने को राज़ी हो गईं. मगर जल्दी ही वह  उनके शुरूआती शुबहों से रूबरू हुईं जो शुरुआत थी मोहभंग की. उनकी हसरत थी कि वह अपनी बेटियों के पास लाहौर जाएं और उन्हें पासपोर्ट हासिल करने को कहा गया. अगर लाहौर और कराची हिंदुस्तान के दीगर बड़े शहरों के मुकाबले लखनऊ से नज़दीक थे तो फिर क्यों उन्हें रेलगाड़ी के टिकट के अलावा एक और ‘टिकट’ लेने के लिए क्यों कहा जा रहा है. इस ‘अजीब’ ज़रूरत के पीछे की वजहों को उन्हें समझाने की कोशिशें की गईं, फिर पासपोर्ट के फॉर्म लाए गए और उन्होंने अचरज के साथ अपनी साफ़ उर्दू लिखावट में उन्हें भरा. मोहभंग  का दूसरा मौक़ा आया. मेरे पिता के मुंशी ने उन्हें बतलाया कि अगर फॉर्म हिंदी या अंग्रेज़ी में भरा जाए तो उन्हें पासपोर्ट जल्दी मिल जाएगा. क्या उर्दू का कोई मोल नहीं रहा? उन्होंने पूछा.

नानी अम्मी का उर्दू से लगाव इस वजह था क्योंकि यही इकलौती लिपि उन्हें सिखाई गई थी, हालांकि जो भाषा वह बोलती थीं वह थी खालिस अवधी या देहाती. दरअसल, बोली के मामले में लिंगभेद था. ज़्यादातर ख़वातीन अवधी या देहाती बोलतीं  मगर औपचारिक मौकों पर उर्दू या हिंदुस्तानी बोल लेतीं. हज़रात उर्दू या हिंदुस्तानी में गुफ़्तगू  करते और अनौपचारिक मौकों पर अवधी या देहाती पर आ जाते.

पासपोर्ट, जो नानी अम्मी के लिए हमेशा एक बेहद नापसंद दस्तावेज़ रहा, के बिना ही वह सिधार गईं इस बात में कुछ प्रतीकात्मकता शायद होगी. वह  लाहौर में अपनी बेटियों के पास थीं, छह महीनों से बीमार. उनका  हिंदुस्तानी पासपोर्ट एक्सपायर हो चूका था. वह चाहती थीं कि उसे रिन्यू करवाया जाए क्योंकि वह चाहती थीं कि उन्हें मुस्तफ़ाबाद में दफ़नाया जाए. उनकी बेटियों ने उनसे कहा कि यह काम जल्दी ही करवाया जाएगा. मगर बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो पाया. वह एक बेहद ग़मगीन  दौर के रूप में मेरी यादों में बसा है. नानी अम्मी के इंतिकाल से हम उबरे ही थे  कि अखबारों ने  मुरादाबाद (उ.प्र) में 1980 में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बारे में दुनिया को बताया, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हमेशा की तरह ‘हज़ारों’ बेघर हुए.

मनमोहन की मशहूर कविता ‘आ राजा का बाजा’

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‘आ राजा का बाजा’ कविता के बारे में
-मनमोहन
पिछले दो-ढाई साल से इस कविता का एक अजीबोगरीब पाठ फेसबुक पर घूम रहा है और जो कभी भी, कहीं भी प्रकट हो जाता है, उसके बारे में मैंने कई बार स्पष्टीकरण दिया है कि यह कविता का मूल पाठ नहीं है। लेकिन यह फिर भी जारी है। अरसे तक मेरे लिए यह गुत्थी ही बनी रही कि कविता के इस पाठ का स्रोत क्या है? बहुत बाद में पता चला कि कविता-कोश में यह कविता इसी तरह दर्ज है और वहीं से लोग इसे उठाते हैं। मेरे कहने पर अनिल जनविजय ने इसे कविता-कोश से हटा दिया। लेकिन अभी भी कविता का यही पाठ सर्कुलेशन में है। इसमें यकीनन कुछ दोष मेरा भी है कि मैं इसके मूल पाठ को पेश न कर सका।
यह कविता आपात्काल की दहशत भरी परिस्थिति में लिखी गई थी और घोर आपात्काल के दिनों में ही ‘उत्तरार्ध’ के संभवतः ग्यारहवें फासीवाद विरोधी अंक में अन्य कुछ कविताओं के साथ प्रकाशित हुई थी। उन दिनों इसका अनेक ढंग से उपयोग हुआ। आपात्काल खत्म होने के बाद के वर्षों में जन नाट्य मंच ने ‘राजा का बाजा’ नाम से बेरोजगारी पर एक नाटक किया, जिसका शीर्षक के अलावा कविता से सिर्फ इतना लेना-देना था कि उसमें इस कविता की चंद पंक्तियों को अपने ढंग से बदलकर और एक आरती की धुन में ढालकर पैरोडी की तरह इस्तेमाल कर लिया गया था। वही पंक्तियाँ शायद किसी विधि से कविता कोश वालों के हाथ लग गईं।
देश की मौजूदा परिस्थिति आपात्काल के मुकाबले कहीं ज्यादा गंभीर और भयावह है। आपात्काल के तुरंत बाद के समय की मानसिकता से तो यह और भी उलट है। ऐसे में इस कविता के नाम पर चल रहा पैरोडी पाठ और उसकी उत्फुल्ल ‘जय जगदीश हरे’ धुन मुझे खासतौर पर परेशान कर रही थी।
‘उत्तरार्ध’ के अनेक पुराने अंक नापैद हो गए हैं। मैंने उन्हेें हासिल करने की कोशिश कई बार की लेकिन नाकामयाब रहा। अचानक करीब आठ-दस साल पहले अपनी ही पत्रिकाओं में आपात्काल के दौर का एक क्षत-विक्षत जर्जर अंक हाथ लगा, तभी यह और कुछ अन्य कविताएँ किसी तरह फोटोकाॅपी कराकर रख ली थीं। उन्हीं को ढूँढ़कर निकाला है और अब (रिकाॅर्ड ठीक करने के लिए) यह पोस्ट कर रहा हूँ।


आ  राजा  का  बाजा  बजा

ता ऽ थे ई  ता ऽ
ता ऽ  गा ऽ
रो टी  खा ... न  खा ...
गा ऽ
आ ...
आ  रा जा  का  बा जा  ब जा

स च  म त  क ह
चु प   र ह...  चु प  र ह ...
स ह  स ह  स ह

रा श न
न न ... न न ...
ईं ध न ...
न न ... न न ...
ब र त न   ठ न  ठ न
चु प... चु प...
श ठ   सु न...
सु न...  चा बु क  च म का र
ज न  ग न  म न
अ धि ना य क.... ना य क ...
उ न्ना य क...     प त वा र
जी व न   खे व न हा र

त न  म न  वे त न
स ब  अ र प न  क र
तु र त   तु र त
भ ज  उ त्पा द न ... पा द न...
के व ल

मू क  ब धि र  बन
व ध  ल ख
म त  क र
कु न मु न

झु ल स न  ठि ठु र न  स ब
म न  की  त न  की  पी...
पी... जी...

ल ब  रँ ग  चु न  ज प
अ नु शा स न
शा स न
के व ल

मु ड़  तु ड़  नि चु ड़  नि चु ड़
इ त   उ त  उ ड़  म त
लु ट  पि ट  बि क
धि क्  उ फ  म त  क र

जु त    च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र

ड ग  में  ड ग म ग  म त  क र
म ग में  म त  क र  ह र क त
ब क  ब क  ब स  क र
च ट  प ट  क र  क र त ल
सं भ ल  सं भ ल  च ल
आ ता  है  र थ
ल थ प थ  ज न प थ  प र

छ म...छ म...
ल क द क     स ज ध ज
आ ता  है  रा ज कुं व र  को म ल
ओ  रे  ख ल  ब न  ट म ट म

इ ठ  म त
ह ठ  त ज
च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र

आ ... गा...
ता ... थे ई ...ता ...ऽ ऽ
आ ऽ

आ  रा जा  का  बा जा  ब जा।

जॉन बर्जरः वक़्त को टटोलती निगाह - शिवप्रसाद जोशी

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John Berger (5 November 1926 – 2 January 2017)

अरुंधति रॉय 2009 के दरम्यान जॉन बर्जर से मिलने गई थीं. बर्जर ने बस उनसे पूछा कि तुम अभी अपना कम्प्यूटर खोलो और अपना लिखा कुछ फ़िक्शन मुझे पढ़कर सुनाओ. अरुंधति के मुताबिक, “ऐसा पूछ सकने वाला वो दुनिया का शायद अकेला शख़्स था, मैंने एक छोटा सा पीस पढ़कर सुनाया जिसे सुनकर बर्जर ने लगभग आदेश देते हुए कहा, तुम फ़ौरन दिल्ली लौटो और ये किताब पूरी करो.”इस धक्के के क़रीब आठ साल बाद अब  2017 में बहुप्रतीक्षित उपन्यास आ रहा है अरुंधति का जिसका नाम है- “द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस.” अगर जॉन बर्जर न होते तो शायद ये उपन्यास न आ पाता या पता नहीं कब तक आ पाता जिसका बेसब्री से इंतज़ार अरुंधति के पाठक प्रशंसक एक्टिविस्ट करते रहे हैं जो उनके लेखन के ताप, उद्विग्नता और एक्टिविज़्म के साथ साथ बड़े हुए या निखरे हैं.
अरुंधति के साथ साथ पंजाबी कवि और सार्वजनिक बुद्धिजीवी, चिंतक अमरजीत चंदन का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है. उनकी कविता पुस्तक आ गयी है, “सोनाटा फ़ॉर फ़ोर हैंड्स.” अमरजीत ब्रिटेन में रहते हैं और यूरोप-अमेरिका-एशिया के साहित्यिक-सांस्कृतिक हल्कों में जानेमाने हैं. उनकी कविताओं के पहले फ़ुललेंथ कलेक्शन की एक सबसे ख़ास बात ये है कि इसकी भूमिका जॉन बर्जर ने लिखी है जो अमरजीत की कविता और विचार के मुरीदों में शामिल हैं. अगर आप यूट्यूब पर जाने की ज़हमत उठाएं तो वहां आपको बर्जर, लसन- गार्लिक (लहसुन) कविता का पाठ करते दिखेंगे. ये अमरजीत चंदन की एक प्रतिनिधि कविता है. बर्जर, चंदन की कविता के बारे में कहते हैं कि, “उनकी कविता अपने श्रोताओं या पाठकों को समयहीनता के विस्तार में ले जाती है. समय वहां एक कामदार पर्दे की तरह है. उनका कविता अभ्यास बताता है कि दिक् काल की चार विमाओं, जिन्हें हम आदतन पहचानते हैं, के अलावा और भी विमाएं हैं.”
ये दो ज़िक्र लाने का मक़सद ये दिखाने का था कि 90 साल की भरीपूरी उम्र के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हुए जॉन बर्जर का देखने का तरीक़ा कितना अलग और ख़ास था. ये कोई लेखकीय और अप्रतिम या दैवीय विशिष्टता नहीं थी जो बर्जर को हासिल थी, ये एक बहुत ही साधारण जन की नज़र थी जो पिछली 20वीं सदी और इधर 21वीं सदी के शुरुआती डेढ़ दशकों में तेज़ी से परिदृश्य से धकेली जाती रही. इतना तीव्र भूमंडलीकरण और नया पूंजीवादी हमला हुआ है (ज़ाहिर है फ़ाशीवाद के साथ ये गठजोड़ पूरी रंगत में है.)
1926 में ब्रिटेन में पैदा हुए बर्जर कला की पढ़ाई पूरी कर मार्क्स की ओर मुड़े. अपने मशहूर उपन्यास “जी” के लिए उन्हें बुकर पुरस्कार भी मिला और इनाम की आधा रकम उन्होंने कैरेबिया के आंदोलनकारी समूह ब्लैक पैंथर्स को दान कर दी. शेष राशि अपनी एक वृहद रिसर्च परियोजना में खर्च की. 1962 में लंदन छोड़ा और फ़्रांस के पेरिस के पास क्विऩज़ी नाम के देहात में 1974 में अपनी रिहायश बनाई, वहीं से लिखते पढ़ते सोचते और देखते रहे. वहां के किसानों कामगारों के साथ काम किया, घुलेमिले. वहीं पर उन पर एक वृहद वृत्तचित्र बनाया गया, “द सीज़न्स इन क्विनज़ी” के नाम से टिल्डा स्विंटन और कोलिन मैककेब की बनाई चार अलग अलग छोटी फ़िल्मों का एक सेट है. इस फ़िल्म का हमें इंतज़ार है. कुछ लोग शायद देख भी चुके हों. सात महीने पहले इसका ट्रेलर जारी हुआ. अद्भुत दृश्य हैं. इसी में लगभग मंत्र की तरह जॉन बर्जर ने कहा था, अगर मैं किस्सागो (स्टोरीटेलर) हूं तो इसलिए कि मैं सुनता हूं.
फ़िल्म देखने के बाद ही पता चल सकता है कि देखने पर ज़ोर देने वाले बर्जर ने सुनने पर ज़ोर आख़िर किन संदर्भों में दिया होगा. एक अनुमान ये है कि सुनते हुए को भी देखने की बात वो कर रहे हों, बात अटपटी लग सकती है कि लेकिन आधुनिक क्लासिक्स में शुमार बर्जर की “द वेज़ ऑफ़ सीइंग” पढ़ने के बाद आपको ये बात शायद उतनी अटपटी न लगे. इसलिए इसे पढ़ने से पहले बीबीसी की 1972 की वो ऐतिहासिक सीरिज़ देखना भी महत्त्वपूर्ण है जिसके बाद ये किताब आ गई और जॉन बर्जर न सिर्फ़ कला आलोचना में बल्कि एक राजनैतिक बुद्धिजीवी के रूप में दुनिया में मान लिए गए. अरुंधति रॉय कहती हैं, “जॉन बर्जर हमें सिखाते हैं कि कैसे सोचना है. कैसे महसूस करना है. कैसे चीज़ों को टकटकी लगाए देखते रहना है जब तक हम ये देख लें कि जो हम सोच रहे थे वो वहां नहीं है. सबसे बढ़कर वो हमें सिखाते हैं कि विपत्ति के हालात में हम कैसे प्रेम करें. वो मास्टर हैं.”
90वें साल के अवसर पर उन्हें सलाम करते हुए दो किताबें आईं. इनके विमोचन के लिए वो मौजूद नहीं हैं. “द लॉंग व्हाइट थ्रेड ऑफ़ वर्ड्स” जिसमें उनके चाहने वाले विश्व कवियों की रचनाएं शामिल हैं. इस किताब की संपादक त्रयी में अमरजीत चंदन, गैरेथ इवांस और यास्मीन गुनारत्नम हैं. दूसरी किताब है,  “अ जार ऑफ़ वाइल्ड फ़्लावर्स” जिसमें नामचीन लेखकों के निबंध शामिल हैं. इसके संपादक अमरजीत चंदन और यास्मीन गुनारत्नम हैं. 2016 की ये अंग्रेज़ी किताबें विकट ऑनलाइन बाज़ार में हैं, हिंदी एक बहुत दूर का बिंदु है.
“वेअज़ ऑफ़ सीइंग” को कला, संस्कृति और राजनीति के अंर्तसंबंधों पर एक दस्तावेजी किताब माना जाता है. बर्जर की दृष्टि के निर्माण में इन तीनों अवधारणाओं का योगदान है. बर्जर ने कला के स्थापित आलोचना कर्म और देखने के पैमानों को भारी चोट पहुंचाई. उन्होंने अपने अकाट्य तर्कों के सहारे साबित किया कि एक पेंटिग क्योंकर एक बुर्जुआ गतिविधि है और क्योंकर वो अभिजात हितो और स्वार्थों की हिफ़ाज़त करती हुई रह जाती है. बर्जर ने देखने के तरीके से इलीटिज़्म का चश्मा उतारने को कहा. उन्होंने ये नहीं बताया कि आप इस तरह किसी चित्र को देखो या इस तरह न देखो. उन्होंने बस ये बताया कि आप कैसे देखो, क्या देखो. मिसाल के लिए स्त्री शरीर की नग्न चित्र परंपरा पर बर्जर ने ये कहकर हमला किया कि ये सिर्फ मर्दवादी यौनेच्छा की भूख है. वो दर्शक के सामने पेश की गई स्त्री की देह है. उन्होंने कला में नेकड और न्यूड के फ़र्क को समझाया.
अपनी इसी अवधारणा को बर्जर कला से आगे भूमंडलीकृत पूंजीवाद की अन्य विडम्बनाओं और विज्ञापन और उपभोक्तावाद की आततायी संस्कृति तक ले गए और बताया कि स्त्री देह का जो चित्रण कला में था वो विज्ञापन में उस भूख को एक नये विस्तार की ओर ले गया. ये एक भीषण चाक्षुष अनुभव से भीषण उपभोग के अनुभव की ओर जाने की तीव्र फ़िसलन थी. इस तरह बर्जर ही हमें सबसे पहले ये बताते हैं कि कलाएं पहले अपने प्रदर्शन में फिर अपने निरूपण में और फिर अपने आगामी इस्तेमालों में कितनी मनुष्यविरोधी, अमानवीय और पतन की ओर ले जाने वाली हो सकती हैं.
लेकिन बर्जर सिर्फ़ इस नैतिक विचलन को नोट करने वाले या उस पर चोट करने वाला या उससे सावधान करने वाले चिंतक नहीं थे, उन्होंने कला को एक मानवीय और एक मार्क्सवादी सौंदर्यबोध के रास्ते से समझने के तरीक़े भी समझाए हैं. उनके पास बदलाव के टूल्स थे. उन्होंने दुनिया को बदलने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों को मनुष्य चेतना से जोड़ने के तरीक़े भी बताए. उन्होंने बताया है कि कला से हम कैसे राजनीति की ओर रुख़ कर सकते हैं. हम कैसे कला को मानवीय चेष्टा का हथियार बना सकते हैं. भूमंडलीय पूंजीवाद के प्रतीकों की बर्जर की प्रखर छानबीन ही हमें और जागरूक और सचेत बनाती है.  
जॉन बर्जर ने कहा था, “आधुनिक विश्व में जहां राजनीति की वजह से हर घंटे हज़ारों लोग मारे जाते हैं, वहां कोई भी लेखन प्रामाणिक और विश्वसनीय नहीं होगा अगर वो राजनैतिक जागरूकता और सिद्धांतों से सचेत लेखन न हो.” आख़िरकार जॉन बर्जर एक उपयोगी द्वंद्व के हवाले से ही कह देते हैं और हमें भी उसके साथ छोड़ देते हैं कि, जो हम देखते हैं और जो हम जानते हैं, इनके बीच का संबंध कभी निर्धारित नहीं होता है. हर शाम हम सूरज को डूबता देखते हैं. हम जानते हैं कि पृथ्वी उससे दूर जा रही है. फिर भी ये ज्ञान और ये व्याख्या, हमारे देखने को और उस दृश्य को मुकम्मल नहीं बना पाती.”

अतीत की सच्चाई का निर्धारण : रोमिला थापर

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इंडियन सोसायटी ऐंड द सेक्युलर 
 
थ्री एसेस प्रकाशनसे आई ये किताब प्रख्यात इतिहासविद् रोमिला थापरके लेखों और भाषणों का संकलन है. रोमिला थापर ने लाहौर लिटरेरी फेस्टिवल में अतीत और वर्त्तमान के संबंधों पर एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था.पास्ट ऐज़ प्रजेंट और प्रजेंट ऐज़ पास्ट. मूल अंग्रेज़ी से इस भाषण के एक अंश का अनुवाद. थ्री एसेस से साभार. 
(अनुवादऔर प्रस्तुति:शालिनी जोशी)

इतिहासकार ईएच कार ने कहा था कि इतिहास अतीत और वर्त्तमान के बीच वार्तालाप है. अवधारणा ये है कि हम अतीत को उसके परिप्रेक्ष्य में देखते हैं लेकिन उसकी विवेचना करते हुए हम वर्तमान से संचालित होते हैं. लेकिन शायद ये कहना बेहतर होगा कि इतिहास वर्त्तमान और एज्यूम्डअतीत (पहले से मान्य) के बीच वार्तालाप है, जहां ये एजंप्शंसया मान्यताएं आंशिक रूप से वर्त्तमान की ज़रूरतों के हिसाब से प्रचलित की जाती हैं.
यहां हिस्टोरियोग्राफ़ीयानी कि इतिहासकारों के इतिहास की पड़ताल जरूरी हो जाती है. किसी भी ऐतिहासिक दस्तावेज के लेखक का परीक्षण करना आवश्यक है. उस लेखक का बौद्धिक फ्रेमवर्क क्या है?उसने किस डिग्री तक ऐसे प्रमाणों का उद्धरण दिया है जिन्हें विश्वसनीय माना जा सकता है?  क्या उसने ऐसे तर्कसंगत निष्कर्षों की व्याख्या की है जिनसे अतीत की घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में तर्कसिद्ध विवरण मिलते हैं? 
वर्त्तमान विचारधाराओं के निर्माण और उनको वैधानिक आधार देने के लिये इतिहास को जरिया बनाया जाता है. एरिक हॉब्सबाम ने इस प्रवृत्ति पर एक यादगार टिप्पणी की है- इतिहास राष्ट्रवादी, जातीय (एथनिक) और कट्टर विचारधाराओं के लिये कच्चा माल है ठीक उसी तरह से जैसे अफ़ीम के बीज हेरोइन के नशे के लिये कच्चा माल हैं. इन विचाराधाराओं के लिये अतीत एक अनिवार्य तत्त्व है. अगर एक अनुकूल अतीत नहीं है तो भी उसका हमेशा आविष्कार तो किया ही जा सकता है........
.......भारतीय उपमहाद्वीप में जिन विचारधाराओं ने राष्ट्र राज्य के निर्माण को प्रोत्साहन दिया उनके पुनर्आकलन की जरूरत है. आज वे राष्ट्र अस्तित्व में आ चुके हैं. इसलिये आज हमारी चिंता उन औपनिवेशिक स्टीरियोटाइप्स के पुनर्परीक्षण को लेकर होनी चाहिये, अब भी जिनके तयशुदा खांचे में ही हम ये तय कर रहे हैं कि हम कौन हैं और कहां जा रहे हैं. औपनिवेशिक नजरिये और अध्ययनों को इस लिहाज़ से देखना चाहिये कि उसके परिणाम क्या हुए. औपनिवेशिक दृष्टिकोण के स्थान पर आज ऐसी संवेदनशीलता को बढ़ावा देने की ज़रूरत है जिससे हम अतीत और वर्त्तमान के बीच वार्तालाप को सही परिप्रेक्ष्य में सुन सकें. अतीत की सच्चाई का निर्धारण कर सकें और साथ ही हम ये पहचान सकें कि कब अतीत का हवाला सिर्फ इस बात के लिये दिया जा रहा है कि वर्तमान उसका इस्तेमाल कर सके न कि अतीत को समझने के लिये उसका अन्वेषण किया जा रहा है.     
और सिर्फ हाल के अतीत को ही नई दृष्टि से देखने की ज़रूरत नहीं है. हमें ये भी समझना होगा कि आज की घटनाओं में भी ऐसे तत्त्व हैं जिनके बीज कई सदियों के कालक्रम में छुपे है. शायद हमें ये समझना ज़रूरी है कि अतीत और वर्त्तमान के बीच संबंधों की व्याख्या में दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करने और एक दूसरे का अतिक्रमण करने की कोशिश करते हैं. ऐसी अंतर्दृष्टि सिर्फ अध्ययन के लिये ही ज़रूरी नहीं बल्कि इसी अंतर्दृष्टि से तय होगा कि हम भविष्य में कैसे दाखिल होंगे. 
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रोमिला थापर की इस किताब को इस लिंकके जरिये भी खरीद सकते हैं।

      

हिन्दुत्व का विज्ञान द्वेष : मीरा नंदा

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(मीरा नंदा के इस महत्वपूर्ण लेख को हिंदी में पढ़वाने का श्रेय शुभनीत कौशिक को है।)


हिन्दू राष्ट्रवादी आरंभ से ही वैदिक विश्व-दृष्टि और आधुनिक विज्ञान के बीच मौलिक एकता के दावे करते आ रहे हैं। अगर आधुनिक विज्ञान हमारे ऋषियों को ज्ञात वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर में समाहित होने वाली महज एक तुच्छ उपधारा भर है,तब तो आधुनिक विज्ञान और पश्चिमी वैज्ञानिकों को वेदों से ईर्ष्या करनी चाहिए।
अगर ज्ञान की कोई एक परंपरा है जो जो दुनिया के हर कोने में व्यावहारिक तौर पर आधुनिक युग को पारिभाषित करती है तो वह है आधुनिक विज्ञान। अरबी,भारतीय और चीनी सभ्यताओं ने निःसंदेह विज्ञान के समूचे उद्यम में योगदान दिया है। पर इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि आधुनिक विज्ञान के जन्म के लिए उत्तरदाई विश्व-दृष्टि और प्रविधियों में युगांतरकारी बदलाव,पश्चिम में ही 16वीं-17वीं सदी के दौरान आए। आधुनिक विज्ञान की सार्वभौम महत्त्व रखने वाली पद्धतियाँ और सिद्धांत अपने योरोपीय उद्गम स्थल से ही दुनिया भर के देशों में फैले। अक्सर,ये सिद्धांत औपनिवेशिक सत्ता के साथ लगे रहकर उपनिवेशों में दाखिल हुए।
आधुनिक विज्ञान पश्चिम में जन्मा और पश्चिम से ही बाकी दुनिया में पहुँचा – ये दो ऐसे तथ्य हैं,जो पूर्व की सभी गौरवपूर्ण और प्राचीन सभ्यताओं के लिए गहरी चिंता और विद्वेष के स्रोत हैं। पर यह दंश जितना भारत में महसूस किया जाता है,उतना किसी अन्य उत्तर-औपनिवेशिक समाज में नहीं। जाहिर है कि भारत ने सबसे लंबे समय तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद का दंश भी झेला था।
समस्या यह है कि न तो हम भारतीय आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बगैर जिंदा रह सकते हैं और न ही कभी इस तथ्य को पचा पाते हैं कि सभी ज्ञान-परम्पराओं में यह सबसे उपजाऊ और शक्तिशाली परंपरा आखिरकार एक “म्लेच्छ परंपरा” है। यह बात हमें चुभती रहती है कि इन अशुद्ध,गौमांस खाने वाले भौतिकवादियोंने,जिनमें किसी आध्यात्मिक सुरूचि का सिरे-से अभाव है और सभ्यता पर जिनके दावे की हम हँसी उड़ाते रहे हैं,प्राकृतिक-ज्ञान के क्षेत्र में हमें बुरी तरह से पछाड़ दिया है। इसलिए जहाँ एक ओर हम आधुनिक विज्ञान की ओर लालायित रहते हैं,वैज्ञानिक महाशक्तिबनने के फेर में अपने संसाधन झोंकते हैं,वहीं दूसरी ओर हम आधुनिक विज्ञान के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व को कम करके भी आंकते हैं,इसके योरोकेंद्रीयहोने की निंदा करते हैं। इसका मतलब ये है कि हमें पश्चिम से भौतिकवादी विज्ञान और प्रौद्योगिकी तो चाहिए,पर हम खुद को उस आध्यात्मिक श्रेष्ठता के भाव से मुक्त नहीं करेंगे,जो हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हम जगतगुरु हैं।
आरंभ से ही,चाहत,ईर्ष्या और जन्मजात आर्य श्रेष्ठताके इन्हीं मिले-जुले भावों ने भारत के पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ साक्षात्कार को पारिभाषित किया है। हिन्दू नवजागरण से जुड़े साहित्य – मसलन बंकिम चट्टोपाध्याय,विवेकानंद,दयानंद सरस्वती,एनी बेसेंट (और अन्य थियोसोफिस्ट),सर्वपल्ली राधाकृष्णन,एम.एस. गोलवलकर से लेकर अन्य तमाम गुरुओं,दर्शनिकों और प्रचारकों के लेखन को आप पढ़ें तो आपका सामना विज्ञान-द्वेष और आहत गर्व की भावना से होता है। हिन्दू राष्ट्रवादियों की हालिया पीढ़ी और उनके बौद्धिक प्रवक्ता,हिन्दू नवजागरण के इन्हीं विचारकों की संतति है और उन जैसे ही लक्षण दर्शाते हैं।

विज्ञान के स्रोत के रूप में वेद
विज्ञान विद्वेष का सबसे ताजा निरूपण हमें राजीव मल्होत्रा के उस आह्वान में मिलता है,जिसमें वे हिंदुओं से आधुनिक विज्ञान को वैदिक फ्रेमवर्क के साँचे में बिठानेके जरिए अपनी धार्मिक परम्पराओं की “भिन्नता” (पढ़ें “श्रेष्ठता”) को जताने की बात करते हैं। अब सवाल यह है कि इस योजना को अंजाम कैसे दिया जाएगा?मल्होत्रा का प्रस्ताव है कि आधुनिक विज्ञान को वैदिक श्रुतियोंकी स्मृतिके रूप में समझा जाए। श्रुतियानी जो "शाश्वत परम सत्य है,मानव मस्तिष्क और संदर्भों से परे;जिसे हमारे प्राचीन मुनियों ने अपनी 'ऋषि अवस्था'में प्राप्त किया। और स्मृतिवह जो मानव ज्ञानेन्द्रियों से अर्जित ज्ञान और तर्क पर आधारित है। व्यावहारिक तौर पर,इसका मतलब होगा कि सारी आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं को सिर्फ वैदिक वर्गीकरण का एक उपवर्ग भर ठहरा दिया जाए। मसलन,भौतिकविदों की ऊर्जा संबंधी अवधारणा को,जिसमें एक सुस्पष्ट और निर्धारित मात्रा में कार्य करने की क्षमता की अवधारणा निहित है,शक्तिकी उस अवधारणा का एक उपवर्ग बता दिया जाएगा,जिससे कि हमारे योगी पूर्व-परिचित थे। भौतिक विज्ञान को,कर्म के सिद्धांत से जोड़ दिया जाएगा,महज इसलिए कि वह कार्य-कारण संबंध का अध्ययन करता है। डार्विन के सिद्धांत को योगसूत्रों में बताई गई आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया की एक निम्न और भौतिकवादी व्याख्या बताया जाएगा आदि आदि। इस तरह हम आसानी से आधुनिक विज्ञान और अपने आध्यात्मिक श्रेष्ठता दोनों का एक साथ बेहिचक आनंद ले सकते हैं। और सिर्फ यही नहीं,एक बार जब हम आधुनिक विज्ञान की धारा को वेदों के महासागर में मिला देंगे,तब भारत को विश्व-गुरू के रूप में देखने का हिन्दू राष्ट्रवादियों का स्वप्न भी साकार हो जाएगा!
असल में,वैदिक विश्व-दृष्टि और आधुनिक विज्ञान के बीच मौलिक एकता का दावा आरंभ से ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के एजेंडे में रहा है। यह असल में,हमारे विज्ञान-द्वेष का एक बहुत कुशल समाधान है:अगर आधुनिक विज्ञान हमारे ऋषियों को सदा-सर्वदा से ज्ञात वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर में समाहित होने वाली महज एक तुच्छ उपधारा भर है,तब तो असल में,आधुनिक विज्ञान और पश्चिमी वैज्ञानिकों को वेदों से ईर्ष्या करनी चाहिए। यह समाधान न सिर्फ हमारी आहत गर्व भावना पर मलहम लगाने का काम करता है,बल्कि वेदों को वैज्ञानिकता का स्रोत साबित करने की यह रणनीति,वेदों में एक एक खास वैज्ञानिक चमकभी पैदा करती है। इसके बावजूद,विज्ञान के इतिहासकार फ्लोरिस कोहेन के शब्दों में कहें तो वेदों को विज्ञान का जनक बताने की यह रणनीति "एक भव्य अंधी गली"से बढ़कर कुछ भी नहीं है। क्योंकि इस रणनीति में न तो नए सवाल करने की संभावना है,न ही उनमें गैर-ऋषियों को उपलब्ध पद्धतियों का इस्तेमाल करते हुए,कोई नया समाधान या उत्तर देने की गुंजाइश है।

विज्ञान के इतिहास से छेड़छाड़ 
विज्ञान के इतिहास के साथ बड़े पैमाने पर,बारंबार की जा रही छेड़खानी ने,आधुनिक विज्ञान को स्मृतिमें बदलने की परियोजना में सहायता पहुंचाई है। इस परियोजना में,विज्ञान के इतिहास को व्याख्या और तथ्य दोनों ही स्तरों पर तोड़ा-मरोड़ा जाता है। तथ्यों के साथ छेड़छाड़ उन मामलों में की जाती है,जहाँ अन्य सभ्यताओं से मिलने वाले साक्ष्यों को पूरी तरह से दरकिनार कर,प्राचीन भारत के दावों को वरीयता दी जाती है। या तब जब मिथकों की शब्दशः व्याख्या की जाती है। यह छेड़छाड़ अपने चरम पर तब पहुँचती है,जब आधुनिक विज्ञान की देन जैसे क्वांटम फिजिक्स,कंप्यूटर विज्ञान,आनुवांशिकी,न्यूरोसाइंस आदि को भी सुदूर अतीत के ऋषियों और दार्शनिकों के कल्पनाशील विचारों में ढूँढने की कोशिश की जाती है। "वैदिक विज्ञान"की पूरी इमारत विज्ञान के इतिहास के साथ इन्हीं छेड़खानियों के आधार पर खड़ी हुई है।
तथ्यों की यह तोड़-मरोड़ नरेंद्र मोदी सरकार के शासन के पहले वर्ष में तो दिखी ही,अब वह विभिन्न राज्य सरकारों के शिक्षा विभागों,कुछ थिंक टैंकों और 'आंदोलनों'में भी अब स्पष्ट रूप से दिखने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अक्तूबर 2014 में दिया गया 'कर्ण-गणेश'वाला प्रसिद्ध भाषण या फिर उनके उनके द्वारा मुंबई में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में जनवरी 2015 में दिये गये भाषण के बारे में लोग जानते ही हैं। यह उस हिमखंड का सिर्फ ऊपरी हिस्सा भर है,जो हमें दिखाई दे रहा है,पर असल में यह हिमखंड आकार और गति दोनों में बढ़ता जा रहा है।
यद्यपि उपरोक्त घटनाओं की मीडिया में कुछ समय तक जरूर चर्चा हुई,पर तथ्यों के साथ जो असली छेड़छाड़ हुई है,उसका विज्ञान के इतिहासकारों ने गंभीरतापूर्वक अध्ययन नहीं किया। जब तक हम इन झूठे-सच्चे तथ्यों की जाँच और मिलान,अन्य प्राचीन सभ्यताओं से मिलने वाली जानकारियों और साक्ष्यों के आधार पर नहीं करते,तब तक इन्हें बार-बार दुहराया जाता रहेगा।
आगे इस लेख में,राष्ट्रवादी गल्प की पड़ताल के क्रम में,मैं विज्ञान के भारतीय इतिहास से जुड़े तीन दावों की समीक्षा करूंगी। इनमें से दो दावे गणित से जुड़े हुए हैं: पहला यह कि पाइथागोरस प्रमेय का आविष्कार असल में बौधायन ने किया था। दूसरा दावा यह कि शून्य का जन्म भारत में हुआ। तीसरा दावा आनुवांशिकी के विज्ञान और पैतृक गुणों से संबंधित प्राचीन भारतीय विचार-परंपरा से जुड़ा हुआ है। (उपरोक्त विषयों और इनसे जुड़ी विषय-वस्तुओं पर मैंने अपनी हालिया किताब,साइंस इन सैफ़्रन: स्केप्टिकल इश्यूज़ इन हिस्ट्री ऑफ साइंसमें विचार किया है,यहाँ दिये गए तर्कों की ऐतिहासिक और तकनीकी पृष्ठभूमि समझने के लिए इस पुस्तक की सहायता ली जा सकती है।)

पाइथागोरस का प्रमेय
रहस्यवादी-गणितज्ञ पाइथागोरस का जन्म आधुनिक तुर्की के तटवर्ती भाग में स्थित एक द्वीप में लगभग 570 ईसा पूर्व में हुआ था। भारत में अक्सर पाइथागोरस की यह कहकर आलोचना की जाती है कि जिस प्रमेय के खोज का श्रेय पाइथागोरस को दिया जाता है, दरअसल उसकी खोज पाइथागोरस ने नहीं, बल्कि बौधायन ने की थी। बौधायन जिन्होंने बौधायन शुल्वसूत्रकी रचना की थी, जिसका समय 800 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। चूंकि बौधायन द्वारा रचित इस ग्रंथ का काल पाइथागोरस से पहले का है, इसलिए यह मान लिया जाता है कि पाइथागोरस ने अवश्य ही भारत की यात्रा की होगी और हिन्दू गुरुओं से इस प्रमेय के बारे में (और इसके साथ-साथ पुनर्जन्म और शाकाहार की हिन्दू अवधारणा के विषय में भी) जाना होगा। इस तरह हिन्दू धर्म की तरफ झुकाव रखने वाले इतिहासकारों द्वारा यह मांग काफी लंबे अरसे से की जा रही है कि पाइथागोरस प्रमेय का नाम “बौधायन प्रमेय” होना चाहिए। बौधायन को सिर्फ पाइथागोरस प्रमेय का आविष्कारक ही नहीं बताया जाता, बल्कि यह दावा किया जाता है कि सर्वप्रथम बौधायन ने ही इस प्रमेय के साक्ष्य दिये थे, बौधायन ने ही सबसे पहले “पाइथागोरस ट्रिपल्स” की गणना की थी, उन्होंने ही अपरिमेय संख्याओं से लोगों को परिचित कराया और दो का वर्गमूल की गणना भी बौधायन ने ही की थी आदि आदि। ऐसे ही कुछ विचार विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पिछले वर्ष विज्ञान कांग्रेस में जाहिर किए थे।
बौधायन से जुड़े ये सभी दावे गलत हैं। जब इन दावों की समीक्षा हम उन तथ्यों के आधार पर करते हैं,जो शुल्वसूत्र की समकालीन दुनिया की अन्य सभ्यताओं में हो रही गतिविधियों से जुड़े हैं, तो ये सभी दावे निराधार साबित होते हैं।
बौधायन के पैदा होने से एक सहस्राब्दी पहले मेसोपोटामिया के बाशिंदों ने समकोण त्रिभुज की भुजाओं के बीच उस संबंध का पता लगा लिया था, जिसकी व्याख्या बाद में, पाइथागोरस ने अपने प्रमेय में की थी। मेसोपोटामियावासियों (और उनके पड़ोसी मिस्र के बाशिंदों ने भी) ने भूमि का मापन आरंभ कर दिया था, जिसका प्रयोग वे यूफ़्रेट्स-टाइग्रिस और नील नदी में आने वाली बाढ़ से मिट जाने वाली सीमाओं के पुनर्निर्धारण में किया करते थे। मिस्र में मिलने वाले इस प्रमेय से जुड़े साक्ष्य यद्यपि बाद के समय के हैं। पर मेसोपोटामिया से मिले साक्ष्य 1800 ईसा पूर्व के हैं, जो बतलाते हैं कि मेसोपोटामियावासी न सिर्फ पाइथागोरस प्रमेय की बारीकियों से परिचित थे, बल्कि वे दो का वर्गमूल निकालना भी जानते थे। यह साक्ष्य है मेसोपोटामिया से मिली मृण-पट्टिकाएँ (क्ले-टैबलेट)। इनमें से मुख्य हैं दो मृण-पट्टिकाएं,प्लिंप्टन 322 और वाईबीसी 7289,जो क्रमशः कोलंबिया और येल विश्वविद्यालयों में सुरक्षित हैं। जिन्हें पहली बार कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लिपि के अधिकारी विद्वान ओटो न्यूजेबाउर द्वारा बीसवीं सदी के चौथे दशक में पढ़ा गया। न्यूजेबाउर और उनके सहयोगियों ने यह स्थापित किया कि प्लिंप्टन मृण-पट्टिका पाइथागोरस प्रमेय के बारे में बताती है,जबकि येल विश्वविद्यालय की पट्टिका,2 के वर्गमूल की बिलकुल शुद्ध परिगणना करती है। बौधायन से जुड़े दावों पर ये दोनों ही मृण-पट्टिकाएं सवालिया निशान खड़ा कर देती हैं।
पूर्व की ओर बढ़ें तो हम पाएंगे कि चीनियों ने भी न सिर्फ इस प्रमेय का पता लगा लिया था बल्कि कन्फ़्यूशियस के समय में (लगभग 600 ईसापूर्व) इसके प्रमाण भी जुटा लिए थे। पाइथागोरस प्रमेय से जुड़े चीनी साक्ष्य हमें जिस ग्रंथ में मिलते हैं,वह है चाउ पेई सुआन चिंग (अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद होगा “द अरिथमेटिकल क्लासिक ऑफ द नोमान ऐंड द सर्कुलर पाथ ऑफ हीवेंस”)। इस ग्रंथ की रचना 1100 ई. पू. से 800 ई. पू. के बीच हुई। बाद में,हान वंश के शासनकाल (तीसरी सदी ई. पू.) में रचे गए गणितीय ग्रंथों में इस प्रमेय को औपचारिक रूप से काउ-कु (अथवा गाउ-गु) प्रमेय की संज्ञा दी गई।
चीन की यह उपलब्धि प्रमाण के मुद्दे की ओर भी हमारा ध्यान खींचती है। शुल्वसूत्रोंमें,जो यज्ञवेदियों के निर्माण से जुड़े हुए नियमावलियाँ हैं,हमें हर तरह की जटिल ज्यामितीय आकारों के बारे में और उनमें होने वाले बदलावों के विषय में परिष्कृत और व्यावहारिक गणितीय सुझाव मिलते हैं। पर इन सूत्रों में इन ज्यामितीय आकारों को सिद्ध करने या उन्हें तर्कसंगत बनाने का कोई प्रयास नहीं मिलता। मेसोपोटामिया और मिस्रवासियों ने भी इसके कोई प्रमाण नहीं छोड़े हैं।
तो सवाल उठता है कि आखिरकार पाइथागोरस प्रमेय का पहला प्रमाण कहाँ से प्राप्त होता है?पाइथागोरस ने सभी समकोण त्रिभुजों के लिए कोई सामान्य प्रमाण दिया था या नहीं,यह स्पष्ट नहीं है। इस प्रमेय से जुड़ा पहला स्पष्ट प्रमाण ग्रीक परंपरा में यूक्लिड से मिलता है। यूक्लिड पाइथागोरस के समय के तीन सदी बाद के विद्वान हैं। सारे साक्ष्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि पाइथागोरस प्रमेय का पहला प्रमाण उपरोक्त चीनी ग्रंथ ही है,जो यूक्लिड से तीन सदी पहले लिखा गया था। यूक्लिड के विपरीत,जो तार्किक निगमन (लॉजिकल डिडक्सन) की विधि का इस्तेमाल करते हैं,चीनियों ने दृश्य-नमूने का प्रयोग किया और उसके जरिए इस प्रमेय को सिद्ध किया। इस प्रमेय को सिद्ध करने का पहला भारतीय साक्ष्य हमें 12वीं सदी के गणितज्ञ भास्कर की रचनाओं में मिलता है। और जैसा कि चीनी विज्ञान के प्रसिद्ध इतिहासकर जोसेफ नीधम और अन्य विद्वानों ने भी लिखा है कि भास्कर द्वारा दिया गया प्रमाण हू-ब-हू वही था,जो चीनी ग्रंथ चाउ पेईमें दिये गए हुआन-थु चित्र में मिलता है।
तो सवाल यह भी उठता है कि पाइथागोरस प्रमेय को खोजने में पाइथागोरस का क्या योगदान था?ग्रीक परंपरा यह स्वीकारती है कि पाइथागोरस ने इस प्रमेय को अपनी युवावस्था में मेसोपोटामिया और मिस्रवासियों से सीखा था। यह प्रमेय पाइथागोरस से जुड़ी हुई गणित की शाखा में काफी महत्त्व रखता था क्योंकि इस प्रमेय ने ही अपरिमेय संख्याओं की खोज का रास्ता साफ किया। जिसने पाइथागोरस की उस मान्यता को चुनौती दी थी,जिसके अनुसार समूचे ब्रह्मांड के परम यथार्थ को संख्याओं और उनके अनुपातों के जरिए समझा जा सकता है। विज्ञान के इतिहास में पाइथागोरस का महत्त्व,“पाइथागोरस प्रमेय” की वजह से नहीं,इसलिए है कि पाइथागोरस ने यह मौलिक विचार दिया था कि प्रकृति को गणित के द्वारा समझा जा सकता है। ऐसी ही अंतर्दृष्टियों ने जोहान केपलर और गैलीलियो गैलिली सरीखे आधुनिक विज्ञान के पथप्रदर्शकों को प्रेरणा दी। इसी प्रक्रिया ने प्रयोगों के साथ,सटीक,परिमाणात्मक मापन और प्रकृति के गणितीकरण के जरिए आधुनिक विज्ञान को ज्ञान की एक प्रभावशाली शाखा में तब्दील कर दिया।

शून्य और भारत    
हिन्दुत्व से जुड़े विज्ञान लेखन का एक पवित्र तथ्ययह है कि शून्य विश्व को भारत की देन है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीय यह सोचते हुए बड़े हुए हैं कि भारत के योगदान के बगैर दुनिया भर के लोग गणना करना नहीं जान पाते,गणित में की उच्चतर शोध की कोई संभावना नहीं होती,और तो और सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति भी संभव नहीं हो पाती।    
पर क्या इस बात में सच्चाई है कि शून्य का आविष्कार पूर्णतया एक हिन्दू आविष्कार है?क्या शून्य विशुद्ध रूप से हिन्दू मस्तिष्क की उपज है,क्या इसमें अन्य क्षेत्रों में हुई खोजों का सचमुच कोई प्रभाव नहीं है?
हम इस गल्प को तब तक ही बरकरार रख सकते हैं,जब तक हम विज्ञान संबंधी अपने अध्ययन को सिर्फ भारत तक ही सीमित रखते हैं। भारतकेन्द्रित (इंडोसेंट्रिक) होना विज्ञान संबंधी भारतीय इतिहासलेखन की एक विशेषता रही है। योरोकेंद्रिक ज्ञान की तरह ही जो ग्रीक परंपरा को ही सभी विज्ञानों का मूल स्रोत मानती है,भारतकेन्द्रित ज्ञान की यह परंपरा मानती है कि प्राचीन और शास्त्रीय (यानी प्राक-इस्लामिक) भारतीय ज्ञान परंपरा सार्वभौम दाता रही है,जबकि अन्य परंपराएं महज इस परंपरा की ग्राहक रही हैं। अगर एक विचार या अवधारणा एक ही कालखंड में भारत और दुनिया के किसी अन्य हिस्से में पाई जाए,तो हमारे भारतकेन्द्रित इतिहासकार आसानी से यह निष्कर्ष निकाल लेंगे कि वह विचार जरूर ही भारत से उस क्षेत्र में गया होगा,पर वे इस संभावना से पूरी तरह इंकार कर देते हैं कि हो सकता है कि वह विचार उस क्षेत्र से भारत में आया हो।
इस भारतकेंद्रिकता के चलते ही भारतीय इतिहासकारों ने चीनी दंड अंक-पद्धति (रॉड न्यूमरल्स) के दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसार के तथ्य को बिलकुल उपेक्षित कर दिया। चीनी दंड अंक-पद्धति में दाशमिक स्थान-मानों के साथ सिफर मूल्यों के लिए रिक्त स्थान छोड़ने का भी प्रावधान था। दक्षिण-पूर्व एशिया से दुनिया के अन्य हिस्सों में शून्य के अवधारणा के प्रसार की संभावना,जोसेफ नीधम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक साइंस ऐंड सिविलाइज़ेशन इन चाईना के तीसरे खंड में जताई है। हाल ही में कुछ ऐसा ही विचार सिंगापुर नैशनल यूनिवर्सिटी के गणित के जाने-माने इतिहासकार लाम ले योंग ने जाहिर किया है। योंग के तर्कसम्मत और साक्ष्यों से पुष्ट विचारों को दुनिया भर के पेशेवर इतिहासकारों ने स्वीकार किया है और इस धारणा को अब गणित के इतिहास पर लिखी जा रही मानक-पुस्तकों में भी तरजीह दी जा रही है। पर भारत में,योंग के विचार पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

स्थान-मान (प्लेस वैल्यू) का अभाव
शून्य के भारत में उत्पन्न होने के रूढ़िवादी भारतीय विवरणों में दो असुविधाजनक,पर ऐतिहासिक,तथ्य छिपाए जाते हैं। ये तथ्य हैं: पहला,ईसा की 6वीं सदी तक भारतीय अंकों में स्थान-मान का अभाव और दूसरा,शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य भारत से नहीं कंबोडिया और भारत और चीन के बीच स्थित अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से मिलता है। आइए,हम इन दोनों ही तथ्यों की खुले दिमाग से सावधानीपूर्वक पड़ताल करें।
(“स्थान-मान” का सीधा-सा मतलब यह है कि किसी अंक का मान उस स्थान पर निर्भर होता है,जिस पर वह अंक किसी संख्या में आता है। इस प्रणाली के अंतर्गत,कोई भी संख्या चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो,सिर्फ नौ अंकों और रिक्त स्थान के लिए एक संकेत के जरिए अभिव्यक्त की जा सकती है।) स्थान-मान का प्रयोग गणना की उस विधि में जरूर होता था,जिसे भूत संख्याकहते हैं। इस विधि में मूर्त प्रतीकों/संकेतों का इस्तेमाल होता था। जैसे संख्या 2 के लिए नेत्र/आँख का प्रयोग;3 के लिए अग्नि का प्रयोग क्योंकि कर्मकांडों में तीन प्रकार की अग्नि का उल्लेख मिलता है; 6 के लिए अंग का प्रयोग क्योंकि वेदों के 6 अंग होते हैं आदि आदि। चूंकि भूत संख्याकी गणना विधि में अंक संकेतों का क्रम उनका मूल्य निर्धारित करता है,इसलिए इसे स्थान-मान का प्रमाण मान लिया जाता है। इस प्रणाली का प्रयोग तीसरी सदी ई. पू. से लेकर चौदहवीं सदी तक खगोलविदों और गणितज्ञों द्वारा किया जाता रहा। जहाँ एक ओर भूत संख्याविधि छंद रचना और स्मरण करने के लिए लाभदायक थी,वहीं दूसरी ओर यह गणनाओं के लिए उपयोगी नहीं थी क्योंकि गणना के लिए आपको आखिरकार अंकों की जरूरत होती है,न कि संकेतों की।
ब्राह्मी अंकों के उद्भव के नौ सौ वर्षों बाद तक भारतीय अंकों में स्थान-मान के इस्तेमाल का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। ब्राह्मी अंको का पहला प्रमाण अशोक के समय के आस-पास (लगभग 300 ई. पू.) के दौरान मिलता है। आगे चलकर गुप्त काल के अंतिम वर्षों में (550 ई.) ये ब्राह्मी अंक देवनागरी अंकों में तब्दील हो गए। अब तक ब्राह्मी लिपि के किसी भी अभिलेख में स्थान-मान का कोई प्रमाण नहीं मिला है,नानाघाट के प्रसिद्ध अभिलेख में भी नहीं। स्थान-मान का पहले-पहल प्रयोग गुप्त काल के अंतिम वर्षों में मिलता है (वह भी अक्सर भूमि-अनुदान से जुड़े ताम्र-पत्रों पर,जिनमें से कुछ बाद में जाली भी पाये गए)। इसी समय में,रिक्त स्थान के लिए शून्य बिंदु का प्रयोग भी पहली बार मिलता है। शून्य का पहला प्रमाण हमें ग्वालियर के एक मंदिर से 876 ई. में मिलता है।
लगभग नौ सौ वर्षों तक स्थान-मान प्रणाली की गैर-मौजूदगी महत्त्व रखती है क्योंकि संख्याओं को लिखने के लिए स्थान-मान प्रणाली के इस्तेमाल के बिना शून्य के लिए एक अंक का उद्भव संभव नहीं हो सकता। क्योंकि स्थान-मान की संकेत पद्धति में ही हमें एक ऐसे संकेत की जरूरत पड़ती है,जो संख्या के अभाव को दर्शा सके। (उदाहरण के लिए,2004को आप रिक्त स्थान के लिए किसी शब्द का प्रयोग किए बिना भी शब्दों में अभिव्यक्त कर सकते हैं,पर इसी संख्या को अंकों में लिखते हुए 2 और 4 के बीच रिक्त स्थान को इंगित किए बिना आप नहीं लिख सकते। क्योंकि शून्य के बगैर,‘2004’और ‘24’में कोई फर्क नहीं रह जाएगा।)
दाशमिक स्थान-मान की पहली प्रणाली,जो अवधारणात्मक रूप से आधुनिक “हिन्दू-अरबी” अंक-संकेतों के काफी समरूप है,पहले-पहल चौथी सदी ई. पू. में चीन में विकसित हुई। यह पद्धति रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होने वाली गणनाओं से विकसित हुई। और फिर धीरे-धीरे सरकारी अधिकारियों,खगोलविदों और संन्यासियों से लेकर समाज के हर तबके में फैल गई। इस पद्धति में गणना के लिए एक दंड (रॉड) का प्रयोग किया जाता था जो 14 मिलीमीटर का लकड़ी का एक छोटा टुकड़ा होता था। दाएँ से बाएँ की ओर बढ़ते हुए इस दंड-पद्धति का हरेक अगला स्तंभ दस के गुणांक को दर्शाता था। 1 से 9 तक सभी अंकों के लिए दंड में एक विशेष जगह निर्धारित थी। जबकि 10 से बड़ी संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिए दंड को बाएँ की ओर एक स्तंभ आगे खिसका दिया जाता था। संख्याओं को सहजता से पढ़ने के लिए क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों का मिलान करते हुए दंडों का स्थिति-निर्धारण किया जाता था। जिसे हम शून्य कहते हैं,उसे इस दंड पद्धति में “कोंग” कहा जाता था और इसे एक खाली स्तंभ से दर्शाया जाता था। चीनी गणितज्ञों ने इस दंड-पद्धति का इस्तेमाल उन गणित के सवालों को हल करने के लिए शुरू किया,जिन्हें आज हम बीजगणित के समीकरण के रूप में पहचानेंगे। गणना की यह पद्धति लगभग 12वीं सदी तक चलती रही,जब तक एबैकस का इस्तेमाल नहीं शुरू हो गया।
जल्द ही यह बात साफ हो जाएगी कि आखिर भारत में शून्य की अवधारणा के विकास को समझने के लिए चीनी दंड अंक-संकेतों को समझना क्यों जरूरी है। पर यहाँ जो महत्त्वपूर्ण बात हमें स्वीकारनी होगी वह यह है कि हमारे पड़ोसी देश चीन में,जिसके साथ हमारे प्रगाढ़ संबंध पहली सदी ई. पू. से भी पुराने हैं,हमारा परिचय एक पूर्ण दाशमिक प्रणाली से होता है,जिसमें स्थान-मान के साथ के साथ-साथ अंकों के अभाव को दर्शाने के लिए रिक्त स्थान का भी प्रयोग हो रहा था। यह सोचना असंभाव्य है कि करीब नौ सौ वर्षों बाद देवनागरी अंकों में अचानक दाशमिक स्थान की उत्पत्ति का हमारे इस पड़ोसी देश से कोई लेना-देना नहीं है?
 
शून्य का भौतिक साक्ष्य   
आइए अब हम हिन्दुत्व को असहज कर देने वाले उस दूसरे तथ्य की ओर ध्यान देते हैं,यानी शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य। हम जानते हैं कि शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य भारत में नहीं,बल्कि कंबोडिया में मिला है। यह कंबोडियाई साक्ष्य पत्थर के एक स्तम्भ से मिला है,जिस पर यह अभिलेख मिलता है “घटते हुए चंद्रमा के पांचवें दिन चक संवत 605वें वर्ष में प्रवेश कर गया”। इस अभिलेख में आने वाले वर्ष 605में शून्य (0) को एक बिंदु से दर्शाया गया है। इस अभिलेख की तिथि 683 ई. निर्धारित की गई है। (यह अभिलेख जिस स्तंभ पर था,वह खो गया था,जिसे 2013 में अमेरिकी-इज़राइली गणितज्ञ अमीर एकज़ेल ने पुनः खोज निकाला है।) शून्य के लिए बिंदु का प्रयोग करने वाले ऐसे ही अन्य अभिलेख सुमात्रा, बांका द्वीप-समूह, मलेशिया और इंडोनेशिया में भी प्राप्त हुए हैं और उनका समय भी कंबोडिया के स्तंभ के समय आस-पास ही है।
भारत में शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य ग्वालियर के निकट विष्णु को समर्पित चतुर्भुज मंदिर से मिलता है, जो एक शैल मंदिर है। मंदिर के दीवार पर लिखे गए एक अभिलेख में भूमि के अनुदान (जिसकी माप 270 × 187 हस्त बताई गई है) और मंदिर के देवता को 50 मालाएँ प्रतिदिन चढ़ाने का उल्लेख किया गया है। ये अंक नागरी लिपि में लिखे गए हैं और रिक्त स्थान को दर्शाने के लिए छोटे,खाली वृत्तों का इस्तेमाल किया गया है। इस अभिलेख की तारीख 876 ई. तय की गई है,जो कंबोडियाई अभिलेख से दो सदी बाद की तिथि है।
अब सवाल यह उठता है कि अगर भारत शून्य का उत्पत्ति-स्थान है तो ऐसा क्यों है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में शून्य के साक्ष्य भारत से पहले के हैं?अगर हम यह भी मान लें कि दक्षिण-पूर्व एशिया पर भारत का प्रभाव रहा है तो भी यह सवाल बचा रहता है कि शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य दक्षिण-पूर्व एशिया से ही मिलता है,भारत से क्यों नहीं?
इसकी एक व्याख्या जोसेफ नीधम द्वारा दी गई है,जिसे लाम ले योंग ने समर्थन दिया है। जोसेफ नीधम के अनुसार,दक्षिण-पूर्व एशिया वह क्षेत्र है “जहाँ हिन्दू संस्कृति के पूर्वी क्षेत्र का मिलाप चीनी संस्कृति के दक्षिणी क्षेत्र से होता है”। इस सांस्कृतिक संपर्क क्षेत्र से होकर भारत और चीन को आने-जाने वाले व्यापारियों,राज-कर्मचारियों,सैनिकों,बौद्ध तीर्थयात्रियों और भिक्षुओं की संख्या असीमित रही है। यह असंभव नहीं है कि उनके साथ परिकलन के लिए इस्तेमाल होने वाला चीनी दंड और गणक-पटु (काउंटिंग बोर्ड) भी रहे हों,क्योंकि इन्हें आसानी से यात्रा के दौरान अपने साथ रखा जा सकता है। यह भी संभव है कि भारत-चीनी सीमा क्षेत्र के बाशिंदों ने उन अंकों का इस्तेमाल तो जारी रखा,जिनसे वे पूर्व-परिचित थे,पर साथ ही उन्होंने गणना की चीनी दंड-पद्धति में निहित तर्कों को भी अपना लिया हो। भारत में आने के बाद,संभवतः चीनी गणक-पटु (काउंटिंग बोर्ड) में दर्शाया जाने वाला रिक्त स्थान,बिंदु से एक खाली वृत्त में तब्दील होता गया और धीर-धीरे शून्य ने अपना वर्तमान आकार (0) पाया,जिससे आज हम सभी परिचित हैं। नीधम के अनुसार: “रिक्तता अथवा सिफर मूल्य के लिए लिखने के संकेत शून्य का इस्तेमाल,असल में,हान गणक-पटु में मौजूद खाली/रिक्त स्थान को पहनाई गई एक भारतीय माला थी”। दूसरे शब्दों में कहें तो,दाशमिक स्थान-मान और रिक्त स्थान की अवधारणा का विकास तो चीन में हुआ,जबकि भारत ने रिक्त स्थान को दर्शाने के लिए वह भौतिक संकेत दिया,जिसे आज हम सभी शून्य के रूप में पहचानते हैं।
जाहिर है इस पूरी व्याख्या से,तमाम भारतीय असहज होंगे,क्योंकि यह तर्कसम्मत व्याख्या शून्य पर हमारे दावे को और उसे अपनी उपलब्धि मानने की भारतीय प्रवृत्ति को चुनौती देती है। पर तथ्यों से पुष्ट यह व्याख्या शून्य के भारतीय साक्ष्य देर से मिलने के ऐतिहासिक तथ्य की भी सुस्पष्ट व्याख्या करती है। यह हमारी भारतकेंद्रिकता ही है,जो हमें इस व्याख्या को गंभीरता से लेने और इसकी गहराई से पड़ताल करने से रोकती है।

मिथक और इतिहास की मिलावट
विज्ञान के इतिहास से जुड़ी छेड़-छाड़ का तीसरा और अंतिम उदाहरण खुद हमारे प्रधानमंत्री से जुड़ा है। यह उदाहरण विज्ञान के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की उस प्रवृत्ति को दर्शाता है,जिसमें सदियों के वैज्ञानिक शोध के बाद जिन वैज्ञानिक तथ्यों और उपकरणों से आज हम वाकिफ हो सके हैं,उन्हें प्राचीन ग्रंथों और तत्कालीन विज्ञान में ढूँढने की कोशिश की जाती है।
नरेंद्र मोदी द्वारा दिये गए कर्ण-गणेश” वाले भाषण की विषय-वस्तु से तो हम सभी परिचित ही हैं। मोदी ने महाभारत के पात्र कर्ण को “इन विट्रो बेबी” बताते हुए यह जोड़ा कि “इसका मतलब है कि उस समय आनुवंशिकी विज्ञान (जेनेटिक साइंस) मौजूद था”। और मोदी के अनुसार,गणेश का हाथी वाला सिर (गजानन) इस बात का प्रमाण है कि “उस समय जरूर ही कोई प्लास्टिक सर्जन मौजूद था”,जो अंतर-प्रजातीय हेड ट्रांसप्लांट करने में सक्षम था। 
कोई चाहे तो इस मोदी के इस भाषण की उपेक्षा कर सकता है,क्योंकि अक्सर नेता ऐसी अतिरंजित बातें किया ही करते हैं। पर यह ध्यान रखना होगा कि नरेंद्र मोदी,जो जीवनपर्यंत स्वयंसेवक रहे हैं,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस शाखा संस्कृति से आते हैं,जिसके लिए मिथकों और ऐतिहासिक तथ्यों में कोई फर्क नहीं है। संघ की शाखाओं में इतिहास संबंधी जो व्याख्याएँ दी जाती हैं,वे भ्रामक होने के साथ-साथ कालदोष से भी भरी होती हैं। शाखाओं द्वारा प्रचारित किए जाने वाले ऐसे भ्रांतपूर्ण इतिहास में वर्तमान के विचारों,आकांक्षाओं,प्रेरणाओं और इच्छाओं को अतीत में ढूँढने,पढ़ने की कोशिश की जाती है। ऐसे नितांत भ्रामक इतिहास के बारे में एरिक हॉब्सबाम ने लिखा है कि यह इतिहास खालिस झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि यह न सिर्फ अंतर्विरोधी विचारों को बढ़ावा देता है,बल्कि यह एक स्वर्णिम अतीत की छवि भी गढ़ता है। विज्ञान पर लागू किए जाने पर इतिहास की यह भ्रामक धारा,पूर्वकालीन विज्ञान को वर्तमान विज्ञान
का स्रोत साबित करने पर तुली रहती है। या यह दर्शाने की कोशिश करती है कि वर्तमान विज्ञान,प्राचीन काल के विज्ञान का महज विस्तार भर है। इस प्रक्रिया में न सिर्फ अतीत को बारंबार संशोधित किया जाता है,बल्कि यह भी साबित किया जाता है कि हमारे पूर्वज अपने समय से बहुत आगे थे और अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी थे।
नरेंद्र मोदी के उस कथन को ही ले लें,जिसमें उनका दावा है कि “[महाभारत काल में] जेनेटिक साइंस विद्यमान था”। यह महज एक नेता द्वारा कही गई अतिरंजित बात भर नहीं है। यह बात उस परंपरा में कही जा रही है,जो यूजेनिक्स का सहारा लेकर भारत में जाति-प्रथा को वैध ठहराने की कोशिश करती है। नाजी अत्याचारों के संदर्भ में यूजेनिक्स के तथाकथित “विज्ञान” के कुख्यात होने से पहले,भारतीयों द्वारा वर्ण-व्यवस्था का ऐसा वैचारिक बचाव आरंभिक बीसवीं सदी में बिलकुल आम था। ऐसे लोगों में सर्वपल्ली राधाकृष्णन सरीखे विद्वान भी शामिल थे। आज भी आनुवंशिकी का तर्क देकर खाप पंचायतों द्वारा एक ही गोत्र में विवाह न होने देने को सही ठहराने की कोशिश की जाती है। इस तरह आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) का जामा पहनाकर,धार्मिक अंध-विश्वासों,आर्थिक स्वार्थों,जाति और जेंडर के पूर्वाग्रहों की शोषणकारी प्रवृत्ति को तार्किक ठहराया जाता है।
यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि जीन की खोज से पहले आनुवांशिकी का कोई विज्ञान (जेनेटिक्स) अस्तित्व में नहीं था। आनुवांशिकता की इकाई के रूप में जीन की अवधारणा बीसवीं सदी के आरंभ से पहले हमें ज्ञात नहीं थी,जब तक कि ग्रेगर मेंडल (1822-1884) के जीन संबंधी काम का पुनराविष्कार नहीं किया गया।
यहाँ तक कि महान चार्ल्स डार्विन (1809-1882) का भी यह मानना था कि पैतृक गुण उत्तराधिकार में “जेम्यूल” के द्वारा स्थानांतरित होते हैं। डार्विन के अनुसार “जेम्यूल” शरीर की सभी कोशिकाओं द्वारा रक्त में मिलाये जाने वाले सूक्ष्म कण थे। यह मेंडल के अनवरत और अनथक प्रयासों और ह्यूगो दे व्रीज सरीखे अन्य वैज्ञानिकों के शोध का नतीजा था,जिसने आनुवांशिकी की स्वतंत्र इकाई की अवधारणा को जन्म दिया। ये तथ्य कि आनुवांशिकी गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित होती है और गुणसूत्र डीएनए (डीऑक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड) से बने होते हैं,बीसवीं सदी की महत्त्वपूर्ण खोजें हैं।
इस तरह यह बिलकुल साफ है कि जीन की धारणा के विकास से पहले दुनिया के किसी भी हिस्से में “आनुवांशिकी विज्ञान” (जेनेटिक साइंस) का कोई अस्तित्व नहीं था। इसका मतलब यह नहीं है कि लोगों ने पैतृक गुणों के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्थानांतरण के सवाल में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारत में भी लोगों ने पैतृक गुणों के स्थानांतरण की रहस्यमय गुत्थी में दिलचस्पी ली। इस संदर्भ में,उन भारतीयों के सर्वाधिक “वैज्ञानिक” सिद्धांत (उस काल को ध्यान में रखते हुए) का विवरण हमें चरक संहितामें मिलता है,जो आयुर्वेद का आधारभूत ग्रंथ है।
चरक संहिताके अनुसार,किसी जीव के जन्म में दो नहीं तीन पक्ष योगदान देते हैं: माता,पिता और आत्मा। आत्मा,जो सूक्ष्म शरीरसे जुड़ी होती है और पिछले स्थूल शरीरकी मृत्यु के बाद एक नए शरीर की तलाश में होती है। एस एन दासगुप्ता की व्याख्या के अनुसार,आत्मारूपी सूक्ष्म शरीर“अदृश्य होकर एक गर्भ-विशेष में अपने कर्म के अनुसार प्रवेश करता है” और इस प्रक्रिया के फलस्वरूप गर्भ में भ्रूण का निर्माण होता है। इसके अनुसार,एक बच्चे के जन्म के लिए जैविक माता-पिता आवश्यक जरूर हैं,पर पर्याप्त नहीं! यह आत्मारूपी सूक्ष्म शरीरहै,जो एक मृत देह से अपने समूची अतीत की स्मृतियों और संस्कारों के साथ निकलता है और वही पैतृक गुणों की कुंजी होता है।
तो असल में,यह है महाभारतकालीन “आनुवांशिकी विज्ञान” (साइंस ऑफ जेनेटिक्स)। कहने की जरूरत नहीं कि इस अवधारणा की तुलना,वर्तमान आनुवांशिकी विज्ञान की धारणाओं से करना एक बचकानी और हास्यास्पद कोशिश ही होगी।
पर प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के महिमामंडन की हिन्दुत्व के योद्धाओं द्वारा की जा रही ऐसी बचकानी और मूर्खतापूर्ण कोशिशों में एक गहरी बात भी छिपी हुई है,अक्सर जिसकी व्याख्या नहीं की जाती। हिन्दुत्व के समर्थक यह बात जानते हैं कि आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) के आधुनिक विज्ञान में हुई प्रगति ने,हिन्दुत्व की जीवन की परिघटनाओं से जुड़ी सूक्ष्म शरीर (आत्मा) वाली व्याख्या को अप्रासंगिक और निरर्थक बना दिया है। आखिरकार हम सिंथेटिक बायोलॉजी के ऐसे युग में जी रहे हैं,जहां प्रयोगशालाओं में रसायनों के जरिए समूचे जैविक अंग विकसित किए जा रहे हैं। हिन्दुत्व के समर्थक यह भी जानते हैं कि उनकी यह ब्राह्मणवादी आध्यात्मिक तत्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स) एक गंभीर वैज्ञानिक पड़ताल के सामने नहीं ठहर सकती। इस दक़ियानूसी तत्वमीमांसा को “विज्ञान” का जामा पहनाकर,हिन्दुत्व के समर्थक इसे आधुनिक विज्ञान की समीक्षा और पड़ताल से बचाने की हताश कोशिश कर रहे हैं।
इस तरह हिन्दुत्व का विज्ञान द्वेष,राष्ट्रवाद से परे चला जाता है। असल में,यह हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं को बचाने के लिए खेला गया एक दांव है। जैसा कि सीरिया के महान दार्शनिक सादिक़ अल-अज़्म ने कहा है: “विज्ञान और धर्म के बीच संघर्ष के चिह्नों को मिटाने का प्रयास धर्म को बचाने के हताशा से भरे प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है। इस युक्ति का सहारा तब-तब लिया जाता है,जब धर्म को अपने पारंपरिक स्थिति से झुकने या समझौता करने को विवश होना पड़ता है,या तब जब धर्म को उस केंद्रीय सत्ता की जगह छोड़ने पर विवश किया जाता है,जिस पर इसने कब्जा जमा रखा है।”
असल में,हिन्दुत्व के विज्ञान द्वेष की असली वजह यही है।

(मीरा नंदा आधुनिक विज्ञान के इतिहास की विशेषज्ञ हैं।)

Frontline में छपे मीरा नंदाके इस लेख Hindutva’s science envyका हिंदी अनुवाद शुभनीत कौशिकने किया है और यह समयांतरमें प्रकाशित हो चुका है।

रोहित के बिना एक वर्ष : राजा चैतन्यकुमार वेमुला

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(हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र रोहित वेमुला (28) को आरएसएस की विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), वीसी और केंद्र की बीजेपी सरकार की क्रूरता ने 17 जनवरी, 2016 को आत्महत्या की खाई में धकेल दिया था। दोषियों पर एक्शन के बजाय रोहित और उनके परिवार को ही कठघरे में खड़े करने की सरकार की बेशर्मी जारी है। सरकार का सारा जोर यह साबित करने पर है कि रोहित दलित नहीं पिछड़ी जाति से था। लेकिन, रोहित अगर सवर्ण भी होता तो भी हत्यारों को हत्यारा ही कहा जाएगा। हम देख  रहे हैं कि जनता और विद्यार्थियों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे जेएनयू के छात्र कन्हैया और उनके साथियों को किस तरह प्रताड़ित किया गया, नजीब को गायब कर दिया जिसके जीवित होने की उम्मीद भी दम तोड़ने लगी है और तमाम दूसरे विश्वविद्यालयों में भी इसी तरह के दमन जारी हैं। लेकिन, संघर्ष भी जारी हैं। रोहित के भाई राजा को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि निराशा की स्थितियों के बावजूद रोहित के परिवार ने देशभर में सामाजिक न्याय के चल रहे संघर्षों में भागीदारी की है।)
     
मैं उस बुनियादी स्वतंत्रता से शुरुआत करना चाहूंगा, जो मेरे भाई रोहित को नहीं दी गई- सम्मान के साथ जीने की आज़ादी। - राजा वेमुला
 
मेरे भाई रोहित वेमुला को हमसे जुदा हुए एक वर्ष हो गया है। इस एक लर्ष के दौरान हम बहुत ही तकलीफों से गुजरे हैं और हमने बहुत सारे अन्यायों का अनुभव किया है। न्याय के लिए संघर्ष बहुत ही लंबा व मुश्किल भरा है और हम इसके लिए तैयार हैं। मेरे भाई को न्याय नहीं मिला, मात्र इतना ही नहीं है, अब तो यह कोशिश की जा रही है कि किसी प्रकार यह साबित कर दिया जाए कि हम दलित नहीं अपितु पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन हमें भरोसा है कि अंतत: सचाई की जीत होगी और जो लोग मेरे भाई की मौत के जिम्मेदार हैं, उन्हें सजा मिलेगी।

मेरे भाई की मौत के बाद से मेरी मां राधिका वेमुला बीमार रहती हैं। अभी हाल ही में वह अपनी सिलाई के काम पर लौटी हैं। इतनी मुश्किलात का सामना करने के बावजूद मेरी मां जातीय नफ़रत और भेदभाव के शिकार लोगों से मिलने देशभर में घूमीं। हम ऊना, जेएनयू, केरल के पेरुमबावूर में मार दी गई कानून की छात्रा जिशा की मां से मिलने और अन्य जगहों पर भी गए। संत्रास से भरी हुई उनकी कहानियों से गुजरते हुए हमने अपने दुखों का अनुभव किया। हाशिये पर धकेल दिए गए समुदायों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ इस संघर्ष को हम आगे बढ़ाएंगे, जितने लंबे समय तक भी हम कर सकते हैं। दलित एकता के ध्येय के लिए हम पूरे देश में बहुत सारे प्रदर्शनों और बैठकों में हिस्सा लेते रहे हैं।

रोहित अब नहीं रहा, इस सचाई को हम अभी तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं। परिवार में वह प्रेरणा का शक्तिपुंज था। उसके पास बहुत से विचार थे जो वह हमारे साथ बांटता था। एक स्थान जो हमारे लिए उसकी पहचान है, वह है हैदराबाद विश्वविद्यालय। हमें जब से वहां बिना अनुमति जाने से रोक दिया गया है तब से वह हमारी सीमा से बाहर हो गया है। हमें रोहित की आवक्ष मूर्ति, जिसे विद्यार्थियों ने परिसर में खड़ा किया था, के पास नहीं जाने दिया गया।
जब पिछली जनवरी (2016) को रोहित ने आत्महत्या की थी, मैं हैदराबाद में नैशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट में एक प्रोजेक्ट फैलो के रूप में काम कर रहा था। मैंने अंतत: उन्हें सूचित किया कि मैं पुन: काम पर आने में असमर्थ हूं। हर जगह प्रदर्शन हो रहे थे और मैं उनमें शामिल होना चाहता था, लोगों के बीच जाना चाहता था, ताकि ज्यादा से ज्यादा समर्थन प्राप्त कर सकूं और न्याय सुनिश्चित कर पाऊं। एक वर्ष बाद हमें यह अहसास हुआ कि कुछ भी तो नहीं बदला। हर जगह जातीय भेदभाव लगातार हो रहे हैं। लेकिन हम संघर्ष करेंगे। हमारी लड़ाई आज़ादी, न्याय और सामाजिक बराबरी के लिए है। जब कांग्रेस में हर कोई उत्साहित था कि भारत को अंतत: आज़ादी मिलेगी, तब डॉ. भीमराव रामजी आंबोडकर ने यह पूछने का साहस किया था कि यह किस तरह की आज़ादी होगी। स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद भी बाबा साहेब का यह प्रश्न लगातार गूंज रहा है। क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? या ऊंची जाति के भारतीय उपनिवेशवादियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की जगह ले ली?मैं सैकड़ों आज़ादियों को गिना सकता हूं जिनके लिए मेरे जैसे दलित तरस रहे हैं लेकिन मैं उस बुनियादी स्वतंत्रता से शुरुआत करना चाहूंगा, जो मेरे भाई रोहित को नहीं दी गई- सम्मान के साथ जीने की आज़ादी। यह बुनियादी आज़ादी, जिसे हर कोई जीवित प्राणी किसी भी चीज़ सेज्यादा पाना चाहता है, और जो इस तथाकथित स्वतंत्र देश में मेरे भाई को नहीं दी गई। उस आज़ादी तो मांगने में ग़लत क्या है जो सबको प्राप्त है?

दलितों को एक दिन बराबरी का सम्मान मिलेगा, क्या यह सपना देखना भी ग़लत है? मेरा सपना है कि एक दिन हम दलितों के पास अपना मनपसंद भोजन खाने की स्वतंत्रता होगी। हम जो चाहे वो खा सकेंगे चाहे वो बीफ हो। मेरा सपना है कि एक दिन हमारे पास किस से भी प्यार करने की आज़ादी होगी। मेरा सपना है कि एक दिन हमारे पास इनकार करने की आज़ादी होगी जब कोई भी हमसे जबरन टॉयलेट साफ करवाएगा या मरी हुई गाय को उठाने के लिए कहेगा। । मेरा सपना है कि एक दिन हमारे पास अपना ख़ुद का रास्ता चुनने की आज़ादी होगी, चाहे वह मंदिर की ओर जाता हो या विश्वविद्यालय की ओर।

हमारे लिए आज़ादी का अर्थ – जाति व्यवस्था से आज़ादी, संविधान जो अपने नागरिकों को देता है, उन सभी अधिकारों की पूर्णत:गारंटी। आज़ादी का अर्थ है, वह जीवन जो बाबा साबेब आंबेडकर चाहते थे कि हम जीएं; एक जीवन जिसका मानवता में विश्वास हो न कि किसी अनजान ईश्वर में; एक जीवन जिसका आधार अपने साथी मनुष्यों के लिए करुणा और सम्मान हो; आत्मसम्मान और गरिमा से भरा जीवन; हिंदू जाति व्यवस्था के बाहर एक जीवन; रोजमर्राकी शर्म और बेइज़ज़्ती से आज़ादी; उसी ईश्वर की पूजा करने की ग्लानि से मुक्त एक जीवन जिसके नाम पर हमारे लोगों को सदियों से प्रताड़ित किया जा रहा है; स्कूल और विश्वविद्यालयों में भेदभाव से आज़ादी; दलितों के प्रति ब्राह्मणों के व्यवहार और रवैये से आज़ादी; इसका अर्थ है कि ghettos (घुटन भरी मलिन बस्तियों)में फेंक दिए जाने से आज़ादी; हम कैसे रहें और कहां रहें, यह चुनने की आज़ादी। आज़ादी यानी अन्य जातियों के लोग हमारी क्षमता और काबिलियत को स्वीकारना शुरू करें और हमसे बराबरी का व्यवहार करें।
मेरे कुछ इससे छोटे सपने भी हैं।
रोहित की मां और उन्हें संभालता रोहित का भाई
मेरा सपना है कि मेरी मां को यह आज़ादी मिले कि वह हैदाराबाद विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश कर सके, जहां उसके बेटे ने अपना जीवन बलिदान किया था। किसी भी आज़ादी का क्या महत्व जबकि एक मां को वहां जाने की आज़ादी नहीं, जहां उसके बेटे की मृत्यु हुई? कुछ ऐसे भारतीय भी हैं जो मेरे सपनों की इन छोटी आज़ादियों से बहुत ज्यादा आज़ादियों का आनंद ले रहे हैं। उनके लिए यह देश अवसरों और समृद्धि से भरा स्थान है। कुछ के पास बिना डरे किसी को भी मार देने की आज़ादी है। उनमें से कुछ के पास आज़ादी है कि वे देश पर पैसे और बाहुबल के बल पर शासन करें। आज़ादी के सत्तर सालों के बाद भी बहुत सारों के पास या आज़ादी है कि वे उनको प्रताड़ित करें जिनके पास जन्म से ही कोई अधिकार नहीं है।
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(रोहित के भाई राजा की Sreenivas Janyalaसे यह बातचीत इंडियन एक्सप्रेसमें January 19, 2017 को छपी थी जिसका कृष्ण सिंह द्वारा किया गया यह हिंदी अनुवाद समयांतरमें प्रकाशित हुआ।)


प्रतिरोध की नई संवेदना से जुड़िए : शिवप्रसाद जोशी

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प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं,अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.``
 

हमला पहला नहीं है. और होंगे. अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्ता व्यवस्था की टकराहटें और होंगी. सवाल ये है कि प्रतिरोध की संस्कृति को सत्ता की संस्कृति से सतत संघर्ष हम व्याख्याओं और विमर्शों में ही निपटते रहेंगे या ऐसा समाज बनाने की उन्मुख होंगे जहां प्रतिरोध की आवाज़ों का भी एक आयाम बना रहेगा और सत्ता के आयाम उसे निगलेंगे नहीं.
 
इस मामले में अमेरिकी लोकतंत्र की दाद देनी होगी जहां विभिन्न आवाज़ों के लिए स्पेस कभी कम नहीं हुआ है। अमेरिकी इतिहास जितना सत्ता राजनीति और भूमंडलीय वर्चस्व और अन्य देशों पर थोपे गये युद्धों का इतिहास है उतना ही प्रतिरोध और हाशिये की आवाज़ों के प्रस्फुटन और आंदोलन का इतिहास भी है.

भारत में भी प्रतिरोध की परंपरा रही है. लेकिन उसे कुचलने के लिए यहां सिस्टम भरसक सक्रिय रहता है. क्योंकि यहां एक फाशीवादी मनोवृत्ति वाली सत्ता आकांक्षा जड़े जमा चुकी हैं. वो 2014 में पहली बार नहीं प्रकट हुई थी. हमने उसका अपने अपने ढंग से निर्माण होने दिया. उसकी भूख नई और फैल गई है. वो निगल लेना चाहती है. मैंने सपना देखा कि एक सांप मेरी ओर आता है और उसका मुंह किसी शार्क की तरह खुला हुआ है. मैं पानी में पड़ा हुआ हूं लाचार और कातर. सिर्फ़ उस अजीबोग़रीब जीव को देखता हुआ.

बहुसंख्यकवाद के पास भीमकाय डैने आ गए हैं. उसने धूल उड़ा दी है और आसमान को ढकने का अभियान छेड़ा है. वे विरोध को सीधा देशद्रोह कह देता है और कार्रवाई पर उतारू रहता है. लेकिन भूल जाता है कि जितना ज़्यादा वो अपना दमन ढालता है उतना ही दबी कुचली आवाज़ें न जाने किन अनचीन्हें अनजाने कोनों से फूटने लगती हैं. 

ये कोने एक संगठन के भीतर भी हो सकते हैं एक समुदाय के भी और एक व्यक्ति के भी. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक, कवि-चिंतक प्रशांत चक्रवर्ती हों या हिंदी के वरिष्ठ कवि लेखक फिल्मकार देवीप्रसाद मिश्र, अपने अपने ढंग से उनके प्रतिरोध को सबक सिखाने की कोशिश की गई.

क्या इतना आसान है प्रतिबद्धता को ख़ामोश कर देना. भारत समेत विश्व का समकालीन, आधुनिक इतिहास और प्राचीन इतिहास भी अगर टटोल लें तो ऐसा कहां हो पाया है. कभी नहीं. अवाक, स्तब्ध, हमले से लगभग बेसुध प्रशांत हों या ऐन सड़क पर, शाम आवाजाही के प्राइम टाइममें घायल किए गए देवीप्रसाद, जिनकी नाक से बहा ख़ून भी जैसे उनकी थरथराती, बेचैन आवाज़ की भाप से वहीं थम गया हो- वे एक जीवित परंपरा में अपनी सक्रियता को उड़ेल कर अपनी रोज़मर्रा जद्दोजहद में लौट जाते हैं ख़ुद को प्रामाणिक, विश्वसनीय और सच्चा मनुष्य बनाए रखने के लिए.
जैसे आइन्शटाइन, ब्रेष्ट, दाभोलकर, पानेसर, कलबुर्गी, पेरुमल,चॉमस्की, अरुंधति लौटे थे. जैसे क़रीब 600 दिन पहले इस देश के कवि-लेखक, रंगकर्मी,इतिहासकार, वैज्ञानिक, फिल्मकार लौटे थे. एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी समुदाय का विकास हो रहा है. मीडिया और अन्य हलचलों से बाहर ये सक्रियता अपना फ़र्ज़ निभा रही है. वरना देवी को अपने दफ़्तर से सीधे घर ही लौटना था. प्रशांत भी घर लौटकर यूं आते ही. अब ख़तरे की घंटी है जिसे बादशाह नहीं बजाएंगें. ये सत्ताओं के ख़िलाफ़ है. उम्मीद बनी हुई है. लेकिन ये पीछे थमी रह जाने वाली उम्मीद न हो कि सब ठीक हो जाएगा, आखिर कब तक चलेगा आदि आदि. इस ऑप्टिमिज़्म से सावधान!  छात्र-छात्राओं की एक बिरादरी सघन उत्तेजना और उत्साह से भरी हुई है. जो लोग ये कहते हैं कि नये लोग नाकाम और नाकाफी और निस्तेज और निष्क्रिय हैं, उन्हें थोड़ा रुकना चाहिए और अपने अतीत की हलचलों में झांकना चाहिए. आप इस नई छात्र संवेदना से जुड़िए, निहारते और पीछा छुड़ाते मत रहिए.
प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं,अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.

महादेवी- स्‍त्री होने का अर्थ : कात्‍यायनी

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स्‍त्री पक्ष पर महादेवी के चिन्‍तन का जो गहन, मौलिक और बहुआयामी चरित्र था, उस पर समाजशास्त्रियों ने तो एकदम ध्‍यान नहीं दिया, हिन्‍दी साहित्‍य के सुधी आलोचको ने भी काफी कम लिखा है। यह सचमुच एक दुखद विडम्‍बना है और विचार का प्रश्‍न भी। स्‍त्री प्रश्‍न पर महादेवी का चिन्‍तन अपने समाज के दिक्-काल परिप्रेक्ष्‍य में स्‍त्री होने के अर्थ का नितान्‍त मौलिक संधान है। उल्‍लेखनीय है कि स्‍त्री-अस्मिता पर सोचते हुए महादेवी का चिन्‍तन नारीवाद की अधुनातन अस्मितावादी विचार-सरणियों से सर्वथा अलग है। बीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में ही नारीवाद की जो लहर यूरोप में पैदा हुई थी और जिसकी विभिन्‍न रूपों में गत शताब्‍दी के सातवें दशक तक सक्रियता बनी रही या जो पुन:संस्‍कारित होकर स्‍वयं को नये-नये रूपों में प्रस्‍तुत करती रही, उसकी अधिकांश उपधाराओं में स्‍त्री की स्‍वतंत्र अस्मिता के प्रश्‍न को ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि और सामाजिक-आर्थिक संरचना में निहित कारक-प्रेरक उपादानों से काटकर देखने की प्रवृत्ति निहित थी। गत शताब्‍दी के अन्तिम दशकों में सक्रिय उत्‍तरआधुनिकतावादी नारीवाद तो इस प्रवृत्ति से और भी बुरी तरह ग्रस्‍त था।

 


इस मायने में महादेवी ने सर्वथा भिन्‍न रुख अपनाया। स्‍त्री की स्‍वतंत्रता के प्रश्‍न पर विचार करते हुए उन्‍होंने इस प्रश्‍न को स्त्रियों के अर्थ स्‍वातंत्र्य के प्रश्‍न से, उनकी सामाजिक-पारिवारिक पराधीनता के प्रश्‍न से, पुरुषवादी सामाजिक-सांस्‍कृतिक मूल्‍यों से और स्‍वयं स्‍त्री-समुदाय में व्‍याप्‍त बद्धमूल रूढ़ संस्‍कारों की दिमागी गुलामी से जोड़कर देखा। इस मायने में महादेवी का‍ चिन्‍तन मौलिकता और वैज्ञानिक तर्कणा की दृष्टि से उन्‍हें बीसवीं शताब्‍दी से पूरी दुनिया की अग्रणी स्‍त्री चिन्‍तकों के बीच स्‍थान पाने का हकदार बना देता है। स्‍त्री-प्रश्‍न पर महादेवी के जो ग्‍यारह निबन्‍ध 'श्रृंखला की कडि़यां'संकलन में संकलित हैं, वे बीसवीं शताब्‍दी के चौथे दशक में लिखे गये थे। इन निबंधों में महादेवी पुरुषसत्‍तात्‍मक समाज में स्त्रियों को सामाजिक-आर्थिक-सांस्‍कृतिक-पारिवारिक गुलामी और उनके कारणों का सन्‍तुलित विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करती हैं, स्‍त्री की स्‍वतंत्र अस्मिता और पहचान के प्रश्‍न को उसकी सामाजिक चेतना के विस्‍तार की आवश्‍यकता को रेखांकित करती हैं, सामाजिक रूढि़यों से संघर्ष के जटिल पक्षों को उद्घाटित करती हैं, तथा स्त्रियों की आर्थिक स्‍वावलंबिता की अनिवार्यता पर बल देती है। इन निबंधों में महादेवी ने राष्‍ट्रीय जागरण-काल के नारी प्रबोधन की जनवादी मुक्ति-चेतना को स्‍वर दिया है। कभी-कभी यह सोचकर अफसोस होता है कि गद्य के दुर्लभ सौन्‍दर्य और जीवन-पर्यवेक्षण की सूक्ष्‍मग्राही दृष्टि के बावजूद, महादेवी ने कोई उपन्‍यास नहीं लिखा। यदि वे ऐसा करतीं तो निस्‍संदेह हिन्‍दी साहित्‍य में भी आज शायद आशापूर्णा देवी की सत्‍यवती और स्‍वर्णलता जैसी, या चेर्नीशेव्‍स्‍की की वेरा पाव्‍लोना जैसी प्रतिनिधि स्‍त्री-चरित्र मौजूद होती। कहा जा सकता है कि अपने देशकाल में उमा नेहरू और कमला देवी चौधरी से लेकर स्‍वयं महादेवी तक जो स्‍त्री चरित्र थे और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन में भागीदारी करने तथा सामाजिक रूढि़यों से टकराने वाली स्त्रियों का जो विशाल समुदाय मौजूद था, उनका प्रतिनिधित्‍व करने वाले प्रतिनिधि स्‍त्री-चरित्र अपने परिवेश और जद्दोजहद के साथ तत्‍कालीन स्‍त्री-लेखन के पटल पर सही ढंग से अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज करा सके। लेकिन जहाँ तक वैचारिक लेखन का प्रश्‍न है, स्‍त्री-प्रश्‍न पर उस समय काफी कुछ लिखा गया। महादेवी का लेखन इसी समृद्ध परम्‍परा की अग्रतम कड़ी था।

 


उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्तिम और बीसवीं शताब्‍दी के प्रारम्भिक वर्षों में हिन्‍दी की आदि स्‍त्री कथाकार बंग महिला ने साहस के साथ अपनी कहानियों और लेखों में पुरुष वर्चस्‍व के खिलाफ और स्‍त्री-उत्‍पीड़क रूढि़यों-मान्‍यताओं के खिलाफ आवाज़ उठाई। बंग महिला ने पुराणपंथी साहित्‍य-पण्डितों और सम्‍पादकों के कोप का ही नहीं, बल्कि कई बार तो महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्‍द्र शुक्‍ल की तीव्र असहमतियों और विरोध का सामना करते हुए भी स्त्रियों पर लादे जाने वाले नैतिक नियमों के बंधनों, विधवाओं की स्थिति, स्‍त्री-शिक्षा सम्‍बन्‍धी वर्जनाओं और पुरुष-प्रधान पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे में स्‍त्री की पराधीनता पर प्रश्‍न उठाये।

 


विशेषकर प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान हिन्‍दी प्रदेश में स्‍त्री स्‍वातंत्र्य की नयी चेतना की जो लहर दिखायी देती है,वह बंग महिला की स्‍त्री-मुक्ति चेतना और सामाजिक सरोकारों का ही विस्‍तार थी। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के पुरुष समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दुरवस्‍था पर करुणा और सहानुभूति के साथ विचार किया था और सुधार पर बल दिया था। इसके विपरीत, स्‍त्री-मुक्ति चेतना की जो नई लहर बीसवीं शताब्‍दी के दूसरे दशक में उठी, वह स्‍त्री समुदाय के भीतर से उठी मुक्ति की नयी आकांक्षा की परिणति थी। इस लहर ने स्त्रियों की पराधीनता और पुरुष-वर्चस्‍ववाद के हर रूप को ज्‍़यादा प्रखरता से उजागर किया और इसके विरुद्ध मुखर विद्रोह का स्‍वर ऊँचा उठाया। उस दौर की हिन्‍दी पत्र-पत्रिकाओं के सर्वेक्षण से यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि इस आन्‍दोलनात्‍मक सांस्‍कृतिक-सामाजिक लहर पर राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन की विभिन्‍न धाराओं-उपधाराओं का स्‍पष्‍ट प्रभाव मौजूद था। 1909 में प्रयाग से रामेश्‍वरी नेहरू के सम्‍पादन में शुरू हुई पत्रिका 'स्त्री दर्पण'हिन्‍दी प्रदेश में स्‍त्री आन्‍दोलन की पहली और सबसे महत्‍वपूर्ण पत्रिका थी। इसमें तत्‍कालीन वामपंथी विचारक सत्‍यभक्‍त, राधामोहन गोकुल, रमाशंकर अवस्‍थी आदि के साथ हिन्‍दी की पहली नारीवादी विचारक उमा नेहरू और हृदयमोहनी, हुक्‍मा देवी, सत्‍यवती और सौभाग्‍यवती आदि लेखिकाएँ स्त्रियों की पराधीनता के विविध पक्षों पर नियमित रूप से लेख लिखती थीं तथा स्त्रियों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों का मुद्दा प्रखरता के साथ उठाती थीं। गत शताब्‍दी के शुरुआती तीन दशकों के दौरान'स्‍त्री दर्पण', 'गृहलक्ष्‍मी', महिला सर्वस्‍व', और 'चाँद'के अतिरिक्‍त 'सरस्‍वती', 'प्रभा', 'प्रताप', 'अभ्‍युदय', 'मर्यादा', 'सुधा', 'माधुरी'आदि सभी अग्रणी पत्रिकाओं में स्‍त्री प्रश्‍न पर विचारोत्‍तेजक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे और नारी जीवन विषयक सामाजिक प्रश्‍नों और सैद्धान्तिक मुद्दों पर गम्‍भीर एवं लम्‍बी बहसें चलती थीं जिनमें बहुतेरी लेखिकाएँ भागीदारी करती थीं। उस समय स्‍त्री प्रश्‍न पर चिंतन की एक धारा वह सुधारवादी-उदारवादी धारा थी जो आर्यसमाज के सामाजिक आन्‍दोलन और गाँधी के विचारों से प्रभावित थीं। एक दूसरी धारा उमा नेहरू जैसी रेडिकल नारीवादियों की थी जो मध्‍यवर्गीय रैडिकलिज़्म और यूरोपीय नारी आन्‍दोलन से, विशेषकर 1905 से चल रहे नारी मताधिकार आन्‍दोलन से प्रभावित थी। तीसरी धारा देशज चरित्र वाली क्रान्तिकारी जनवादी एवं प्रगतिशील धारा थी, जो स्‍वतंत्राता-समानता-भातृत्‍व के जनवादी सिद्धान्‍तों को स्त्रियों के ऊपर भी लागू करने पर बल देती थी तथा यह मानती थी कि पुरातनपंथी सामाजिक रूढि़यों से मुक्‍त होकर स्त्रियों को बराबरी एवं सम्‍मान का दर्जा दिये बिना राष्‍ट्रीय मुक्ति की परियोजना अपने समग्र एवं वास्‍तविक रूप में कभी भी साकार नहीं हो सकती। इस धारा के अग्रणी चिन्‍तक राधामोहन गोकुल थे, जो एक प्रचण्‍ड, निर्भीक, जुझारू, भौतिकवादी चिन्‍तक थे। तीसरे दशक से लेकर चौथे दशक के प्रारम्‍भ तक स्‍त्री प्रश्‍न पर लिखे गये गोकुलजी के लेख अपने निर्भीक एवं सूक्ष्‍म विश्‍लेषण की दृष्टि से आज भी अतुलनीय प्रतीत होते हैं।

 


स्‍त्री-प्रश्‍न पर महादेवी के चिन्‍तन में हमें उपरोक्‍त तीनों धाराओं के सकारात्‍मक पक्षों का संश्‍लेषण नजर आता है। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से महादेवी राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन की मुख्‍य धारा के निकट थीं लेकिन सहानुभूति क्रान्तिकारियों के साथ भी थी। इस दृष्टि से उनके विचार गणेश शंकर विद्यार्थी के निकट प्रतीत होते हैं। राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन और सामाजिक जीवन में भागीदारी विषयक विचारों में उनकी निकटता गाँधी के साथ दिखती है, लेकिन दूसरी ओर सामाजिक रूढि़यों के ध्‍वंस के मामले में उनके विचार एकदम अडिग एवं स्‍पष्‍ट थे। स्‍त्रियों की स्थिति के मामले में अतीत एवं धर्म के आदर्शीकरण की प्रवृत्ति उनमें लेशमात्र भी देखने को नहीं मिलती। वे नये के निर्माण के लिए पुरातन के ध्‍वंस का पक्ष लेती हैं और अतीतोन्‍मुखता की बजाय भविष्‍योन्‍मुख दृष्टि की बात करती हैं। उमा नेहरू का यूरोप-प्रेरित नारीवाद उच्‍चमध्‍यवर्गीय अभिजात स्त्रियों के बीच ही सहज स्‍वीकार्य हो सकता था। महादेवी जब स्‍त्री जीवन की समस्‍याओं की बात करती हैं तो उच्‍च मध्‍य वर्गीय शिक्षित स्त्रियों, परम्‍परापाश में जकड़ी आम मध्‍यवर्गीय घरेलू स्त्रियों और किसान-मज़दूर परिवारों की स्त्रियों - इन तीनों ही की अलग-अलग समस्‍याओं और साझा समस्‍याओं की चर्चा करती हैं। उनकी सैद्धान्तिक विवेचना व्‍यावहारिकता की जमीन से कभी पृथक नहीं होतीं। उनकी विषयवस्‍तु अमूर्त नारी प्रश्‍न नहीं है। उसे वे अपने समय व समाज के सन्‍दर्भ-चौखटे में अवस्थित करके देखती है। स्‍त्री-प्रश्‍न विषयक महादेवी का चिन्‍तन मुख्‍यत: अपने समाज की आन्‍तरिक गति से पैदा हुआ है। स्‍वतंत्रता और समानता के यूरोपीय प्रबोधनकालीन विचार यहाँ बाह्य प्रभाव के रूप में नहीं बल्कि पुन-संस्‍कारित देशज और लोकग्राह्य रूप में नजर आते हैं। इस मायने में महादेवी के विचारों की निकटता उमा नेहरू की अपेक्षा राधामोहन गोकुल की धारा के साथ अधिक प्रतीत होती है। बाह्य वैचारिक समानता की यदि बात करें तो स्‍त्री मुक्ति विषयक महादेवी केविचारों की निकटता यूरोपीय स्‍त्री-चिन्‍तकों की अपेक्षा उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के जुझारू भौतिकवादी और क्रान्तिकारी जनवादी रूसी चिन्‍तक निकोलाई चेर्नीशेव्‍स्‍की के साथ बनती है जिन्‍होंने 'क्‍या करें'उपन्‍यास में अप्रतिम स्‍वतंत्र व्‍यक्ति एवं स्‍वप्‍नद्रष्‍टा संघर्षशील स्‍त्री चरित्र के रूप में अपनी नायिका वेरा पाव्‍लोना की सृष्टि की।

 


महादेवी ने न केवल स्त्रियों की सामाजिक-पारिवारिक पराधीनता का प्रश्‍न उठाते हुए सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी तथा उनके आर्थिक स्‍वातंत्र्य पर बल दिया और इससे जुड़ी सभी बाधाओं-समस्‍याओं की चर्चा की। उन्‍होंने न केवल स्त्रियों की पराधीनता के चलते हुई सामाजिक-सांस्‍कृतिक विकृतियों की चर्चा की, बल्कि इसके साथ ही उन्‍होंने इस स्थिति से उत्‍पन्‍न स्त्रियों के आत्मिक-वैचारिक संकुचन और अस्मिता के लोप की ऐतिहासिक त्रासदी को भी रेखांकित किया। स्त्रियों की स्‍वतंत्र पहचान के अभाव या व्‍यक्तित्‍वहीनता की विडम्‍बना या अस्मिता के लोप पर विचार करते हुए अस्मितावादी राजनीति के विचारकों-पक्षधरों के समान, महादेवी अनैतिहासिक रुख नहीं अपनातीं। स्‍वतंत्र अस्मिता के अभाव के प्रश्‍न की पड़ताल वे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और सामाजिक-सांस्‍कृतिक रूढि़यों की ऐतिहासिक निरन्‍तरता से जोड़कर करती हैं। इसलिए महादेवी का स्‍त्री मुक्ति विषयक चिन्‍तन अपार आक्रोश वाला अकर्मक नारीवाद नहीं, बल्कि तर्कसंगत प्रतिरोध की गम्‍भीरता से युक्‍त सकर्मक चिन्‍तन है। निश्‍चय ही, वे बने-बनाये नुस्‍खे-फार्मूले नहीं सुझातीं या मुक्ति का कोई यूटोपिया नहीं प्रस्‍तुत करती हैं। इसके बजाय वे सामने उपस्थित समस्‍याओं का ऐसा सांगोपांग विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करती हैं, जिनके बीच से स्‍त्री मुक्ति की एक परियोजना और उसका एक मार्ग आकार लेता प्रतीत होता है।

 


स्‍त्री-पुरुष समानता का अर्थ महादेवी के लिए यह कदापि नहीं है कि स्त्रियाँ हर मायने में पुरुषों के जैसा होने का प्रयास करें। वे एकाधिक स्‍थानों पर स्त्रियों और पुरुषों की अलग-अलग विशेषताओं को रेखांकित करती हैं। उत्‍पीड़न को जन्‍म देने वाली सामाजिक असमानताओं और स्त्रियों को हेय बताकर उस उत्‍पीड़न का पक्ष-पोषण करने वाले सांस्‍कृतिक मूल्‍यों के निर्मूलन के बाद भी स्‍त्री-पुरुष की जैविक भिन्‍नता से उत्‍पन्‍न स्‍वभावगत भिन्‍नताएँ व विशिष्‍टताएँ तो मौजूद रहेंगी ही। बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि इन भिन्‍नताओं की समाप्ति तो समाज से वैविध्‍य एवं प्रतिकूलता के सौन्‍दर्य की समाप्ति होगी। महादेवी का स्‍पष्‍ट विचार है कि समानता के लिए संघर्ष का यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्रियाँ हर मायने में पुरुषों जैसा होने की कोशिश करें। वह अनुकरण उन्‍हें उनकी स्‍वतंत्र अस्मिता की स्‍थापना की दिशा में नहीं बल्कि एक अन्‍य रूप में लोप की दिशा में ही ले जायेगा। यहाँ स्‍त्री की अस्मिता के प्रश्‍न को महादेवी बुर्जुआ नारीवाद की मुख्‍य धाराओं से एकदम अलग रूप में देखती हैं और अपने अलग तरीके से स्‍त्री होने के अर्थ का संधान करती प्रतीत होती हैं।

 


ऊपरी तौर पर देखने पर यह एक अजीब-सी बात लगती है कि स्‍त्री-प्रश्‍न विषयक निबन्‍धों में जहाँ महादेवी का एक प्रखर स्‍वतंत्रचेता रूप सामने आता है, वहीं छायावादी नारी-बोध वाली उनकी कविताएँ स्त्रियों के एकात्‍म प्रेम, उनकी पीड़ा, असहायता और अवसाद की अभिव्‍यक्ति में आगे नहीं जा पातीं। पहले मुझे भी वह अन्‍तरविरोध विचित्र और अव्‍याख्‍येय प्रतीत होता था। लेकिन गहराई से सोचने पर लगता है कि यह कोई विसंगति नहीं है। यह अन्‍तरविरोध एक एकल विचार-सरणि के दो प्रतिकूल पक्षों के अन्‍तरसंघर्ष के रूप में देख जाना चाहिए। इन्‍हीं प्रतिकूल पक्षों का टकराव महादेवी की विचार-प्रक्रिया की आन्‍तरिक गति है। अन्‍तरविरोध हर बड़े रचनाकार के कृतित्‍व में होता है और ये अन्‍तरविरोध वस्‍तुत- युगीन सामाजिक अन्‍तरविरोधों को परिवर्तित कर रहे हैं। तोल्‍स्‍तोय ओर दोस्‍तायेव्‍स्‍की हों, प्रेमचंद और निराला हों या महादेवी हों कोई भी इन अन्‍तरविरोधों से मुक्‍त नहीं रहा। महादेवी ने एक स्‍त्री के लिए समय और समाज द्वारा बाँधी गयी चौहद्दी में जीते और रहते हुए स्‍त्री होने के अर्थ का सन्‍धान किया और और मुक्ति के प्रश्‍न पर हर पहलू से विचार किया। उनके जीवन के समक्ष युगीन रंगमंच की अवश करने वाली सीमाएँ थीं और विचारों के लिए उड़ान भरने को भविष्‍य का क्षितिज। कहा जा सकता है कि इन्‍हीं में से पहला पक्ष महादेवी के काव्‍यबोध को जन्‍म देता है और दूसरा पक्ष उनके स्‍त्री प्रश्‍न विषयक निबन्‍धों की वैज्ञानिक, वस्‍तुपरक एवं निर्भीक तर्कसंगति में अभिव्‍यक्‍त होता है। एक अन्‍य धरातल पर सोचते हुए यह भी कहा जा सकता है कि स्‍त्री-जीवन की त्रासदी एवं विडम्‍बना की अनुभूति या अवबोध का पक्ष (परसेप्‍चुअल आस्‍पेक्‍ट) यदि महादेवी की कविताओं में सामने आता है तो उनका अवधारणात्‍मक पक्ष (कंसेप्‍चुअल आस्‍पेक्‍ट) उनके निबंधों में प्रकट होता है।

 


अब महोदवी के इस अन्‍तरविरोध को समझने के लिए एक तीसरे सन्‍दर्भ चौखटे का सहारा लें। हमें कबीर और कई अन्‍य निर्गुण सन्‍तों में भी एक अन्‍तरविरोध देखने को मिलता है जो वास्‍तव में एक ही चिन्‍तन सरणि की आन्‍तरिक गति के दो पक्षों को प्रकट करता है। कहीं तो वे इहलोक की ठोस समस्‍याओं-रूढि़यों, पाखण्‍ड, अन्‍धविश्‍वास और अन्‍याय से टकराते हुए चुनौती की भाषा में बात करते हैं, फिर कहीं मानो स्‍वयं को निरूपाय-सा महसूस करते हुए, अवसाद या विरक्ति में डूबे हुए पारलौकिक दुनिया का संधान करते हुए रहस्‍यवाद में शरण ढूँढ़ते प्रतीत होते हैं। हर सामाजिक-वैचारिक संघर्ष में हार-जीत, आशा-निराशा के अवरोह आते हैं और सच्‍चे और बड़े रचनाकार वही हैं जिनका रचना-जगत इन दोनों पक्षों की इन्‍दराजी करे। महादेवी की कविताओं के मूल स्‍वर और उनके स्‍त्री-प्रश्‍न विषयक निबंधों के बीच के अन्‍तरविरोध को इसी रूप में देखा जा सकता है।

 


और अन्‍त में इस अन्‍तरविरोध को देखने का चौथा कोण प्रस्‍तावित है। महादेवी की कविताओं का छायावादी नारीबोध, स्त्रियों के एकात्‍म प्रेम, पीड़ा, असहायता और अवसाद की केन्‍द्रीय अभिव्‍यक्ति के बावजूद ऐतिहासिक दृषि से स्‍त्री होने के अर्थ के सन्‍धान, स्‍त्री के स्‍वतंत्र वजूद की तलाश के उसी व्‍यापक उपक्रम का एक अंग है, जिसके अन्‍तर्गत महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन आता है। इन कविताओं की स्‍त्री रीतिकालीन नायिका नहीं है, न ही इनका सौन्‍दर्यबोध और विधान ही रीतिकालीन है। ये अभिव्‍यक्तियाँ एक स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व वाली स्‍त्री की प्रेमानुभूतियों की, कामनाओं की, पीड़ाओं की अभिव्‍यक्तियाँ हैं। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में यूरोपीय स्‍वच्‍छन्‍दवादी काव्‍यधारा की प्रेमकविताएँ जिन ऐतिहासिक अर्थों में प्रगतिशील थीं, उन्‍हीं अर्थों में छायावादी दौर की प्रेम की कविताओं में भी प्रगतिशीलता का पहलू था। महादेवी के समय और समाज में वैयक्तिकता का बोध और प्रेम की अभिव्‍यक्ति भी एक सामाजिक विद्रोह था और एक स्‍त्री के लिए तो खासतौर पर। महादेवी की कविताओं का मूल स्‍वर आकुल प्रतीक्षा, सघन अवसाद, गहन पीड़ा और यदा-कदा असहायता की अभिव्‍यक्ति के बावजूद एक ऐसी स्‍त्री का स्‍वर है जिसका अपना वजूद है और जिसमें अपने प्रेम को, अपनी आशा-निराशा को प्रकट करने का साहस है। वह रीतिकालीन नायिका नहीं है। इन कविताओं का सौन्‍दर्य विधान भी रीतिकाल जैसा नहीं, बल्कि उसके ठीक विपरीत है। इस दृष्टि से आज महादेवी की कविताओं के भी पुनर्पाठ की आवश्‍यकता है। महादेवी ने स्‍त्री होने के अर्थ का जो सन्‍धान अपने युगीन सन्‍दर्भों में किया, उसी व्‍यापक उपक्रम के अलग-अलग पक्ष हमें उनके काव्‍य और गद्य में देखने को मिलते हैं।


('अदहन'के नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2016 अंक में प्रकाशित)

गैर राजनीतिक उपन्यास एक मिथक है : अरुंधति रॉय

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तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां - 1

रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी

-गैर राजनीतिक उपन्यास नहीं लिखा जा सकता है. ये एक मिथक है. मैं मानती हूं कि हर छोटी परी कथा भी किसी न किसी रूप में राजनीतिक होती है. जब आप किसी चीज़ से परहेज़ करते हैं, तो वो भी उतना ही राजनीतिक है जितना कि उस चीज़ को संबोधित करना.
*
-मेरे लिए, कहानी कहने का तरीका भी कहानी जितना ही महत्त्वपूर्ण है. जब आप कश्मीर जैसी जगहों के बारे में लिखते हैं, या मध्य भारत के जंगलों में जो हो रहा है उसके बारे में लिखते हैं, जिस किसी चीज़ के बारे में.....मैं कहती रही हूं कि फ़िक्शन एक सत्य है. क्योंकि इन जगहों में जो घटित हो रहा है, उस आतंक को सिर्फ़ रिपोर्ताज और प्रमाण आधारित रिपोर्टिंग या फुटनोट्स से समझाना, कभीकभार मुमकिन नहीं होता है. ख़ुद फ़िज़ां और वो लोगों को क्या करने करे लिए विवश करती है और आपको उस ख़ौफ़ के साथ कैसे बसर करनी होती है, सालोंसाल उसके साथ कैसा एडजस्ट करना होता है, तो ये दास्तान वास्तव में सिर्फ़ फ़िक्शन ही सुना सकता है.
*
-अपने राजनीतिक लेखन में अक्सर ही मैं वास्तव में अपने लेखन से ज़्यादा आक्रोश महसूस करती हूं. जब मैं फ़िक्शन लिखती हूं तो मैं अपनी देह में बिल्कुल अलग व्यक्ति की तरह होती हूं. फ़िक्शन लिखते हुए मुझमें एक बड़ी शांति रहती है. हो सकता है ये अवचेतन में हो, लेकिन ऊपरी तौर पर मैं किसी ऑडियंस या पाठक या किसी और चीज़ के बारे में नहीं जानती हूं. मैं उसके स्वागत को लेकर बहुत ज़्यादा नहीं सोच रही होती हूं.
*

-हाल में, विदेशी संवाददाताओ के एक दल के साथ, मैं दिल्ली में थी. भारत में जो कुछ हो रहा है और उसे कम्यूनिकेट करने की असमर्थता से वे लगभग सदमे में थे. क्योंकि वो चीज़ बॉलीवुड और मुक्त बाज़ार और बढ़ती इकोनमी के शोर में दबी हुई है....(उधर)..सैकड़ों हजारों राजनैतिक कार्यकर्ता भारत को उस बिंदु पर ले आ रहे हैं जहां उसे लगभह हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया गया है. मैं लोगों से कहती थी कि अगर भारतीय बाजार पूरी तरह खुला न होता, और भारत एक बड़ी वित्तीय ठिकाना न होता, तो हम आज जनसंहार और रासायनिक हथियारों और सड़कों में पीट पीटकर मार डालने की वारदातों, दलितों पर चाबुक बरसाने की वारदात के बारे में लिख रहे होते. अभी तो ऐसी भीड़ और ऐसे विजिलांटी हैं जो मुसलमानों की दाढ़ी खींच रहे हैं, उन्हें हिंदू नारे कहने पर मजबूर कर रहे हैं, लोगों को पीट पीटकर खत्म कर रहे हैं.
*

-मुक्त बाज़ार इस सब के लिए जिम्मेदार नहीं है लेकिन मुक्त बाजार इस सब को शक्ति मुहैया कराता है. जो अवसर वो हासिल कराता है, अंतरराष्ट्रीय वित्त, ये उस तथ्य को धीरे धीरे ढक देते हैं कि क्रूरता और धर्मांधता का एक स्तर है.. अगर किसी दूसरे देश में, हजारों लोगों के कत्ल की कोई अगुवाई कर रहा होता, मुसलमानों को शरणार्थी शिविरों में धकेला जा रहा होता, तो बाहरी दुनिया में इसे अलग ढंग से लिया जाता. लेकिन अब भारत मार्केट फ्रेंडली, बॉलीवुडीय, धुंधला सा नाज़ुक गुदगुदा खिलौना है.
*

-अमेरिका में बेलगाम पूंजीवाद के लिए कच्चा माल दूसरे देशों पर युद्ध थोपकर निकाला जा सकता है. भारत जैसे देशों में हम खुद का उपनिवेशीकरण कर ऐसा कर रहे हैं. मैं सिर्फ रूपक में नहीं कह रही हूं. मैं कहती हूं कि मध्य भारत के जंगल, अर्धसैनिक बलों से भरे हुए हैं जो स्थानीय लोगों को अपनी जमीन से बेदख़ल करने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार के बहुत नजदीक एक व्यक्ति ने कहा कि “अफ्रीकी लोग सड़कों पर पीटे जा रहे हैं, मार डाले जा रहे हैं, भारत को नस्ली बताया जा रहा है,” तो उसने कहा, “हम नस्ली कैसे हो सकते हैं. हम इन काले दक्षिण भारतीयों के साथ भी तो रहते हैं.” हजारों किसान और आदिवासी जन, देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद है क्योंकि वे अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं और वे जमीनें खनन कंपनियों को सौंपी जा रही हैं. जो वहां हो रहा है और बाहर भारत की जो छवि है, उन दोनों में एक गहरा विच्छेद है.
*
(स्लेट डॉट कॉम में इसाक शोटनरसे बातचीत के अंश)
`समयांतर`से साभार

ये रही मैं, तुम्हारे सामने, तुमसे मुकाबला करने के लिए : अरुंधति रॉय

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Photo by TARUN BHARTIYA

तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां


रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी


•मैं अपने काम के भीतर रहती हूं. हालांकि मैं ये कहूंगी कि कभी मैं उन लेखकों के बारे में सोचती थी जो अज्ञात रहना चाहते है- लेकिन मैं ऐसी नहीं रही हूं. क्योंकि इस देश में ये महत्त्वपूर्ण है, खासकर औरत के लिए, ये कहना जरूरी हैः “सुनो, ये रही मैं, मैं तुम्हारे सामने हूं तुमसे मुकाबला करने के लिए, और मैं यही सोचती हूं और मैं छिपूंगी नहीं.” अगर मुझसे किसी को साहस मिला है....प्रयोग का...कतार को छोड़कर निकल आने का....तो ये प्यारी बात है. मैं सोचती हूं कि हमारे लिए ये कहना बहुत महत्त्वपूर्ण हैः “हम कर सकते हैं! हम करेंगे! हमसे न उलझना! समझे.”


•बात ये है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को उस कुख्यात खनन कंपनी से आर्थिक सहायता मिलती है जो आदिवासियों की आवाज़ों को ख़ामोश कर रही है, उन्हें उनके घरों से बेदख़ल कर रही है, और अब तो इसे ज़ी टीवी भी फंड कर रहा है, जो आधा समय तो मेरा शिकार करने के लिए पीछे पड़ा रहता है. तो सिद्धांत के तौर पर मैं ऐसे उत्सवों में नहीं जा सकती हूं. कैसे जा सकती हूं. मैं उनके खिलाफ लिख रही हूं. कहने का मतलब, बात ये नहीं है कि मैं कोई पवित्र या शुद्ध व्यक्ति हूं, जैसे हम सब में विरोधाभास होते हैं, हमारे कई मुआमले होते हैं, मेरे साथ भी यही है, मैं गांधी जी की तरह नहीं हूं, लेकिन सिद्धांत में, इसपर टिके रहती हूं. दुनिया के सबसे गरीब लोगों की आवाजों को बंद कर दबा कर आप आख़िर कैसे आप फ्री स्पीच का चमकदार मंच बन जाते हैं जहां लेखकों की चहलपहल और उड़ानें हैं. मुझे इससे समस्या है.


•जब मैं किताब लिख रही थी, तो सामयिक मामलात ज्यादा नहीं देख पाई. मैं फेसबुक आदि पर भी नहीं हूं. यूं मुझे इससे कोई समस्या भी नहीं है, लेकिन मुझे एडवर्ड स्नोडेन ने एक बात बताई थी. कि जब फेसबुक शुरु हुआ था तो सीआईए ने उसका जश्न मनाया था क्योंकि उन्हें बिना कुछ किए एक साथ सारी सूचनाएं मिल गई थीं. इससे अलग, बात ये भी है कि जब आप लिख रहे होते हैं, तो पढ़ने के बारे में थोड़ा विचित्र से हो जाते हैं- कभी कभी मैं पूरी किताब नहीं पढ़ रही होती हूं, सिर्फ़ कुछ डुबकियां लगा लेती हूं, अपने विवेक को परखने के लिए.


•मैं मानती हूं कि नायपॉल एक मुकम्मल सिद्ध लेखक हैं, हालांकि अपने वैश्विक नजरिए को लेकर हम दो छोरो पर हैं. लेकिन वास्तव में, मुझ पर उस रूप में किसी लेखक का उतना प्रभाव नहीं है. मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे ये बात अविश्वसनीय लगती है कि भारत में लेखकों, और कमोबेश समस्त भारतीय लेखकों, या कमसेकम जानेमाने लेखकों.....चलिए लेखक न भी कहें, लेकिन उनमें उन चीज़ों को छिपा लेने का एक स्तर है जो यहां समाज के मर्म में अवस्थित हैं, जैसे जाति. आप देखिए कि यहां कुछ भारी गड़बड़ है. ये इस तरह से है कि रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में लोग, रंगभेद का ज़िक्र किए बिना लिखते रहें.


•जो कुछ मैं जानती हूं, वो यहां है, जिस किसी को मैं जानती हूं, और वास्तव में बाहर मैं कभी रही नहीं हूं, विदेश में, तो किसी अजनबी देश में अकेले रह लेने का ख़्याल आतंकित भी करता है. लेकिन इस समय मैं मानती हूं कि भारत एक अत्यधिक ख़तरनाक जगह पर ठिठका हुआ है, मैं नहीं जानती कि किस के साथ क्या हो सकता है- मेरे साथ या किसी के साथ भी. ये कुछ उपद्रवी हैं जो ये तय करते हैं कि किसे मारा जाना है, किसे गोली मारी जानी है, किसे पीट पीटकर मार डालना है. मैं सोचती हूं कि शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारत में लोग, लेखक और अन्य लोग, उस तरह का संत्रास महसूस कर रहे है जैसे लोगो ने चिली और लातिन अमेरिका में झेला था. एक तरह का आतंक निर्मित हो रहा है जिसका हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है. ऐसे मौके आते हैं जब आप बहुत चिंतित हो जाते हैं, फिर गुस्सा, और फिर आप एक निडर ज़िद्दी बन जाते हैं. मैं मानती हूं कि ये कहानी अभी खुल ही रही है.


•ये किताब के बारे में नहीं है या वे क्या पढ़ते हैं क्या नहीं. ये उन कुछ निरंकुश नियमों के बारे में है जो उन्हें बना लिए हैं कि क्या कहना है, क्या नहीं कहना है, कौन क्या कह सकता है, कौन किसे मार सकता है. ये सब. मैं यहां रहती हूं, यहां लिखती हूं और ये किताब भी यहां के बारे में है. लेकिन स्थिति यहां बेकाबू है, नीचे ही. ये महज़ मार दिए जाने की बात नहीं है. ये कुछ ऐसा हैः अगर आप मुसलमान हैं तो जोखिम उठाए बगैर आप ट्रेन या बस में बैठ भी कैसे सकते हैं. तो मेरे साथ क्या होता है, मुझे नहीं पता है. मैंने एक किताब लिख दी है जिसे लिखने में मुझे दस साल लगे हैं, और दुनिया के 30 देशों में दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशक इसे छाप रहे है. मैं कुछ मूर्खों को इस बात की इजाज़त नहीं दे सकती कि वे आएं और इसमें खलल डालें और तमाम हेडलाइनें उड़ा ले जाएं. मैं ऐसा क्यों करूं. बात उनके छोटे दिमागों के बारे में नहीं है, ये बात साहित्य की है. इसकी हिफ़ाज़त की जानी चहिए और इस पर्यावरण में तो समझबूझ कर की जानी चाहिए.


•इस उपन्यास को लिखने में दस साल लगे हैं. लेकिन मैं समझती हूं कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और आज के बीच पिछले बीस साल में, मैंने यात्राएं की हैं, और इतनी सारी चीज़ों में मुब्तिला रही हूं, उनके बारे में लिखती रही हूं. जब मैं राजनैतिक निबंध लिख रही थी तो उनमें एक तरह की बड़ी अरजेंसी थी, हर बार आप एक स्पेस को या एक मुद्दे को खोल देना चाहते थे. लेकिन फिक्शन अपना समय लेता है और ये परतदार होता है. कश्मीर जैसी जगह में जो उन्माद प्रकट हो रहा हैः आप वहां की फ़िज़ां में निहित आतंक का वर्णन किस तरह करेंगे. बात सिर्फ किसी मानवाधिकार रिपोर्ट की नहीं है कि कि कितने लोग कहां कहां मरे. जो वहां हो रहा है उसके साइकोसिस का वर्णन कैसे करेंगे आप. फ़िक्शन के सिवाय.....मैंने फिक्शन इसलिए नहीं चुना क्योंकि मैं कश्मीर के बारे में कुछ कहना चाहती थी, लेकिन फिक्शन आपको चुनता है. मैं नहीं समझती कि ये बात इतनी सरल होती होगी कि मेरे पास देने के लिए कुछ सूचना है और इसलिए मैं एक किताब लिखना चाहती थी. ये ये तो देखने का एक तरीका है. सोचने का एक तरीका. ये एक प्रार्थना है, ये एक गीत है.

(दहिंदू डॉट कॉम में जास ओयाह से बातचीत)


`गल्प कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता...`


•जो यात्राएं मैंने की हैं, जिन लोगों से मिली हूं, जो जीवन मैंने जिया है, और जो राजनैतिक निबंध मैने पिछले बीस साल में लिखे हैं वे सब द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस के स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं. लेकिन निबंध और नॉवल दो बिल्कुल अलग विधाएं हैं. फ़िक्शन लिखते हुए मैं रिलेक्स रहती हूं, लगभग स्वप्न में. मैं किसी तरह की जल्दी में नहीं हूं. मैं उन सब लोगों और प्राणियों (दुष्ट भी) के साथ रहना चाहती थी जो दस साल पहले मेरे पास आने लगे थे....देखने के लिए हम आपस में एक दूसरे को पसंद करते हैं या नहीं. फ़िक्शन कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता, ढकाछिपा राजनैतिक निबंध, जिसमें कृत्रिम किरदार आपकी तरफ से बोलें, ये एक ऐसा यूनिवर्स बनाने की बात है जहां लोग घूमते भटकते रह सकें, मैं ऐसी कहानी लिखना चाहती थी कि जिसमें मैं किसी के पास से यूं ही न गुज़र जाऊं किसी छोटे से छोटे किरदार के साने से भी, बल्कि रुकं, एक बीड़ी जलाऊं और वक्त पूछूं. ऐसी कहानी जिसमें बैकग्राऊंड अचानक फ़ोरग्राउंड बन जाता है. शहर एक व्यक्ति बन जाता है...मेरे लिए फ़िक्शन लिखना, प्रार्थना के सबसे करीब है.

(स्क्रॉल डॉट इन)



`समयांतर`से साभार

(अरुंधति की तस्वीर The MINISTERY of UTMOST HAPPINESS के बारे में तरुण भारतीयकी परिचयात्मक फिल्म से)

अरुंधति के `द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस` पर शिवप्रसाद जोशी

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अन्यतम ख़ुशी के अन्यतम संघर्ष की दास्तान

अरुंधति रॉय का नया उपन्यास: द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस

(मर गई बुलबुल कफ़स में कह गयी सय्याद से......)
-शिवप्रसाद जोशी

धीरे धीरे हर व्यक्ति बनकर.
नहीं.
धीरे धीरे हर चीज़ बनकर.
(उपन्यास से)

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस का कैज़ुअल हिंदी अनुवाद भी थोड़ा मुश्किल है. क्या ये हो सकता हैः अन्यतम ख़ुशी की विज़ारत? या अन्यतम ख़ुशी का समूह? यहां मिनिस्ट्री ठीक ठीक मंत्रालय की ध्वनि में नहीं है. इस मिनिस्ट्री के तार आदिम ईसाइयत से भी जुड़े प्रतीत होते हैं. वो वंचितों का बसेरा है जहां से ख़ुशी को संजोए रखने की जद्दोजहद चलती है तो वो कोई मंत्रालय तो नहीं है. उपन्यास में ये तमाम ऐसे साधारण नागरिकों का एक बिखरा हुआ लेकिन किसी न किसी मोड़ पर एकजुट समूह है जो मुख्यधारा के समाज से अनाधिकारिक तौर पर बहिष्कृत हैं.

सामाजिक अलगाव ने उन्हे बाहरी किनारों पर फेंक दिया है. लेकिन किनारों को ही वे लोग अपना आशियाना बना चुके हैं और अपनी एक जन्नत उन्होंने बना ली है. उपन्यास में ये जन्नत गेस्ट हाउस ही है जो बेघरों, संदिग्धों, उत्पीड़ितों, हिजड़ों, नशेड़ियों, फक्कड़ों, ड्राइवरों, गायकों, लेखकों और एक्टिविस्टों का ठिकाना बन जाता है. वे अपनी निजी ज़िंदगियों की उथलपुथल से लड़ते भिड़ते हुए निकलते हैं और उम्मीद की मद्धम रोशनियों की दुनिया में दाखिल होते हैं. वे बहुत सारी भाषाएं बोलते हैं, बहुत सारे तरीकों से खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वे विस्फोटक गालियां देते हैं, वे कब्रिस्तान को एक ऐसी जगह बना देते है जहां ख़ुशी, उत्सव और मोहब्बत का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है, दुख और तकलीफ़े भी जैसी इस अन्यतम ख़ुशी की शाखाएं हैं. उसी से फूटी कुछ राहे हैं जो आगे जाकर लौट आती हैं. ख़ुशी यहां कोई स्थूल भाव नहीं है, वो किरदारों का आंतरिक सौंदर्य है. उनकी विचारधारा है. क्योंकि इसका जन्म एक अघोषित एकजुटता से हुआ है. अरुंधति इस तरह उपेक्षितों का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं.

कथा के भीतर कथा और उसके भीतर भी एक कथा है और उसके भीतर भी एक कथा. उस सबसे भीतरी कथा की आंतरिकता भी एक कथा से बनी है जिसके उस कथा का बाह्य निर्मित हुआ है. इस तरह जैसे मात्र्युश्का का जादू हो. गुड़िया के भीतर गुड़िया. तहें. परतदार जीवन. दिल्ली की परत के ऊपर गुजरात की परत, उस परत पर कश्मीर की परत, उस परत पर मध्य भारत की परत, फिर तेलंगाना, आंध्रप्रदेश की परत. और भूगोल की परतें ही नहीं. किरदारों की भी. आफताब पर अंजुम की परत. मिस जेबीन प्रथम पर मिस जबीन द्वितीय की परत और उस जेबीन द्वितीय पर उदया की परत. विश्वास पर हर्बर्ट की परत. मूसा पर उसके विभिन्न रूपों की परत. ये रिश्तों का और किरदारों का जैसे एक नक्शा है. शहर भी एक किरदार की तरह शामिल है. लकीरें कहीं से खुलती कहीं उतरतीं और मुड़ती हैं. अरुंधति एक एक किरदार को जैसे पूछने बैठी हैं. वे अपनेआप उठते हैं और अपना रोल अदा करने निकल जाते हैं. लेखक उन्हें फॉलो कर रहा है. इस नॉवल की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें इतने सारे लोग, इतने सारे जीव, इतने सारे जानवर, पशु-पक्षी, फल-फूल और वनस्पति हैं कि जैसे कोई एक पूरी मुकम्मल पृथ्वी उन पन्नों पर फूट रही है.

अरुंधति अपनी कल्पना के यथार्थ में एक ऐसा सामूहिक जीवन देख रही हैं जहां सबके लिए जगह है. आवाजाही है. और सांस है. हमारी पाठक नज़र को इतनी सारी चीज़ें पहले शायद कभी नहीं मिली थीं. या वो तोल्स्तोय में ही मिली होंगी या मार्केस में. ये अनायास नहीं है कि आलोचक इतने किरदारों की आमद से बहुत प्रसन्न नहीं है. लेकिन ये जो हम लोग हैं, इतने बहुत सारे, इस वास्तविक जीवन में, इस विदग्ध समय में, हम कहां जाएं? अपनी आमद को वापस खींच लें?

प्रेम इस उपन्यास का केंद्रीय तत्व है. इस उपन्यास की धुरी. उसके आसपास सारी तबाहियां हैं. सारी खुराफातें सारे बुखार. इस प्रेम का निर्माण किया है एक अवर्णनीय उद्विग्नता है. उत्ताप सपने और बेचैनियां और अपनी कौम को बचाने की कामना, आसमान पर बिना हिलेडुले टंग गए कौवे की तक़लीफ़ की शिनाख्त, एक ऐसे नागरिक बोध के बारे में बताती है जो हम इधर अपने मध्यवर्गीय गुमानों में भूल गए हैं. हमारी एक नकली जन्नत है, अगर वो है कहीं. हमने अपने जीवन में कभी उसे नहीं देखा है. बेशक उसके लिए मालअसबाब जुटाए हैं, धार्मिकताएं और जुलस जलसे किए हैं, रोज बुदबुदाए हैं और घंटे घड़ियाल बजाए हैं. वो हमें नही मिली. अरुंधति के किरदारों ने उसे बनाया है. वो कहीं रखी नहीं मिली है. उसे अंजुम और सद्दाम हुसैन की बेचैन आत्माओं ने ढूंढा है और संवारा है. उनके साथ अराजकों का एक कुनबा है, तिलोत्तमा है, अंजुम की गोद ली बेटी जैनब, डॉ आज़ाद भारतीय, बूढ़ा मोची, निम्मो गोरखपुरी, उस्ताद हमीद, सईदा, इशरत, डॉ भगत, मिस जेबीन द्वितीय, इमाम ज़ियाउद्दीन और वे अपने हैं और अपनों को अपने हैं जो जन्नत गेस्टहाउस के इर्दगिर्द दफ़न हैं. उसमें उस्ताद हमीद का संगीत है. पहले जैनब और फिर मिस जेबीन द्वतीय की किलकारियां हैं, पायल घोड़ी की इतराहट है, बीरू कुत्ते का आलस है और कॉमरेड लाली की नरम भौंक. इस कब्रिस्तान में ही इस तरह का एक जीवन संभव है जहां मनुष्यों के साथ पशुओं पक्षियों फूलों और वृक्षों का वास है. यहां तक कि गेस्ट हाउस की दीवारें, कब्रें, छत, भी जैसे इस जीवित धड़कते संसार में एक प्राणयुक्त उपस्थिति हैं. एक अपरिहार्य सूत्र में सब बंधे हुए हैं. प्रेम का नहीं तो फिर किस चीज़ का ये सूत्र होगा. व्यक्तियों के बीच ही नहीं, जगहें और भूगोल भी इस सूत्र में गुंथे हुए हैं. अरुंधति शायद पहली लेखक होंगी जिनकी रचना में दिल्ली ख़ासकर पुरानी दिल्ली और राजधानी का हाशिया इतनी सूक्ष्म डिटेल्स के साथ आया है. ये ज़बर्दस्त ऑब्सर्वेशन है. और ये सिर्फ़ लेखकीय नोट्स का मामला नहीं है. इसे सहा गया है. हर धूल का ब्यौरा है. हर दीवार हर फुटपाथ हर गली हर झुग्गी. एक ऐसा समय जब, “महादेश की मूर्खता अविश्वसनीय दर से बढ़ती जा रही थी और उसे तब किसी सैन्य क़ब्ज़े की ज़रूरत भी नहीं थी.”

कश्मीर की दास्तान को सुनाने के लिए फिक्शन का सहारा लिया गया हो, बात ये नहीं है. बात ये है कि फिक्शन ही इस दास्तान के जरिए रचा गया है. एक ऐसे समय में जब, कवि मंगलेश डबराल के शब्दों में ‘यथार्थ बहुत ज्यादा यथार्थ’ हो तो कल्पना ही एक नया वैकल्पिक यथार्थ बन जाती है. नॉवल को पढ़ते हुए जादुई यथार्थ की जैसी बुनावट प्रतीत होती है लेकिन जैसा कि अरुंधति ने कहा है ये कुछ अलग ही यथार्थ है जो जादुई हो गया हो सकता है. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में 20 साल का फासला है. भाषा और बनावट का भी उतना ही बड़ा फासला है. या इस फ़ासले को आप किसी मेज़रमेंट में नहीं ला सकते हैं. लेकिन कुछ समानताएं हैं. सतह पर अस्पष्ट लेकिन मर्म में उद्घाटित. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स, द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में विलीन हो जाता है. मामूली चीज़ों का देवता, अन्यतम ख़ुशी के समूह में बाख़ुशी अपनी जगह पा जाता है. बाज़ दफ़ा ये मिनिस्ट्री ऑफ़ स्मॉल थिंग्स है. कब्रिस्तान में मामूली चीज़ें मामूली लोग मामूली देवता मामूली जानवर, मामूली वनस्पतियां, मामूली खुशियां मामूली दुख एक मामूली से मंत्रालय का सृजन करती हैं. जो एक गैरमामूली जीवन और गैरमामूली संघर्ष का प्रतीक है. अगर किसी को लगता है कि नये नॉवल में अरुंधति ने बड़े प्रतीकों का सहारा लिया है, तो वे शायद गलत होंगे. इसके लिए उपन्यास को एकबारगी पढ़कर किनारे रख देना काफ़ी नहीं होगा. नॉवल उन उपन्यास की दो या तीन रीडिंग्स चाहिए तब आपको सहज ही ये अंदाज़ा लग जाएगा कि मामूली चीज़ें और मामूली लोग ही इस उपन्यास की असाधारणता की हिफ़ाज़त करते हैं. यहां तक कि अमलतास का पेड़ भी भी दिल्ली की जानलेवा गर्मी और लू के थपेड़ों के ख़िलाफ़ उतप्त खड़ा है. “अमलतास का फूल खिलता है एक चमकदार, सुंदर, जिद्दी फूल. हर झुलसाती गर्मी में ये ऊपर उठता है और गरम भूरे आसमान को फुसफुसा कर कहता हैः फ़क यू.”

नॉवल एक सिनेमाई नैरेटिव की तरह भी हमारे भीतर गूंजता है. दृश्यों पर ये पकड़ बहुत विशिष्ट है. आपको व्यथा का वर्णन नहीं करना है, उसका दृश्य दिखाना है. ये ख़ूबी है. 2014, 2004, 2002, 1990 का दशक, यूपीए सरकार, तत्कालीन प्रधानमंत्री, कॉरपोरेट, इकोनमी, ठुंसा हुआ सब कुछः किताबों से लेकर कला तक और इन्हीं सब के बीच गुजरात का लल्ला, मंदिर, ईंटें और भगवा झंडे. भगवा जुलूस, भगवा हाहाकार, और भगवा सुग्गे (पैराकीट). लुटीपिटी और बरबाद अंजुम कब्रिस्तान का रुख़ करती है तो ये दृश्य जैसे पेज पर नहीं पर्दे पर घटित हो रहा है. “बूढ़े परिंदे मरने के लिए कहां जाते हैं?” नाम का पहला अध्याय इस तरह शुरू होता हैः

“वो कब्रिस्तान में एक पेड़ की तरह रहती थी. भोर में वो कौवों को विदा करती थी और चमगादड़ों के घर लौटने का स्वागत करती थी. सांझ में वो इसका ठीक उलटा करती थी. पालियों के दरम्यान, वो गिद्धों के प्रेतों से गप करती थी जो उसकी ऊंची शाखाओं में मंडराते रहते थे. उनके नाखूनों की नरम जकड़ को वो एक कटे हुए अंग पर दर्द की तरह महसूस करती थी. उसने पाया कि अलग होकर कहानी से निकल जाने को लेकर वे कुल मिलाकर नाख़ुश तो नहीं थे.”

“जब वो पहली बार आई, तो फ़ौरी क्रूरता के कुछ महीने उसने वैसे ही सहन किये थे जैसा एक पेड़ करता ही है- बेहिचक, अडिग.” वो ये देखने के लिए नही मुड़ती थी कि किस छोटे लड़के ने उसे पत्थर मारा, अपनी छाल पर अपमान की खरोंचों को पढ़ने के लिए वो गर्दन नहीं निकालती थी. जब लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया, उस पर फ़ब्तियां कसीं- बिना सर्कस की जोकर, बिना महल की रानी- तो वो अपनी चोट को अपनी शाखाओं के बीच से एक झोंके की तरह बहा देती थी और अपने सरसराते पत्तों के संगीत को दर्द कम करने वाले बाम की तरह इस्तेमाल करती थी.”

और जन्नत गेस्ट हाउस के वे उत्सव, वे मौजें, वे दावतें- फ़ेदेरिको फ़ेलिनी की “ला स्त्रादा” की याद दिलाती हैं. बरबादियों से उठकर जीवन राग फैल जाता है. भारतीय लेखकों में अरुंधति रॉय ने अपने फ़िक्शन को एक रोमानी कथानक से आगे दर्द और लड़ाई की तफ़्सील कुछ ऐसे निराले ढंग से बना दी है कि उनके साहस का अनुमान लगाया जा सकता है. वहां एक ऐसी फटकार है जिससे किसी को निजात नहीं. पुरानी दिल्ली के शाहजहांबाद में जहांआरा बेगम के घर, हजरत सरमद शहीद की दरगाह, उस्ताद कुलसुम बी की ख्वाबगाह, कब्रिस्तान और उसकी जन्नत, जंतरमंतर, मेजर अमरीक सिंह का यातना कक्ष, डल झील की हाउस बोट, नागराज हरिहरन यानी नागा का विशाल घर, या बिप्लब दासगुप्ता यानी गरसन होबार्ट का मकान और तिलो को किराए पर दिया कमराः हर जगह एक फटकार जैसे बरस रही है. और हिसाब मांग रही है. उत्पीड़ितों की आहें कभी हंसती है कभी रोती हैं चक्कर काटती रहती हैं, दिल्ली और सत्ता के दुष्चक्रों में फंसी हुई अंततः वे मानो पुराने परिंदों की तरह कब्रिस्तान के किसी पेड़ में जा अटकती हैं, वहां फड़फड़ाती हैं. जहां एक स्त्री है. “वो जानती थी कि वो लौटेगा. भले ही ये जटिल पहेली थी लेकिन उसने देखते ही अकेलेपन को पहचान लिया था.. उसने भांप लिया था कि कुछ अजीब ऊपरी तौर पर उसे उसकी छांह की उतनी ही ज़रूरत थी जितना कि उसे थी. और उसने अनुभव से जाना हुआ था कि ज़रूरत एक गोदाम थी जिसमें अच्छीख़ासी मात्रा में क्रूरता को भरा जा सकता था.”

शेक्सपियर के शुरुआती प्रभाव के बाद तोल्सतोय और जॉन बर्जर जैसे लेखकों से अरुंधति रॉय प्रेरित रही हैं. नॉन फ़िक्शन में उन्हें एडुआर्डो गालियानों का लेखन प्रभावित करता है. “ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका,” इस उपन्यास में ओपन वेन्स ऑफ़ कश्मीर भी बन जाती हैं, और ओपन वेन्स ऑफ़ डेहली भी. फर्क यही है कि गालियानो का वो दस्तावेजी गद्य है जिसमें रक्तरंजित दास्तान और मूल निवासियों के संघर्ष की तफ़सील है और अरुंधति का ये फ़साना है जिसमें यथार्थ और कल्पना घुलमिल गए हैं. षडयंत्रों और मुठभेड़ों और हत्याओं और प्रदर्शनों की धमधम दिल पर गुजरती धमधम है. जैसे टूटा कोई एक पुल या घर नहीं बल्कि एक ख़्वाब है. कश्मीर पर सैन्य अतिवाद का सामना एक प्रेम कहानी करती है जो बंदूक के साए में ही नहीं बल्कि मजारों, कब्रों, बागीचों, फलों के बागानों, फूलों के पेड़ों और घाटी और नदी और झील के अंधेरों उजालों और झिलमिलाहटों और जगमगाहटों और करुण पुकारों के बीच मंडराती हुई सी है. कोई तितली अपने विशाल पंखों के साथ फड़फड़ाते हुए स्वप्न, स्मृति और यथार्थ के कश्मीर में यहां से वहां उड़ रही है. बमों, बारुदी सुरंगों, बंदूकों, और यातना गृहों की चीखों के गुबार को काटते हुए अपनी उड़ान बनाती हुई. सबसे ऊपर आख़िरकार मोहब्बत और जज़्बा और जुनून है. मेजर अमरीक सिंह की बर्बरता भी मानो इस मोहब्बत के आगे ढेर हो जाती है. वो दूर अमेरिका जाकर परिवार सहित अपनी जान लेता है. कोई दुश्मन नहीं कोई हमला नहीं कोई साज़िश नहीं फिर क्यों दुर्दांत अमरीक सिंह अपने ही हाथों मारा जाता है, ये जैसे किसी शाप से पीछा छुड़ाने की यातना का आखिरी जायज़ अंत है. अपनी ही क्रूरता का प्रेत.

अरुंधति के उपन्यास के बारे में कहा जा सकता है कि ये बेसिरपैर का है. इसमें भावुकताएं और घिसापिटा तानाबाना है. ये एक तेज़ ड्रामा और थ्रिल वाली मसाला फिल्म है. जिसमें गालियां और सेक्स और उत्तेजना और एक्शन के छींटे हैं. इसमें भाषायी सजगता और गद्य का अनुशासन नहीं है. आख़िरी बातें इतनी जल्दी पूरी कर ली गई हैं मानो लेखिका उकता गई है, ब्यौरों और वर्णनों से और उसका धीरज टूटा है या अंत स्थिरता में नहीं हड़बड़ी का है. ये भी कह देना मुमकिन है कि अरुंधति ने एक “सेक्युलर” नॉवल लिखा है. एक सेट टार्गेट पाठक को ध्यान में रखकर. पश्चिम के पाठक को ध्यान में रखकर इसमें करुणा, अहिंसा, सर्वधर्म सद्भाव, पशु-पक्षी प्रेम और ईसाइयत की प्रचुरताएं जानबूझ कर हैं. ये भी कहा जा सकता है कि ये अरुंधति के अहम का उपन्यास है. इसमें उनका अहंकार बिखरा हुआ है. और ये भी कि कश्मीर पर रिपोर्ताज को नॉवल का हिस्सा बड़ी चतुराई से बनाकर अरुंधति ने एक तीर से दो निशाने या ज़्यादा या न जाने कितने निशाने साधने की कोशिश की है. क्या पुरस्कार भी कोई निशाना है. आदि आदि. उनके उपन्यास की आलोचना में ये कहा गया है कि इसमें बहुत सारे पात्र बहुत सारी आवाज़ें बहुत सारा शोर है. ये फंतासी, यथार्थ और साक्ष्यों का एक घोल सरीखा है. अरुंधति की आलोचना में ये भी कह दिया गया है कि इस उपन्यास पर उनकी निबंध शैली और उनके निबंध तेवरों का प्रभाव है. ये गल्प नहीं है. आलोचनाएं अपनी जगह हैं. निंदाएं भी. एक सही किताब एक सही आलोचना की हकदार है. आक्षेपों की नहीं. आलोचना, जब आक्षेप बन कर आती है तो वो हिसाब बराबर करने जैसा मामला बन जाता है. ठोस आलोचना ऐसी नहीं होती. उसमें जीवंतता और पारदर्शिता होती है. वो लेखक की छानबीन करती है. वो पंक्तियों से और विवरणों से साक्ष्य जुटाती है और औजार जुटाती है. वो सुपठित और व्यापक और तीक्ष्ण होती है. उसे इस उपन्यास की अंजुम की तरह खुरदुरा और नाजुक, सच्चा और साहसी, निर्भय और बेलौस होना होगा. हम आगे बढ़ते हैं.

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में उछाड़ पछाड़ है. औपन्यासिक पैटर्न को रिलीजियसली फॉलो नहीं किया गया है. कुछ आलोचक कहेंगे कि अरुंधति ने सबकुछ समेटने के चक्कर में भाषा और नैरेटिव का संतुलन खो दिया. लेकिन आप ध्यान से नॉवल की रीडिंग लेंगे तो आप जानेंगे कि ऐसा जानबूझकर होने दिया गया है. सेट पैटर्न नहीं है. तोड़फोड़ है. अरुंधति ने अपनी कहानी को पूरी तरह से उसके किरदारों के हवाले कर दिया है. ये एक बहुत बड़ा जोखिम है. उनके हाथ में डोर है तो सही लेकिन उसका लगता है कोई बहुत इस्तेमाल करने की इच्छा उनकी नहीं रही होगी.

उपन्यास ऐसे भी लिखा जा सकता है. अपनी आलोचना कराता हुआ. लेकिन अंदर ही अंदर अपना काम करता हुआ. आलोचना का भी ये कड़ा इम्तहान है. सब्र चाहिए. देखिए कि लेखिका ने आपके लिए जानबूझकर वे सवाल रख छोड़े हैं. क्या मक़सद हो सकता है. क्या चाहती हैं वो. क्या ये पाठ में डूबने का एक विलक्षण और अजीबोग़रीब सा न्यौता है. गहराई का अंदाज़ा लगाना है तो डूबिए. ऊपर से तो नादानियां और कमियां और लूपहोल्स हैं. लेखक ऐसा ‘जाल’ भी बिछाता है! सोचिए. मेहनत और जज़्बे और पाठ का जाल! किसी लेखकीय बाजीगरी का नहीं बल्कि उसे खींच लाने का. कुछ आलोचक इस ‘जाल’ में फंसते हैं और वे लिखते हैं जो आमफ़हम है. लेकिन चुनौती इस ‘जाल’ को हटाने की है. अब सवाल ये है कि आखिर इस ‘जाल’ की ज़रूरत ही क्या है. तो बात यही है जो इस नॉवल ने रचाई है. वो इतनी आसानी से पकड़ में नहीं आना चाहता जबकि है वो इतने ‘मामूली’ लोगों की तफ़्सील. अरुंधति इस लिहाज़ से नटखट हैं.

अरुंधति के नॉवल में ‘हड़बड़ी’ है. एकदम संज्ञा की तरह, जैसी कि वो होती ही है, और वो ज़रूरत से नहीं स्वाभाविक रूप से होती है. बेचैनियां बनाती हैं उसे. कौन ‘संवेदनशील’ नहीं चाहेगा तिलो की तरह उस विशाल विलासी इलीट पारिवारिक जीवन से निकलकर अपनी एक थरथराती ऊब में लौट आने को. ये एक मानवीय हड़बड़ी है. जल्दी से कहीं पहुंच जाने का भी और देर तक वहीं कहीं किसी कुर्सी या किसी कब्र के पास बैठ जाने का भी इंतज़ार है. कथाओं-उपकथाओं-अंतर्कथाओं का कोई छोर नहीं है. वे शुरू एक पेड़ से होती हैं और शहर की रोशनियों पर ख़त्म होती हैं. लेकिन ये भी देखिए कि वे एक स्त्री से शुरू होती हैं और अनेक स्त्रियों तक जाती हैं. पूरा कहना भी जैसे अधूरी बात कहना है क्योंकि कथाएं शहर के नक्शे की तरह हैं. उनके प्रवेश और निकास का किसी को अंदाज़ा नहीं. ख़ुद लेखक की भी जैसे कोई इच्छा नहीं. वो बाज़दफ़ा लापरवाह है, भटकता हुआ, घिसटता हुआ, कहीं न जाने कुछ न बताने की घुप्प चुप्पी से घिरा हुआ. लेकिन वो आगे बढ़ता तो है. वो भी किरदारों की रचाई जा रही करामात में भागीदार है. लेखक के तौर पर ये अरुंधति की कामयाबी है कि उन्होंने किरदारों से अपनी बात नहीं कहलवाई है, वे भुगतते हुए सहमे हुए वंचित लोग हैं, अपनी बात को अपने उखड़े हुए ढंग से कहते हैं. वे ज़बान से भी उखड़े हैं और जगह से भी. कश्मीर की दास्तान में नक्सल बेल्ट की दास्तान घुलमिल जाती है और गुजरात की भी. दिल्ली की भी और दिल्ली में रहने वाले किन्नर समुदाय की भी. ये कई सारी दास्तानों का मानो जंतरमंतर है. आपको खुद की तलाश करनी है और खुद को पाना है. इस तरह क्या अरुंधति ने दो उपन्यास, एक बुकर अवार्ड, एक पटकथा और नॉन फ़िक्शन में राजनैतिक निबंधों की सात तूफ़ानी और उत्पात मचाती किताबें लिखकर, अपने लिए और इस देश के लिए आगामी समयों के नोबेल दावे में जगह बना ली है, कहना मुश्किल है लेकिन ये मानना न दूर की कौड़ी है न अतिरंजना. इंतज़ार करना चाहिए.

इस उपन्यास की एक ओर ख़ूबी है. इसका लचीलापन. पहला अध्याय अनिवार्यतः पहला अध्याय नहीं है. न ही आखिरी अध्याय आखिरी. आख़िरी वाक्य भी जैसे उपन्यास की शुरुआत है. वो पुनर्पाठ की बेकली जगाता है. बीच से आप इस उपन्यास का कोई पन्ना खोले. वहां से कहानी उभरने लगती है. मिसाल के लिए, 438 पृष्ठों वाली किताब का मैं 181वां पेज खोलता हूं और मेरी नज़र एक शीर्षक पर पड़ती है- “नथिंग”- कुछ नहीं. “मैं उन परिष्कृत कहानियों में से कोई कहानी लिखना चाहती हूं जिसमें भले ही बहुत कुछ न होता हो तो भी लिखने को बहुत कुछ रहता है. कश्मीर मे ये नहीं किया जा सकता है. जो वहां होता है, वो सफ़िस्टिकेटड नहीं है. अच्छे साहित्य के सामने बहुत ज़्यादा ख़ून है.” यहीं पर हम एक बार फिर गालियानो को याद कर सकते हैः लातिन अमेरिका की उधड़ी हुई नसों से जिनका गद्य रिसता है. एक बच्ची जो आदमी की देह में एक औरत की तरह बड़ी हो रही है, हो रहा है, हो रही-हो रहा है. पता नहीं कैसे उस वेदना को समझाएंगे जिसे वो आफताब से अंजुम बनी किन्नर ही जानती है जिसकी एक अदम्य चाहत ये है कि वो, “नेल पॉलिश से सजा और चूड़ियों से भरी कलाई वाला हाथ निकाले और मोलभाव करने से पहले, नाज़ुक अंदाज़ में मछली का गलफड़ा उठाकर देखे कि वो कितनी ताज़ा है.” इस उपन्यास में घटनाओं और स्थितियों की बेचारगियों के बावजूद कोई भी किरदार दयनीय नहीं है. वे दया नहीं मांगते. दलित युवक दयाचंद उर्फ़ सद्दाम हुसैन निजी सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड रह चुका है. राष्ट्रीय कला संग्रहालय में इस्पात के एक इंस्टालेशन की एकटक सुरक्षा, और स्टील के चमकते विशाल पेड़ पर सूरज की रोशनी ने उसकी नज़र तबाह कर दी है. उसे रात में भी आंख में दर्द होता है और पानी बहता है लिहाज़ा वो हर वक्त काला चश्मा पहने रहता है. लेकिन काले चश्मे वाला ये हमारा सबसे बिंदास और बहादुर और चपल और चतुर नायक है. सफेद घोड़ी पायल पर सवार होकर वो मानो कोई अघोषित रॉबिनहुड या कोई आदिवासी देवता है. मध्य भारत के जंगलों में भटकती नक्सली कॉमरेड रेवती, बलात्कार की शिकार होकर भी और समूह से अलगाई जाने के बावजूद अंत में बंदूक के साथ ही मरना चाहती है. क्योंकि वही उसका अब सच रह गया है. बलात्कार से पैदा हुई बेटी को जन्म के कुछ समय बाद ही वो जंतरमंतर पर छोड़ आती है. जहां से उसे नाटकीय हालात में जन्नत गेस्ट हाउस में अंजुम मैडम के पास ले आया जाता है. मिस जेबीन द्वितीय का नाम धारण करते हुए, वास्तविकता पता चलने के बाद मिस उदया जेबीन कहलाती है. इंटेलिजेंस ब्यूरो में सरकारी कार्यभार से लस्तपस्त बिप्लब भी आखिरकार अपने से लड़ता है, अपने कमरे में प्रेम और विवशताओं में छटपटाता एकालाप करता है. आखिर में वो भी आगे बढ़ने के लिए कोई दया नहीं, एक ड्रिंक चाहता है. जहांआरा बेगम, जो बेटा चाहती है लेकिन उसकी कोख में आती है एक लड़की जिसकी योनि बंद है. वो भी आफ़ताब से अंजुम तक के सफ़र में कहीं भी आत्मदया से पीड़ित नहीं है. एक ख़ूबसूरत, खुद्दार साहसी बेलाग बिंदास किन्नर के रूप में ख्याति पाती है और एक दिन किन्नरों के प्रसिद्ध ठिकाने को छोड़कर अपना जहां बना लेती है. तिलोत्तमा, प्रेम करती है. सच्चाई का साथ देती है. नाइंसाफ़ी से अपने ही अंदाज़ में टकराती है. आरामदायक जीवन ठुकराती है और कब्रिस्तान के उस घर में शरण लेती है जहां उसे आख़िरकार लगता है कि उसके होने का कोई अर्थ है, उसकी एक आत्मा है और उस दिन वो एक बहुत लंबी रात की गिरफ़्त से मुक्त हुई है. “अपनी ज़िंदगी में पहली बार, तिलो को महसूस हुआ था कि उसकी देह में अपने तमाम अंगों को एकोमोडेट करने के लिए पर्याप्त जगह थी.”

सारे पात्र जैसे अपने अपने युद्ध के लिए तैयार हैं. इस तरह ये नायकीय किरदारों का नॉवल है. अरुंधति से सीखना चाहिए कि स्त्री अधिकारों की सच्ची पुकार किसे कहते हैं. इसके लिए आपको उत्तर-नारीवादी नारों की आड़ में जाने की ज़रूरत नहीं है. आपको बस अपना जीवन देखना और जीना आना चाहिए. मुक्ति के मायने समझाने वाला नॉवल ये है. वो कैसे एक अमिट इच्छा बन जाती है. एक नया निशान. जहां ट्रांसजेंडर औरतों या हिजड़ों का उत्पाती या जघन्य ‘स्त्रीत्व’, जैविक वास्तविक औरतों के स्त्रीत्व से कमतर नहीं. उपन्यास में कुल 12 अध्याय हैं. द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस नाम से दसवां अध्याय है. अध्याय से पहले, नादेज़्दा मंदलस्ताम का एक कोट आता हैः “फिर मौसम बदलने लगे. ‘ये भी एक सफ़र है, एम ने कहा, ‘और वे इसे हमसे छीन नहीं सकते हैं.’

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस, एक लगातार बनी हुई सिहरन है. या तो आप इश्क में कांपते हैं या ख़ौफ़ में या हमले में या अपना सच खोज लेने में या शांति पा लेने में या फिर नयी दुनिया बसा लेने की उम्मीद में. एमओयूएच, धकियाए गये खदेड़े गये लौटाए गये मारे गये सताए गये समुदायों में एक उम्मीद की कामना है. वे चीखते नहीं है चिल्लाते नहीं है रोकर बिखर नहीं जाते हैं. उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता है. वे फिर जमा हो जाते हैं. वे आंतरिक एकजुटता के माहिर लोग हैं. मिट्टी के लाल. उन्हें एक सुंदर सहज जीवन की एक साधारण सी आकांक्षा हैं. उनकी दास्तानें हमें जख़्मी भी करती है. दिल पर एक भारी पत्थर बजता रहता है. धम धम. धम धम. किन्नर जीवन, दंगे, मुसलमानों पर हमले, जंतरमंतर से लेकर मध्य भारत के जंगलों के आंदोलनों तक की तपिश, आग और हिंसा, नफ़रत, विभाजन, प्रेम और त्रासदियां. ख़ुशी जैसे एक औजार भी है और आगामी लड़ाइयों के लिए एक हथियार भी. वो एक वासना नहीं है. वो चाहत है लेकिन उसमें एक निरर्थक खोखला नकली आशावाद नहीं है. वो एक बहुत दुर्लभ उम्मीद है जो उलटा आशावाद से आगाह ही कराती है. इस उम्मीद को नॉवल में दो महत्त्वपूर्ण उल्लेखों से समझ सकते हैं. आखिरी पेज में रात की रोशनियों में शहर घुमाने अंजुम, मिस जेबीन द्वितीय यानी मिस उदया जेबीन को ले जाती है, एक जगह उदया कहती है उसे सूसू लगी है. वो सड़क किनारे पेशाब कर खड़ी होती है तो उसके पेशाब के छोटे से तालाब में तारे और एक हज़ार साल पुराना शहर दमकने लगता है. नॉवल का एक्टिविस्ट और सरकार सेना गठजोड़ की फ़ाइलों में आतंकी मूसा, अलविदा कहने से पहले अपने पूर्व सहपाठी और आलोचक और पूर्व इंटेलिजेंस अधिकारी बिप्लब को संबोधित हैः “एक रोज़ कश्मीर, भारत को आत्मविनाश पर विवश कर देगा. तुम हमें तबाह नहीं कर रहे हो हमें निर्मित कर रहे हो. तुम खुद को तबाह कर रहे हो.” जब वो धीरे धीरे मद्धम नीची आवाज़ में लेकिन पूरी गहराई और सघनता के साथ ये बात कहता है तो एक सिहरन दौड़ जाती है, फिर फ़्रायड का विख्यात कथन ख़्याल में आता हैः डि श्टिमे डेर फ़ेरनुन्फ्ट इस्ट लाइज़े, आबर ज़ी रूह्ट निश्ट एहे ज़ी सिश गेह्योर फरशाफ्ट हाट. (The voice of Reason is low, but it does not rest until it is heard.)

और आख़िर में एक शेर. ये जैसे नॉवल में बिखरे हुए कल्पनातीत आशावाद का झंडा थामे हुए है. ये हमारी अभिजात नरमदिली और भौतिक और बौद्धिक नफ़ासत और भद्रता को जैसे डंक मारता है. मिट जाने की गरिमा के सामने किसी तरह जिए जाने की फजीहत की पोल खोलता है. ये अपना मखौल उड़ाता है. ये एक निर्भीक देसीपना है. डॉ आज़ाद भारतीय ने जेल में पुलिस पूछताछ के दौरान ये शेर सुना दिया था. और हर सवाल और हर पिटाई के जवाब में वो यही शेर कहते गए. उनसे सीखकर बाद में तिलोत्तमा ने अपने प्रेमी मूसा को जन्नत गेस्ट हाउस में ये शेर उस रात सुनाया था जिसके बाद उन्हें फिर कभी नहीं मिलना थाः

“मर गई बुलबुल कफ़स में/ कह गई सय्याद से/ अपनी सुनहरी गांड में/ तू ठूंस ले फस्ले-बहार”
***

समयांतरसे साभार

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन

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भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।

जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, शायद उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। `समाज संशोधन` के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, वहां यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले `Age of Consent Bill` के आने पर महाराष्ट्र में `ऊंची जातियों` की ओर से तीखी प्रतिक्रिया की गई। यही नहीं लमाज सुधार की संस्था सोशल कॉन्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया। संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवादस और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी कुछ उदीयमान द्विज जातियों और मध्य जातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम` विरोध या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें `आन्दोलन` की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने `गौ रक्षा `और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और `जागरण` सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से मुंशी प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिए उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।

भाषा के मसले पर फिरक़ापरस्ती से लगातार लड़ने और हथियार न डालने का एक खास सामाजिक अर्थ था। अगर जातीय गठन के प्रश्न को प्रेमचन्द ज्यादा बुनियादी ढंग से पेश कर पाते हैं और अपनी रचनाओं में हिन्दुस्तानियत की ज्यादा मजबूत और ज़रख़ेज़ बुनियाद पर खड़े दिखाई देते हैं तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने यथार्थ को विभाजन की बाधा के अंदर से नहीं देखा। `हिन्दू`, `मुसलमान` की अपवर्जी और बंद श्रेणियों या मिथक कल्पनाओं की मदद लिए बिना उन्होंने अपने समय के ठोस यथार्थ को, उसके ठोसपन में समझने और अपना रुख तय करने की कोशिश की। धर्म-संस्कृति की राजनीति के पाखंड को वे अच्छी तरह जानते थे, और उसकी छद्म गरिमा का कोई दबाव उन पर नहीं था। साम्प्रदायिकता किस तरह `संस्कृति` और `राष्ट्रवाद` की खाल ओढ़ कर सामने आती है और किस तरह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन को विफल करना चाहती है, यह वे खूब समझते थे।

साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के लिए इस अचूक और निर्भ्रांत नज़र के चलते ही प्रेमचन्द के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी अन्तर्वस्तु इतनी सघन है। क्योंकि नवजागरण काल में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की राजनीति के उभार का एक अहम लक्ष्य ठीक इसी अन्तर्वस्तु को कमज़ोर करने का रहा है। इस तथ्य का भी इस चीज़ से ज़रूर एक रिश्ता है कि हिन्दी नवजागरण में प्रेमचनंद यथार्थवाद के सबसे बड़े आविष्कारक और प्रतिष्ठापक हैं। हिन्दुस्तान के देहात के अनेक ग़रीब चेहरे अपनी अनगिनत कहानियों के साथ पहली बार हिन्दी में प्रेमचन्द के ज़रिए ही दाख़िल हुए।

19वीं-20वीं सदी के हिन्दी नवजागरण में (निराला जैसे कुछ अपवादों को छोड़ कर) दलित प्रश्नों की शायद ही कोई जगह बन पाई। यह प्रेमचन्द की उदार जनतंत्रात्मकता का ही एक पहलू था कि वे जाति व्यवस्था की अतार्किता और बर्बरता को और इस में निहित झूठ, मक्कारी, फरेब और हरामखोरी को इतने निर्णायक और विस्तृत ढंग से सामने लाये। इसकी अमनुष्यता के खिलाफ लड़ना उन्हें हमेशा जरूरी लगा। उन्होंने साम्प्रदायिकता और जातिवाद के रिश्ते को ठीक-ठीक समझ लिया था। वे जानते थे कि धार्मिक पहचान को आक्रामकता देकर दलितों और स्त्रियों की अभिव्यक्तियों और प्रश्नों को आसानी से कुचला जा सकता है।

हालांकि, भारतेन्दुयुग में ही कई लेखकों ने जातपात की व्यवस्था में आ गई संकीर्णता और परजीविता की आलोचना की थी। लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य `जाति सुधार` का था। `जाति सुधार` का परिप्रेक्ष्य अन्तत: जाति के सुदृढ़ीकरण का ही परिप्रेक्ष्य था। इसमें जातिव्यवस्था के उत्पीड़क और विभेदकारी वर्चस्ववादी चरित्र को नहीं समझा गया।

प्रेमचन्द ने संस्कृति के प्रश्नों को अर्थनीति के प्रश्नों से कभी अलग नहीं किया। न ही उन्होंने आर्थिक या वर्गीय प्रश्नों को सामाजिक-वैचारिक प्रश्नों से अलग किया। यानी प्रेमचन्द न संस्कृतिवाद का सहारा लेते हैं और न अमूर्त अर्थवाद का।

हिन्दी नवजागरण में और उससे भी कहीं ज्यादा उसकी विरुद कथा में लोकवाद की मिथकीय उपस्थिति की एक बड़ी भूमिका रही है। प्रेमचन्द साधारण जनता और खास तौर पर किसानों के लेखक कहे जाते हैं। गांधी का उन पर गहरा असर था। आधुनिक पूंजीवाद को वे गहरे संशय से देखते थे। लेकिन वे किसानों के लोकवाद से संचालित नहीं थे बल्कि शहरी-देहाती गरीबों के जनवादी हितों की नज़र से ही यथार्थ को देखते थे। उन्होंने किसान का या गांव का कोई रहस्यमय मिथक नहीं बनाया जिसकी आड़ लेकर निरंकुश सामाजिक संरचनाओं की पर्दापोशी की जाती है। देहात के ऐसे लोकवादी मिथक को तोड़ कर उन्होंने इसके पीछे चल रहे शोषण और दमन के वर्चस्ववादी सामाजिक-आर्थिक-विचारधारात्मक तंत्र की निष्ठुरता और निरंकुशता को बेपर्दा किया।

हिन्दी नवजागरण का समतलीकरण करते हुए अक्सर यह भुला दिया जाता है कि रामचंद्र शुक्ल के `लोकमंगल` और प्रेमचंद की नज़र में बुनियादी अंतर है। प्रेमचंद का लोक शुक्ल जी के लोक की तरह `उदार निरंकुशतंत्र` का कोई आदर्श नमूना या कोई ख़याल या रूपक भर नहीं है जिसमें वर्चस्व की प्रणाली को चुनौती देना धर्मद्रोह समझा जाय। वह तो ठोस सामाजिक शक्तियों के हितों के पारस्परिक संघर्ष से आंदोलित (और उसी से परिभाषित) एक उपद्रवग्रस्त रणक्षेत्र है जिसमें आर्थिक सामाजिक न्याय के ज्वलंत प्रश्नों की केन्द्रीयता हमेशा बनी रहती है। प्रेमचन्द की सतत चिन्ता वंचित तबकों के हक़ में सामाजिक रूपांतरण की है, जब कि शुक्ल जी का `लोकधर्म` एक ऐसी `ऑथोरिटी` की खोज है, जो `लोकरक्षा` कर सके यानी बाहर और अन्दर से बार-बार चुनौती पाने वाली सामाजिक अनुशासन की `आदर्श` व्यवस्था को मजबूती से लागू कर सके और `छोटे-बड़े` की मर्यादाओं (`शिष्टाचार` और `शील`) की प्रतिष्ठा कर सके। जबकि प्रेमचन्द अपनी दुनिया में बराबरी के मूल्य को केन्द्रीयता देना चाहते हैं।

उसी बनारस से प्रेमचन्द का भी ताल्लुक था जिससे कभी भारतेन्दु का या प्रेमचन्द के समकालीन रामचन्द्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद का। लेकिन यह देखना मुश्किल नहीं है कि प्रेमचन्द के बनारस और जयशंकर प्रसाद की `काशी` में कुछ न कुछ अन्तर ज़रूर है। प्रेमचन्द का बनारस `संस्कृति का कलश` नहीं है। प्राच्यवादियों की मिथक कल्पना के जादू के बाहर यह गरीब हिन्दू-मुसलमान छोटे काश्तकारों, कारीगरों, जुलाहों और दूसरे किरदारों से भरा पड़ा है।

नवजागरण की प्रक्रिया सारत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया थी। और यह उर्दू-हिन्दी के समग्र आधुनिक लेखन में किसी न किसी रूप में घटित हुई। इसे प्रेमचंद में ही नहीं दूसरे नवजागरणकालीन लेखकों में भी किसी न किसी तरह लक्षित किया जा सकता है। लेकिन प्रेमचंद हिन्दी नवजागरण की आत्मबाधा के फन्दे में नहीं फंसे। वे शायद ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वे अलग जगह खड़े थे। वे अन्दर से विभक्त कर दी गई वृहत्तर हिन्दी जाति के प्रतिनिधि रचनाकार थे और इसी जगह से जातीय गठन के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, ज्यादा बुनियादी ढंग से। उन्होंने वास्तविकता को हिन्दी जाति के वर्चस्वशील सामाजिक अभिजनों की गतिशीलता के लक्ष्यों की नज़र से नहीं, इस जाति के बाहर पड़े वंचित तबकों और गरीबों के हितों की नज़र से देखा और इस जगह को कभी छोड़ा नहीं।

हिन्दी नवजागरण (या हिन्दी-उर्दू नवजागरण में) प्रेमचंद का विकासक्रम संभवत: सबसे अधिक सुसंगत और सतत है। उसमें लगातार एक निख़ार है। 1907 के प्रेमचंद, 1917-18 या 1922-24 के प्रेमचंद और 1934-36 के प्रेमचंद एक नहीं हैं। भावुक देश प्रेम, आर्य समाज की सुधार भावना, गांधीवादी करुणा की तमाम गलियों से गुजरते हुए भी वे लगातार एक समतामूलक न्यायसंगत समाज की रचना के स्वप्न में संचालित थे। और अंत में एक कठिन जगह पहुंच चुके थे जहां बिना किसी झूठी मदद, आसानी या सदाशयता के यथार्थ का बीहड़ और उलझा हुआ भू-दृश्य पूरा दिखाई देता है। अगर ऐसा न होता तो `कफ़न` या `पूस की रात` जैसी कहानियां न लिखी जातीं।

ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद आखिरी मंज़िल पर पहुंच चुके थे। बल्कि 1936 में जिस नए मोड़ पर वे खड़े थे वह एक नई शुरुआत जैसा लगता है। लैंगिक प्रश्नों पर उनके परिप्रेक्ष्य में पितृसत्तात्मक चेतना के दबाव किसी न किसी तरह आखिर तक दिखाई देते हैं। `गोदान` में भी स्त्रियों के बराबर के राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न पर वे असमंजस में हैं और स्त्रियों की नागरिक छवि की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं सके हैं।

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद कुछ-कुछ उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह मध्यकालीन भक्ति आंन्दोलन में कबीर मौजूद हैं। हिन्दी नवजागरण के सनातनवादी आख्यान में उन्हें जिस तरह एक `देवमंडल` का हिस्सा बना कर शामिल कर लिया गया है, इससे यक़ीनन उनकी अपनी ख़ास जगह खो गई है।
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मनमोहन



(यह लेख 1995 में लिखा गया था और 2006 में `सहमत-मुक्तनाद` में प्रकाशित हुआ था।)

माणिक सरकार का भाषण जिसका प्रसारण `बैन` कर दिया गया

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प्यारे त्रिपुराबासी,

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप सब को मुबारकबाद और शुभकामनाएं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की महान स्मृति को मेरी श्रद्धांजलि। हमारे बीच मौजूद स्वतंत्रता सेनानियों को भी मैं अगाध सम्मान प्रकट करता हूँ।

स्वतंत्रता दिवस समारोह सिर्फ रस्मी मौका नहीं है। इसके ऐतिहासिक महत्व और इस के साथ हिन्दुस्तानियों के गहरे भावनात्मक जुड़ाव के मद्देनज़र इसे राष्ट्रीय आत्मविश्लेषण के लिए एक विशेष आनुष्ठानिक अवसर के रूप में लेना होगा।

इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे सामने बहुत सारे प्रासंगिक, ज़रूरी और सामयिक मुद्दे हैं।

`अनेकता में एकता` हिन्दुस्तान की पारंपरिक विरासत है। सेक्युलरिज़्म के महान मूल्यों ने हिन्दुस्तानियों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रखा है। लेकिन, आज सेक्युलरिज्म की इस भावना पर हमले हो रहे हैं। हमारे समाज में अवांछित जटिलता व फूट पैदा करने, धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर हमारी राष्ट्रीय चेतना पर हमला करने और हिन्दुस्तान को खास धार्मिक देश में तब्दील करने के लिए गौरक्षा के नाम पर उन्माद भड़काने की साजिशें-कोशिशें जारी हैं। इन सब वजहों से अल्पसंख्यक और दलित समुदायों के लोग गंभीर हमले की जद में हैं। उनकी खुद को सुरक्षित महसूस कर पाने की भावना को ध्वस्त किया जा रहा है। उनका जीवन ख़तरे में है। इन नापाक प्रवृत्तियों को बने रहने नहीं दिया जा सकता है। ये नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हैं। ये विध्वंसकारी प्रयास हमारे स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों, सपनों और लक्ष्यों के प्रतिकूल हैं। जो आज़ादी के आंदोलन के साथ जुड़े हुए नहीं थे बल्कि जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन से प्रतिघात किया था, जो जालिम लुटेरे बेरहम अंग्रेजों के ताबेदार थे, उनके अनुयायी राष्ट्रविरोधी शक्तियों के साथ गठजोड़ करके खुद को विभिन्न नामों-रंगों से सजा कर भारत की एकता-अखंडता की जड़ों पर चोट पहुंचा रहे हैं। आज हर वफ़ादार-देशभक्त भारतीय को `संगठित भारत` के आदर्श के प्रति प्रतिबद्ध रहने और इन विभाजनकारी साजिशों व हमलों का सामना करने का संकल्प लेना होगा। हम सब को अल्पसंख्यकों, दलितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए मिलकर संघर्ष करना होगा।

आज साधनसंपन्न और वंचितों के बीच की खाई तेजी से चौड़ी होती जा रही है। राष्ट्र के अथाह संसाधन और सम्पदा मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमटती जा रही है। जनता का विशाल हिस्सा ग़रीबी की मार झेल रहा है। ये लोग अमानवीय शोषण के शिकार हैं। इन्हें भोजन, छत के साये, कपड़ों, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और निश्चित आय के लिए जरूरी रोजगार सुरक्षा से वंचित किया जा रहा है। यह हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के लक्ष्यों-उद्देश्यों के प्रतिकूल है। यह हाल पूरी तरह से हमारी मौजूदा राष्ट्रीय नीतियों की वजह से है। ऐसी जनविरोधी नीतियों को पलटना होगा। लेकिन यह कोरे शब्दों से संभव नहीं है। वंचित-शोषित हिन्दुस्तानियों को उठ खड़ा होना होगा, उन्हें आवाज़ उठानी होगी, निडर व संगठित होकर अनवरत प्रतिरोध करना होगा। हमें एक वैकल्पिक नीति की दरकार है जो हिन्दुस्तानियों के विशाल बहुमत के हितों की पूर्ति करती हो। इस वैकल्पिक नीति को हक़ीकत में तब्दील करने के लिए वंचित-शोषित हिन्दुस्तानियों को इस स्वतंत्रता दिवस पर संगठित होकर एक व्यापक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आंदोलन खड़ा करने का संकल्प लेना होगा।

बेरोजगारी की विकराल होती समस्या ने हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में अवसाद और निराशा की भावना पैदा कर दी है। एक तरफ लाखों नौकरीपेशा लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो रहे हैं, दूसरी तरफ करोड़ों बेरोजगार नौकरी की बाट जोह रहे हैं जो मृग मरीचिका के सिवा कुछ नहीं है। मुनाफाखोर कॉरपोरेट्स के छोटे से समूह को मजबूती देने का काम करने वाली राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को पलटे बिना और आम हिन्दुस्तानियों की क्रय शक्ति बढ़ाए बिना इस विशालकाय राष्ट्रीय समस्या का हल सम्भव नहीं है। इसिलए, इन विध्वंसकारी नीतियों को पलटने के लिए विद्यार्थियों, नौजवानों और कर्मचारियों को इस स्वतंत्रता दिवस पर एक संगठित और सतत आंदोलन खड़ा करने का अहद उठाना होगा।

केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के बरक्स त्रिपुरा की राज्य सरकार ने अपनी सीमाओं के बावजूद जीवन से जुड़ी सभी जरूरतों के लिहाज से जनकल्याणकारी नीतियों को जारी रखा है। दबे-कुचले तबकों पर विशेष फोकस किया गया है। हमें उनके सहयोग से आगे बढ़ना है। यह पूरी तरह अलग और एक वैकल्पिक राह है। इस रास्ते ने न केवल त्रिपुरा के लोगों को आकर्षित किया है बल्कि मुल्क के दबे-कुचले लोगों का भी सकारात्मक रुख हासिल किया है। त्रिपुरा में प्रतिक्रियावादी ताकतों को यह बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, राज्य के अमन, भाईचारे और अखंडता को तोड़ने के लिए जनशत्रु एक के बाद एक साजिशें रच रहे हैं। विकास कार्यों को तहस-नहस करने की कोशिशें भी जारी हैं। हमें इन नापाक मंसूबों का प्रतिकार करना होगा, प्रतिक्रियावादी शक्तियों को अलग-थलग करना होगा। इसके मद्देनज़र, इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी बेहतर ढंग से सोचने वाले, शांतिप्रिय और विकास की चाह रखने वाले लोगों को इन विध्वंसकारी शक्तियों के खिलाफ आगे आने और मिलकर काम करने का दृढ़ संकल्प लेना होगा।
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(सीपीआईएम की ओर से मीडिया को जारी किए गए `भाषण` का अंग्रेजी से अनुवाद)

त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के मुताबिक, 12 अगस्त, 2017 को दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रसारण के लिए उनके भाषण की रिकॉर्डिंग की थी। 14 अगस्त, 2017 को इस भाषण के प्रसारण में असमर्थता जताते हुए इसे बदलने के लिए कहा गया जिससे उन्होंने इंकार कर दिया। इस बारे में उन्हें जो मेल भेजा गया, उसमें `शुचिता`, `गंभीरता` और `भारत के लोगों की भावनाओं` के लिहाज से भाषण को अवसरानुकूल बनाने की मांग की गई थी। ऑल इंडिया रेडियो के `हेड ऑफ प्रोग्राम` की तरफ से भेजे गए इस मेल के साथ `Assistant Director of Programmes (Policy) for Director General AIR` का पत्र संलग्न था। पत्र में सीईओ प्रसार भारती और दिल्ली में लिए गए सुझावों का भी हवाला दिया गया था। इस फैसले को लेकर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार पर तानाशाही और सेंसरशिप का आरोप लगाया जा रहा है।

रामचंद्र छत्रपति : पब्लिक इंटेलक्चुअल जर्नलिस्ट एक्टिविस्ट

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रामचंद्र छत्रपति : एक रोशन मशाल
`सचऔर झूठ के बीच कोई तीसरी चीज़ नहीं होती और मैं सच के साथ हूँ।`` मैं अपनीबात पत्रकार रामचंद्र छत्रपति के अखबार ``पूरा सच`` के इस मोटो से शुरुकरना चाहता था पर अचानक रामचंद्र छत्रपति पर लिखे गए एक अन्य लेख पर नज़रपड़ी जिसकी शुरुआत इसी पंक्ति से थी तो लगा कि अब यह नकल करने वाली बातहोगी। लेकिन इस पंक्ति को छोड़कर आगे बढ़ पाना संभव नहीं हो सका। ``बीच कारास्ता नहीं होता`` - यह पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की मशहूर पंक्ति हैजो उनके एक काव्य संग्रह का भी नाम है। क्या यह मात्र संयोग है कि रास्ताचुनने को लेकर दोनों के बीच ऐसी स्पष्टता थी और दोनों को ही गोलियों कासामना करते हुए शहीद होना पड़ा?पाश की हत्या भी धर्म के नाम पर खालिस्तानकी मांग के समर्थक आतंकवादियों ने कर दी थी तो छत्रपति को ``डेरा सच्चासौदा` के नाम पर धर्म की आड़ में आतंक का पर्याय बने गुरमीत राम रहीम केगुर्गों ने मार दिया था। फिलहाल गुरमीत अपने डेरे की साध्वियों के साथ रेपके अपराध में जेल पहुंच चुका है और उस पर हत्या के मामलों में फैसला आनाबाकी है। इसके बावजूद यह अपराधी और उसका डेरा अभी भी ताकतवर है तो समझ सकतेहैं कि उस समय तो उसकी कारगुजारियों को लेकर मुंह खोलने का साहस प्राय:किसी में नहीं था।
यहबात साफ करता चलूं कि छत्रपति की महान शहादत को उनके महिमामंडन का जरिया नमान लिया जाए। उनका व्यक्तित्व और सचाई के प्रति उनकी ज़िद उनकी हत्या कीगारंटी की तरह जरूर थी पर यह हादसा पेश नहीं आता तो भी वे इसी सम्मान सेलिखे जाने के हकदार थे। यह जरूर है कि हम उन्हें उनकी शहादत की वजह से हीजान पाए। डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम का फैसला रोकने के लिएजिस तरह कोर्ट पर दबाव बनाया गया और जिसके लिए कोर्ट ने हरियाणा केमुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व उनकी सरकार को फटकार भी लगाई, उससे भगवानहोने का स्वांग रचने वाले इस अपराधी की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।यहां तक कि इस फेर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पर कोर्ट ने तीखीटिप्पणी की। गुरमीत को जैसे ही पंचकूला की सीबीआई कोर्ट ने साध्वियों केयौन शोषण का दोषी करार दिया, प्रदेश सरकार का संरक्षण पाकर इकट्ठा हुए कथितश्रद्धालुओं ने हिंसा और आगजनी शुरु कर दी। इस उपद्रव में पंचकूला व दूसरीकई जगहों पर निजी और सरकारी संपत्तियों के भारी नुकसान के साथ 36 लोगों कीमौत हुई। गुरमीत राम-रहीम और उसके अनुयायियों की तरह उसके जलवे को जाननेवाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह अविश्वसनीय था कि धर्म का कवच पहने बैठे इसअपराधी को इस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इस संघर्ष में अडिग रही दोनोंसाध्वियों, सीबीआई के ईमानदार अधिकारियों, जज जगदीप सिंह सहित जिन कुछलोगों की प्रतिबद्धता की वजह से यह संभव हो सका, उनमें एक नाम पत्रकाररामचंद्र छत्रपति का भी है।
छत्रपतिउसी सिरसा शहर के रहने वाले थे जहां `डेरा सच्चा सौदा` का मुख्यालय है।छत्रपति सांध्य दैनिक `पूरा सच` निकालते थे। 1948 में शाह मस्ताना द्वाराशुरु किए गए `डेरा सच्चा सौदा` की गद्दी 1990 में गुरमीत सिंह ने हासिल करली थी और उसने अपने नाम के साथ राम रहीम भी जोड़ लिया था। 1998 में डेरे कीजीप से कुचले गए बेगू गांव के एक बच्चे की मौत को लेकर हुए विवाद की खबरसिरसा के एक सांध्य दैनिक `रमा टाइम्स` ने छाप दी थी तो डेरे के अनुयायियोंने अखबार के दफ्तर पर जाकर पत्रकार विश्वजीत शर्मा को धमकी दी थी। तबपत्रकारों की एकजुटता के सामने डेरा प्रबंधन को लिखित माफी मांगनी पड़ी थीलेकिन देखते-देखते यह तय हो गया था कि डेरे की अनियमितताओं, अराजकता औरभयंकर करतूतों के बारे में मुंह खोलना मौत को दावत देना है। 30 मई 2002 कोछत्रपति ने अपने अखबार में डेरे की साध्वी की उस चिट्ठी को प्रकाशित कियाथा जिससे डेरे में साध्वियों के यौन शोषण की जानकारी पहली बार सार्वजनिकतौर पर दर्ज होकर लोगों में फैल गई थी। चिट्ठी बेनामी थी जो तत्कालीनप्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायलय को भेजीगई थी। शायद यह अखबारों के दफ्तरों में भी पहुंची थी पर इसे जगह `पूरा सच` में ही मिल सकी थी। दरअसल 30 मई को सिरसा के रोडी बाजार में डेरे के एक कारड्राइवर की एक पुलिस अधिकारी से झड़प हो गई थी। पुलिस अधिकारी ने डेरे कीसाध्वी की ओर से लिखी गई चिट्ठी का जिक्र आम लोगों के बीच कर दिया था।छत्रपति ने अपने अखबार में एक खबर ``कार चालक के हठ ने खोल दिया धार्मिकडेरे का कच्चा चिट्ठा`` शीर्षक से प्रकाशित की थी और ``धर्म के नाम पर किएजा रहे साध्वियों के जीवन बर्बाद`` शीर्षक से बॉक्स में उस चिट्ठी के मजमूनका खुलासा किया था। इस खबर के छपते ही डेरा प्रमुख बौखला उठा था।
डेरेकी ओर से फोन कर छत्रपति को धमकियां दी गईं। बौखला गए डेरे ने एक के बादएक गुंडागर्दी की कई घटनाओं का अंजाम दिया। साध्वी की उस अनाम चिट्ठी कीकिसी ने फोटोस्टेट प्रतियां रोडी बाजार में बांट दी थीं। डेरे के गुंडों नेएक चाय विक्रेता प्यारे लाल सेठी को उठाकर प्रताड़ित किया। इस चिट्ठी कीचर्चा को लेकर रतिया में भी फोटोस्टेट की दुकान चलाने वाले दो लोगों परहमले से हंगामा खड़ा हुआ। पत्रकार आरके सेठी ने फतेहाबाद से निकलने वालेअपने सांध्य दैनिक `लेखा-जोखा` में 7 जून को चिट्ठी के बारे में जांच कीमांग को लेकर खबर छापी तो उसी दिन इस अखबार के दफ्तर पर हमला कर दिया गया।पहले तो पुलिस ने डेरे के चार अनुयायियों का गिरफ्तार कर लिया पर बाद मेंडेरे के अनुयायियों की भीड़ के दबाव में संपादक सेठी को ही गिरफ्तार करलिया। छत्रपति ने 7 जून को ही इस गुंडागर्दी के खिलाफ भी विस्तार से खबरछापी। इसी चिट्ठी के सिलसिले में डेरे से जुड़े लोगों ने 27 जून को डबवालीमें एक वकील से बदतमीजी की और उनके चैम्बर का ताला तोड़ने की कोशिश की। `पूरा सच` ने डेरे के इस उपद्रव की खबर भी छापी। डबवाली में ही 14 जुलाई कोडेरे के लोगों ने एक स्कूल में चल रही तर्कशीलों की बैठक पर हमला करमारपीट की। डेरे को शक था कि तर्कशीलों की बैठक में साध्वी की चिट्ठी कोलेकर कोई योजना बनाई जा रही थी। इस गुंडागर्दी को लेकर भी छत्रपति नेतथ्यों के साथ समाचार प्रकाशित किया। आखिरकार डेरे के प्रतिनिधिमंडल नेसिरसा के उपायुक्त से मिलकर मांग की कि `पूरा सच` अखबार में डेरे से जुड़ीखबरों के प्रकाशन पर रोक लगाई जाए।
इसबीच 20 जुलाई को `डेरा सच्चा सौदा` की प्रबंधन समिति के सदस्य रहेकुरुक्षेत्र के रणजीत सिंह की हत्या कर दी गई। रणजीत सिंह और उनकी साध्वीबहन डेरे से निकल गए थे। माना जाता है कि डेरा प्रमुख को शक था कि चिट्ठीरणजीत सिंह ने ही लिखवाई थी और उसी ने चिट्ठी व डेरे से जुड़ी जानकारियांरामचंद्र छत्रपति को दी हैं। इसी साल 2002 में 24 सितंबर को हाई कोर्ट नेसाध्वियों के यौन शोषण से जुड़ी बेनामी चिट्ठी का संज्ञान लेते हुए डेरे कीसीबीआई जांच के आदेश दिए। 24 अक्तूबर 2002 को रामचन्द्र छत्रपति को घर सेबाहर बुलाकर पांच गोलियां मारी गईं। दो हमलावरों को मौके पर ही पकड़ लियागया। ``पूरा सच`` के मुताबिक, हमलावरों को डेरा प्रमुख के आदेश पर डेराप्रबंधक किशन लाल ने भेजा था। बुरी तरह घायल छत्रपति ने 21 नवंबर 2002 कोदिल्ली के अपोलो अस्पताल में दम तोड़ दिया था।

गौरतलबहै कि उस दौरान हरियाणा में इनेलो-बीजेपी गठबंधन की सरकार थी और केंद्रमें बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। डेरे का मुख्यालय सिरसातत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का भी गृह जिला है और उनके पितापूर्व उप प्रधानमंत्री चौ. देवीलाल के जमाने से ही यहां इस परिवार का भीप्रभाव रहा है। चौटाला ने छत्रपति के परिवार को इंसाफ दिलाने का वादा कियाथा जिस पर वह कायम नहीं रह सके। मुख्यमंत्री ने इस मामले की सीबीआई जांच कीसंस्तुति के अनुरोध को भी अनसुना कर दिया। इस बारे में सिरसा में तमाम तरहकी चर्चाएं रही हैं। पीड़ित परिवार का कहना था कि पुलिस उनकी मदद करने केबजाय आरोपी को बचाने की कोशिश कर रही है। प्रदेश और केंद्र सरकारों केरवैये से निराश होकर रामचंद्र छत्रपति के पुत्र अंशुल छत्रपति ने जनवरी 2003 में हाई कोर्ट में याचिका दायर कर डेरा प्रमुख गुरमीत सिंह राम रहीमपर हत्या का आरोप लगाते हुए इस केस की सीबीआई से जांच कराने का अनुरोधकिया। रणजीत सिंह के पिता भी बेटे की हत्या की सीबीआई जांच की मांग लेकरहाई कोर्ट पहुंचे थे। हाई कोर्ट ने हत्या के दोनों मामलों में सीबीआई जांचशुरु करा दी।

साध्वियोंके यौन शोषण के केस में गुरमीत उर्फ राम-रहीम अदालत के फैसले से जेल पहुंचचुका है। उम्मीद की जानी चाहिए कि छत्रपति की हत्या समेत दूसरे मामलों मेंभी अदालत गुरमीत को सजा सुनाएगी। एक अपराजेय लगने वाली अन्यायी शक्ति सेलोहा लेते हुए रामचंद्र छत्रपति शहीद हुए थे तो राष्ट्रीय मीडिया ने खबर कोसमुचित सम्मान नहीं दिया था। इन दिनों अपराजेय सी मानी जा रही बीजेपी कीसत्ता की गोद में बैठे होने के बावजूद राम-रहीम को जेल जाना पड़ा तोराष्ट्रीय मीडिया को रामचंद्र छत्रपति की शहादत की याद आ रही है। हालांकि, छत्रपति की हत्या को जनता ने खामोशी से नहीं गुजर जाने दिया था। उनकी हत्याके विरोध में सिरसा अभूतपूर्व रूप से बंद रहा था। छत्रपति की अंतिम यात्रामें शामिल होने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी। छोटा सा स्थानीय सांध्य अखबारचलाने वाले शख्स के लिए जितनी जनता उमड़ी थी, सिरसा में कभी भी उतनी जनताकिसी प्रभावी से प्रभावी शख्स की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हुई थी। इसकीवजह सिर्फ यह नहीं थी कि मर्डर में स्वयंभू `भगवान` का हाथ होने से यह केसबेहद चर्चा में आ चुका था। दरअसल, छत्रपति उस शहर के आम लोगों के लिए बंदकोठरी में रोशनी की तरह थे। यह आम शोहरत थी कि जिसकी सुनने वाला कोई नहींहै, उसकी सुनने के लिए छत्रपति है। मार खाए सताए गरीब-गुरबा ही नहीं, शहरीमध्य वर्ग या संपन्न वर्ग भी जानता था कि वह अपने से ज्यादा ताकत वालों कीटेढ़ी नज़र का शिकार हो तो उसकी बात को छापने का साहस सिर्फ और सिर्फ `पूरासच` में है। यह एक लोकप्रिय पत्रकार के लिए शोकाकुल जनसमूह था। बेशक, इसमें ऐसा तबका भी था जो डेरे के उत्पीड़न का शिकार था या समाज में उसकेआतंक को पसंद नहीं करता था। इस पत्रकार-एक्टिविस्ट की मृत्यु ने भी उनकीखबरों की तरह यह यह संदेश दिया था कि किसी भी आततायी सत्ता के सामने समर्पणके बजाय मुखर होना एकमात्र रास्ता है और फर्ज भी। वोटों के लालच और अनैतिकसांठगांठ की वजह से डेरे के मामलों में चुप रहने वाले राजनीतिक दलों केप्रतिनिधि भी छत्रपति के अंतिम संस्कार और शोकसभा में शामिल हुए थे हालांकिबाद में वे डेरे के ही साथ खड़े होते नज़र आए थे।

छत्रपतिकी ताकत सिर्फ यह नहीं थी कि वे निर्भीक पत्रकार थे। अगर वे सिर्फ इतना हीहोते तो भी कम बड़ी बात न होती। छत्रपति सच के सामने खड़े होने वालेमुफस्सिल पत्रकार थे जिनका हर तरह की सत्ता से बैर था। डेरे के अलावा भीउनके अखबार ने कई बड़े नेताओं के कारनामों का खुलासा किया था। अपनीपुश्तैनी खेती-बाड़ी पर आश्रित इस संपादक-पत्रकार के लिए रोज अखबार छापनाहर तरह `घर फूंक तमाशे` की तरह था। विज्ञापनों के लिए दर-दर गुहार लगाना नउनके स्वभाव में शामिल था और न उनका अखबार किसी भी तरह की सत्ताओं को खुशरखना जानता था। एक सच्चा पत्रकार हर तरह की सत्ता का प्रतिरोध होता है, प्राय: सिर्फ बोले जाने वाला यह वाक्य सहज रूप से उनके जीवन का हिस्सा था।वे पत्रकार थे, एक्टिविस्ट थे और शहर के लिखने-पढ़ने वालों को प्रेरित करनेवाले कवि-लेखक-बुद्धिजीवी थे, किसी शहर के लाइट हाउस की तरह। यह एक ऐसीचीज़ थी जो उन्हें किसी सत्ता से टकरा जाने वाले महज ज़िद्दी पत्रकार सेअलग करती थी। असल में वे एक `पब्लिक इंटेलक्चुअल जर्नलिस्ट एक्टिविस्ट` थे।इस बात को समझना हमें उनके महत्व को ठीक-ठीक समझने के लिए भी जरूरी है। इसएक बात पर गौर करना किसी कस्बे-शहर में सत्ताओं के प्रतिरोध में लगभगनिष्कवच खड़े होने वाले पत्रकार के लिए भी जरूरी है।
छत्रपतिप्रगतिशील लेखक संघ की सिरसा इकाई के उपाध्यक्ष थे। सिरसा के लिखने-पढ़नेवाले मित्र उनकी स्मृति में हर साल एक बड़ा सेमिनार आयोजित करते हैं औरउनके नाम पर किसी बुद्धिजीवी को सम्मानित भी करते हैं। छत्रपति सम्मान पानेवालों में गुरदयाल सिंह, प्रो. अजमेर औलख, कुलदीप नैयर, प्रो. जगमोहन, रवीश कुमार, अभय कुमार दुबे, ओम थानवी जैसे जाने-माने बुद्धिजीवी-पत्रकारशामिल हैं। सिरसा के शिक्षक-बुद्धिजीवी परमानंद शास्त्री बताते हैं कि शहर काकवि-लेखक, बुद्धिजीवी वर्ग छत्रपति को गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के पत्रकार के रूप मेंयाद करता है। उस युग में भी जबकि देश और समाज के लिए सब कुछ उत्सर्ग करदेने की एक परंपरा थी और उसका सम्मान भी था, विद्यार्थी जी एक विरलव्यक्तित्व थे। छत्रपति का जमाना वह जमाना नहीं था। बड़े घरानों के अखबारजनपक्षधरता के दिखावे तक से पल्ला झाड़ चुके थे। लोकल अखबारों की छविप्राय: ब्लेकमेलिंग और मांगने-खाने के धंधे की बन गई थी। ऐसे दौर मेंउन्होंने धारा के विपरीत चलकर एक सांध्य दैनिक के जरिये पत्रकारिता कीविश्वसनीयता और जनपक्षधरता की मिसाल कायम की।

छत्रपतिहरियाणा पत्रकार संघ की सिरसा इकाई के जिला प्रधान भी थे और इस वजह सेउनका लकब प्रधानजी ही पड़ गया था। उनके निधन पर हरियाणा भर में पत्रकारोंने प्रदर्शन किए थे। सिरसा में पत्रकारों ने डेरे की खबरें नहीं छापने काफैसला भी लिया था जो कई साल जारी रहा पर बाद में यह बरकरार नहीं रह सका।इसकी एक वजह `बड़े` अखबारों का प्रबंधतंत्र भी रहा। डेरे की तरफ सेपत्रकारों को कोई बहुत बड़े विज्ञापन या एकाध अपवाद को छोड़कर कोई बड़ेनिजी लाभ दिए जाते हों,ऐसा भी नहीं रहा। अखबारों से डेरे के संबंध डेरे केलोगों की अकड़ और शर्तों पर ही चलते रहे हैं। डेरे के खिलाफ पड़ने वालीबड़ी खबरें भी अक्सर सिरसा के बजाय चंडीगढ़ डेटलाइन से ही छपती रहीं। इनपरिस्थितियों में सिरसा के पत्रकार किसी बड़े प्रतिरोध की परंपरा को भले हीकायम नहीं रख सके पर वे छत्रपति को हमेशा सम्मान के साथ याद करते हैं।छत्रपति को चाहने वालों को यह भी याद रखना होगा कि छत्रपति की तरह हमेशा ही कुछ लोग होते हैं जो आततायियों के सामने डटकर खड़े होते हैं। जैसे कि अंशुल ने एनडीटीवी पर लेखराज ढोंट, अश्विनी बख्शी, आरएस चीमा और राजेंद्रसच्चर जैसे वकीलों को याद किया कि कैसे उन लोगों ने बिना पैसलिए उनकाकेस लड़ाऔर जैसे कि सीबीआई के अफसर मुलिंजा नारायणनऔर सतीश डागर।शायद यह संयोग हो कि छत्रपति की मृत्यु के बाद उनके हत्यारों के खिलाफसंघर्ष से न भागने वाला उनका साथी पत्रकार भी एक स्थानीय अखबार का संपादकही है। फतेहाबाद से निकलने वाले सांध्य दैनिक `जन सरोकार` के संपादक आरकेसेठी जो खुद 1998 में डेरे के हमले का शिकार हुए थे, छत्रपति हत्याकांड मेंसीबीआई के गवाह हैं। उनका कहना है कि खतरा बरकरार है पर बात सिर्फ यह नहींकि हो क्या रहा है या होगा क्या। बड़ी बात यह है कि इन सब हालात से सबकोडरना छोड़ देना चाहिए।

(लेख में डेरे की कारगुजारियों से जुड़ी घटनाओं का विवरण `पूरा सच` ब्लॉग से लिया गया है।)

समयांतर के सितंबर 2017  अंक में 'सच के लिए बीच का रास्ता नहीं होता'शीर्षक से प्रकाशित।
फोटो में स्पेशल इफेक्ट : अनुराग अन्वेषी

काले गड्ढे के उस पार हॉकिंग रेडिएशन : शिवप्रसाद जोशी

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8 January 1942-14 March 2018


प्रसिद्ध ब्रिटिश भौतिकविद् स्टीफन हॉकिंग का निधन उस दिन के शुरुआती लम्हों में हुआ जो महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्श्टाइन की जयंती के तौर पर जाना जाता है. अब 14 मार्च सैद्धांतिक भौतिकी की इन दो विभूतियों की जयंती और पुण्यतिथि के तौर पर याद किया जाता रहेगा.
हॉकिंग एक भरापूरा परिवार और सवालों से जूझती सघन विज्ञान परंपरा और ब्रह्मांड भौतिकी के बहुत से जटिल रहस्यों और निश्चित रूप से अपनी विज्ञान बिरादरी के साथ हुए विवादों, छींटाकशियों और ईर्ष्याओं को छोड़ कर इस दुनिया से गये. नोबेल समिति के विस्तृत खालीपन में अब स्टीफन हॉकिंग भी भर गये हैं. या वो शायद महानता के ब्लैक होल से कहीं अलग और दूर निकल गये हैं. जैसा कि अपनी प्रस्थापनाओं में वो प्रकाश विकिरण के बारे में कहते भी थे. जिसे हॉकिंग रेडिएशन के नाम से जाना गया.  
समय का संक्षिप्त इतिहास (अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम) जैसी लोकप्रिय प्रसिद्ध किताब से स्टीफन हॉकिंग दुनिया भर में एक जाना पहचाना नाम कई साल पहले बन गए थे. 1993 में दूसरी किताब ब्लैक होल्स ऐंड बेबी यूनिवर्सेस ऐंड अदर एसेसप्रकाशित हुई. इसी किताब में हॉकिंग ने ब्रह्मांड से जुड़े अपने अध्ययनों को रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किया है. इसमें कुछ व्याख्यान भी हैं और वो महत्वपूर्ण लेख भी है जिसमें हॉकिंग ने आइंश्टाइन की दुविधाओं पर अंगुली रखी है. 2001 में उनकी किताब आयी द युनिवर्स इन अ नटशैल.और इसने भी तहलका मचा दिया. रिकॉर्ड बिक्रीहुई.
गैलीलियो की मृत्यु के 300 बाद, आठ जनवरी 1942 को जन्मे हॉकिंग शारीरिक रूप से अपाहिज और बोलने या चलने फिरने में असमर्थ थे. उनके लिए एक ख़ास किस्म की चेयर तैयार की गयी थी जिस पर कई अत्याधुनिक उपकरणों के साथ कंप्यूटर लगाया गया था. हॉकिंग के कंप्यूटर को एक स्पीच सिंथेसाइज़र प्रणाली से जोड़ा गया था. हॉकिंग एक अत्यंत घातक बीमारी एएलएस (amyotrophic lateral sclerosis) के मरीज थे. इस बीमारी को मल्टीपल स्कलेरोसिस यानी एमएस या मोटर न्यूरॉन डिज़ीज़ भी कहा जाता है. डॉक्टरों के खारिज़ कर दिए जाने के बावजूद हॉकिंग न सिर्फ लंबे समय तक अच्छे भले रहे बल्कि उनके तीन बच्चे भी हुए. जबकि धुरंधर न्यूरोसर्जनों का दावा था कि अगर महोदय बच भी गए तो बच्चे किसी सूरत में पैदा नहीं कर सकते.
ब्रह्मांड की गुत्थियां सुलझाते हुए एक मोड़ पर आइन्श्टाइन ठिठक गये थे और उन्होंने कुछ थकान कुछ मजाक में कह दिया था कि ईश्वर पासे नहीं खेलता. कई वर्षों बाद अपनी थ्योरी में हॉकिंग ने मजाकिया अंदाज में बताया कि ईश्वर न सिर्फ पासे खेलता है बल्कि न तो वो खुद न हम कभी ये जान पाते हैं कि उसके वे पासे कहां कहां गिरते हैं. हॉकिंग ने न सिर्फ ईश्वर की अवधारणा को चुनौती दी बल्कि तमाम अंधविश्वासों और धार्मिक रूढ़ियों का भी सख्ती से विरोध किया. आकाशगंगा में बिखरे हुए ब्लैक होल्स (कृष्ण विवर-काले गड्ढे) को लेकर उन्होंने ये सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि ब्लैक होल पूरी तरह से ब्लैक नहीं है. यानी एक स्थिर दर से वे कणों को और विकिरणों को वापस भेजते रहते हैं. इस वजह से काला गड्ढा धीरे धीरे वाष्पित होता रहता है. लेकिन अंतिम तौर पर ब्लैक होल और उसकी सामग्री का क्या होता है, ये पता नहीं चल पाया है. ब्लैक होल में समा जाने वाली चीजें क्या नष्ट हो जाती हैं या वे अन्य ब्रह्मांड में निकल जाती हैं. यही वो बात है जो हॉकिंग के मुताबिक वो शिद्दत से जानना चाहते थे लेकिन शरारती अंदाज में ये भी कहते थे कि इसका मतलब ये नहीं कि मेरा इरादा उस काले गड्ढे में कूद जाने का है.
पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर उनका नजरिया बिल्कुल स्पष्ट था. उन्होंने ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दों पर गहरी चिंता जताई और समय समय पर कहते रहे कि आदमी ने धरती का अधिकतम दोहन कर लिया है और इसे जीने लायक नहीं छोड़ा है, इन्हीं चिंताओ के बीच वे अन्य ग्रहों में (जहां जीवन संभव है) मानव बस्तियों के निर्माण के अवश्यंभावी भविष्य की ओर रेखांकित करते थे. हॉकिंग ने एलियन की अवधारणा को भी कभी पूरी तरह खारिज नहीं किया. वे एक ऐसे प्राणी के बारे में हमेशा बोलते थे जो मनुष्य प्रजाति से शारीरिक मानसिक मनोवैज्ञानिक तकनीकी तौर पर उच्चतम अवस्था में है और किसी एक आकाशगंगा का हिस्सा है. हालांकि अपने इन बयानों के पक्ष में वो कोई ठोस वैज्ञानिक तर्क या प्रमाण नहीं रख पाये लेकिन हॉकिंग विज्ञान और उससे इतर सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर इतने लोकप्रिय रहे हैं कि उनकी बात एक सनसनी से ज्यादा एक भविष्यवाणी का दर्जा रखती थी.
ये तय है कि पूरी दुनिया के समकालीन विज्ञान जगत में इतना खिलंदड़ और मस्तमौला वैज्ञानिक नहीं देखा गया. कई मायनों में तो वो अपने निकट पूर्वज आइन्श्टाइन से भी ज्यादा नटखट थे. रही बात समानताओं की तो आइन्श्टाइन जैसी समानताएं सबसे ज़्यादा उन्हीं में थीं. संगीत को लेकर आइन्श्टाइन में जो आला दर्जे की समझ थी, हॉकिंग उस समझ को नये विस्तारों में ले गये. पश्चिमी शास्त्रीय और पॉप संगीत पर उनकी असाधारण पकड़ थी. स्टीफन हॉकिंग का जीवन, कला की उन उद्दाम ऊंचाइयों की झलक दिखाता है जहां संगीत और भौतिकी जैसी दो जटिल दुनियाएं एक बिंदु पर थिरकती रहती हैं.  

रजनी तिलक

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रजनी तिलक (27 मई 1958-30 मार्च 2018)


रजनी तिलक के बारे में जितना सोचता हूं, उनके प्रति सम्मान बढ़ता जाता है। उन्होंने जो काम किए और जो काम वे कर रही थीं, वे उन्हें साहित्य और समाज के सच्चे अध्येताओं, शोधकर्ताओं और सोशल एक्टिविस्ट्स की श्रेणी में रखने वाला है। वे कवयित्री थीं, कहानियां लिखती थीं, सामाजिक मसलों पर लेखन करती थीं। वे एक सोशल एक्टिविस्ट थीं। इस तरह की उनका लेखन और उनका एक्टिविज़्म आपस में घुले-मिले थे। अगर वे सिर्फ अपनी कहानियां-कविताएं लिखने की भूमिका तक ही रहतीं और अगर वे सिर्फ सोशल एक्टिविस्ट तक ही सीमित रहतीं तो भी उन्हें सम्मान से ही याद किया जाता। लेकिन, उनकी बेचैनियां, उनके सरोकार स्त्रियों और इस दुनिया के वंचित तबकों के लिए इतने गहरे और इतने खरे थे कि वे बहुत से कामयाब सवर्ण, दलित और स्त्री साहित्यकारों की तरह करियरिस्ट या आत्मकेंद्रित लेखिका-कवयित्री या सिम्बोलिक एक्टिविस्ट होकर संतुष्ट रह ही नहीं सकती थीं। वे आगे के काम का रास्ता बनाने के लिए उस काम को सामने लाने में जुटी रहीं जिस पर उपेक्षा की धूल जमी थी। खासकर हिंदीभाषी इलाकों में। वे उन लेखिकाओं, नायिकाओं के जीवन और काम को हमारे सामने लाने में लगी रहीं जिन्होंने स्त्रियों, दलित स्त्रियों, वंचित तबकों, सामाजिक बराबरी और समूची मानवता के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया था।

यह सच है कि हिंदी पट्टी में सावित्री बाई फुले का नाम और तस्वीरें सवर्ण बुद्धिजीवियों-नेताओं की बदौलत नहीं आईं बल्कि दलित राजनीति के उभार के साथ फैलीं। लेकिन, तस्वीरों से आगे उनके काम औऱ विचारों को फैलाने का काम करने वाले बुद्धिजीवियों में रजनी तिलक अग्रणी हैं। किताबों के जरिये भी और घूम-घूमकर लोगों से संवाद के जरिये भी। ऐसी कई दूसरी नायिकाओं के जीवन और काम को लेकर उन्होंने लिखा, उनके विचारों को फैलाया, उनके अनुवाद किए। स्त्रियों, दलितों और दूसरे कमजोर तबकों के मानवाधिकार हनन से जुड़े कितने मामलों में वे बतौर एक्टिविस्ट दौड़ती रहीं और इन मामलों की पड़तालों के तथ्यात्मक दस्तावेज तैयार करने में योगदान देती रहीं। मुझे लगता है कि रेशम के कीड़े की तरह एक खोल में दम तोड़ देने वाले कथित साहित्यकारों के काम से ज्यादा मूल्यवान तो ये दस्तावेज ही ठहरते हैं। और असल में वे, उनका जीवन औऱ उनका यह काम सामाजिक न्याय, बराबरी या बेहतर बदलावों में यकीन रखने वाले लेखकों और राजनीतिज्ञों के लिए उदाहरण की तरह भी है कि एक बड़ा और वास्तविक काम क्या है जिससे आगे की लड़ाइयों के लिए खड़े होने जगह बनती है।

सामाजिक न्याय की लड़ाइयों के विभिन्न रास्तों से रजनी तिलक का तालमेल, उन्हें समझने की कोशिशें और उनसे असर लेने व उन पर असर डालने की उनकी क्षमता अद्भुत रही। वे कोरी फेमिनिस्ट या दलित फेमिनिस्ट नहीं थीं। मजदूरों, सफाईकर्मियों और सीवर सफाईकर्मियों आद् के पक्ष में वे लगातार मुखर रहीं। उन्होंने महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर आरक्षण के भीतर आरक्षण के महत्व को भी समझा और बिना झिझक के साथ इसे रखा। पॉपुलर प्रगतिशील दायरों में दलितों, अदिवासियों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों और वंचित तबकों की स्त्रियों को लेकर रही ग्रन्थियों को चिह्नित किया तो दलित लेखन में मौजूद पितृसत्ता जैसी बीमारियों से भी संघर्ष किया। धर्मवीर जैसे स्त्रीद्वेषी दलित लेखकों से भी उन्होंने टक्कर ली और इस बात को हमेशा खारिज किया कि स्त्री शोषण या पितृसत्ता सिर्फ सवर्णों की बीमारियां हैं। ऐसी स्त्री का दलित लेखक संघ की अध्यक्षा होना दलित लेखक संघ के लिए भी महत्व की बात थी।

किसी के निधन के बाद उसकी अंतिम य़ात्रा में जुटे लोगों की संख्या से किसी मनुष्य का महत्व साबित नहीं होता है। प्रेमचंद और दुनिया के कई लेखकों और हमारे आसपास के ही बहुत से खरे मनुष्यों के मरने पर अनेक बार मुट्ठी भर लोग जुटते हैं। लेकिन, रजनी तिलक के निधन पर आई श्रद्धांजलियों और उनकी अंतिम यात्रा के मौके पर जुटने वालों का जिक्र बताता है कि उनकी स्वीकार्यता व्यापक थी और वे प्रगतिशील हलकों में भी पाई जाने वाली संकीर्ण जगहों से न सिर्फ ऊपर थीं बल्कि एक सेतु की तरह थीं। आम्बेडकरवादी दलित एक्टिविस्टों, छाज्ञ-छात्राओं के साथ बड़े साहित्याकर, वृंदा कारत जैसी पॉलिटिशयन और तमाम महिला बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट, लेखक संघों के पदाधिकारी उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे।

और यह जिक्र सबसे बाद में जो सबसे पहले भी महत्वपूर्ण है कि एक साधारण जाटव परिवार से ताल्लुक रखने वालीं रजनी तिलक का जीवन सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक संघर्षों से जूझते हुए शुरू होता है। यूपी के बुलंदशहर इलाके में उनके दादा की ज़मीन दबंग राजपूत कब्जा लेते हैं तो यह जाटव परिवार पलायन कर दिल्ली आ जाता है। दिल्ली में उनके दादा तांगा चलाते हैं और 1947 में अंग्रेज उन्हें शव ढोने का काम देते हैं। पुरानी दिल्ली में जामा मस्जिद के पास के इलाके में रहने वाले उनके पिता दर्जी हैं और कागज के लिफाफे बनाने वाली उनकी मां मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाती हैं। वे चाहते हुए भी ढंग से पढ़ पाने से वंचित हो जाती हैं और अपने बड़े भाई मनोहर के साथ मिलकर पांच छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी संभाल लेती हैं जिनमें से अनीता भारती और अशोक भारती तो पढ़ने-लिखने वालों की दुनिया में आज परिचित नाम हैं। इतने कठिन जीवन में भी वे राजनीतिक-सामाजिक चेतना से लैस रहती हैं या कहें कि उनकी परिस्थितियां इसकी ज़मीन या अनिवार्यता बनाती हैं। बड़े भाई की वजह से वामपंथ के असर में आती हैं। आंबेडकर और दूसरे दलित बुद्धिजीवियों को पढते हुए दलित आंदोलन से जुड़ती हैं। और आजन्म बेहतर दुनिया के लिए संघर्षरत रहती हैं।

सैम हैमिल, वाइट हाउस से भिड़ जाने वाला कवि

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9 May 1943 – 14 April 2018
दोस्त विक्टर इन्फान्ते की पोस्टसे मालूम हुआ कि सैमहैमिलनहीं रहे। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक पोएट्स अंगेस्ट दि वॉर (अब याद नहीं कहाँ की) पब्लिक लाइब्रेरी से पुरानी किताबों की सेल में मैंने शायद दसेक साल पहले ख़रीदी थी। `वाइट हाउस`से भिड़ जाने वाले इस एक्टिविस्ट कवि से यह मेरा पहला परिचय था। वह वाक़या तो अब, जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, `स्टफ़ ऑफ़ लेजंड`है।
2003 में मोहतरमा लॉरा बुश ने `वाइट हाउस` में कवियों की एक संगोष्ठी आयोजित करने का ऐलान किया; निमंत्रण भेजे गए। सैम हैमिल ने न केवल वह निमंत्रण ठुकराया बल्कि इराक़ युद्ध की मुख़ालफ़त में पोएट्सअगेंस्टदिवॉरनाम की वेबसाइट शुरू की जो एक वैश्विक आंदोलन में बदल गई। इस वेबसाइट पर लगभग बीस हज़ार प्रतिरोध की कविताएँ संकलित हैं। इन्हीं में से कुछ कविताएँ पुस्तकाकार छापी गईं जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है।
हमारे देश में जब चाटुकारिता और सत्ता के पिछलग्गूपन के नए अध्याय रचे जा रहे हैं, सैम हैमिल का जाना और भी तकलीफ़देह है। उन्हें और उनके जज़्बे को सलाम करते हुए उनकी तीन कविताएँ (मूल अंग्रेज़ी से अनुदित) पेश हैं।
-भारत भूषण तिवारी



स्टेट ऑफ़ दि यूनियन, 2003

यरूशलम मैं कभी नहीं गया,
लेकिन शिर्ली बात करती है बमों की.
मेरा कोई ख़ुदा नहीं, पर मैंने देखा है बच्चों को
दुआ माँगते कि बमबारी रुके. वे दुआ माँगते हैं अलग-अलग खुदाओं से.
ख़बर अब फिर वही पुरानी ख़बर है,
जो दुहराई जाती एक बुरी आदत, सस्ते तम्बाखू, सामाजिक झूठ की तरह.

बच्चों ने इतनी अधिक मृत्यु देख ली है
कि अब उनके लिए मृत्यु का कोई अर्थ नहीं.
वे रोटी के लिए क़तार में हैं.
वे पानी के लिए क़तार में हैं.
उनकी आँखें मानों काले चन्द्रमा हैं जिनमें से झाँकता है खालीपन.
हमने उन्हें हज़ारों बार देखा है.
कुछ ही देर में राष्ट्रपति भाषण देंगे.
उनके पास कहने लिए कुछ न कुछ होगा बमों के बारे में
आज़ादी के बारे में
हमारी जीवन पद्धति के बारे में.
मैं टीवी बंद कर दूँगा. हमेशा करता हूँ.
क्योंकि मेरे लिए बर्दाश्त से बाहर है
उनकी आँखों के स्मारकों को निहार पाना.




जेम्स ओस्को अनामरिया की मौत पर

जब उसकी लाश उन्हें
अबानकाइ में
पचाचाका ब्रिज के पास
कचरे के ढेर में मिली,

कौन कह सकता था
कि किसने
उखाड़े थे उसके नाख़ून,

किसने पैर तोड़े,
नोंच ली आँख किसने,
किसने अंततः उसका गला रेता.

कौन कह सकता था
किसने उसे कचरे में फेंक दिया
बोतल में बंद सन्देश की तरह.

कौन कह सकता था
कि वह कौन था
और क्यों

मगर कोई तो है जिसे पता है
कि किसका हाथ गर्दन पर है
और किसका बन्दूक पर.

युवा कवि ने ऐसा क्या कहा था
जो उसे मरना पड़ा?
क्या मौत का दस्ता था
इस ट्रेजेडी का लिखने वाला?

जिसे सीआईए ने प्रशिक्षण दिया हो?
कह नहीं सकते.

कोई तो जानता था
उसकी ज़ुबां के नाज़ुक स्पर्श को
क्योंकि वह कविता के हर स्वर
और हर व्यंजन में
जान फूँक देती.

लोर्का की मृत्यु पर बोलते हुए
उसकी आँख में छलका आँसू
कोई याद करता है
और जन पर बात करते हुए
उसकी आवाज़ की लय

कोई याद करता है उसके ख़्वाब
एंडीज़ के सायों में
एक लोकतांत्रिक संगीत के;
पंखों वाली कविता के.

बेशक, युवा कवि को पता था
कि कविता प्रेम है
और इस दुनिया में,
प्रेम एक ख़तरनाक शै है.


इराक़ में चल रही लड़ाई के तीन साल पूरे होने पर हेडन करूथ के नाम एक ख़त

लगभग चालीस साल हुए
उन सब जंगों के ख़िलाफ कविता लिखने के बारे में
तुमने कविता लिखी थी, हारलन काउंटी से लेकर इटली
और स्पेन. जब तुम्हारी चुनी हुई कविताएँ
आज मिलीं, उनमें से एक यह कविता थी जिसे
फिर पढ़ते हुए मैं ठिठका.

हम तबसे लगातार युद्धरत हैं.
मैं महायुद्ध के दौरान पैदा हुआ
और मैंने भी अपने सारे दुखदायी दिनों में
उस ख़ास अहमकपन
और बेमतलब और लाचार दर्द को जिया
और उसके खिलाफ लिखा है.
क्या उससे एक जान भी बच पाई?
कौन बता सकता है?
बजाय इसके कि ऐसा करने से
मेरी अपनी जान बची.

आह, मैं बता पाता तुम्हें बची हुई जानों
के बारे में. सित्का में थी
वह एक जवान ख़ूबसूरत औरत
जिसके पति ने, जो उसकी कविता से ईर्ष्या
करता था, उसके दोनों पैर
एक रस्सी से बाँध दिए और
फेंक दिया अपनी नाव से.
दक्षिण-पूर्वी अलास्का के उन पानियों में
आपके पास ज़िन्दगी के लगभग १२ मिनट होते हैं.

या ऊटा की दादी अम्मा
जो छंदबद्ध, रूमानी सॉनेट लिखा करती
और एक दिन रात गए
मुझे मोटेल में फ़ोन किया क्योंकि
उसका जबड़ा टूटा हुआ था, और उसकी नाक,
और वह अब भी पी रहा था. या मैं तुम्हें
एलेक्स के बारे में बता सकता हूँ, जो ड्रग्स
से जुड़े जुर्म में उम्रक़ैद काट रहा था
और क्लासिक्स से रूबरू होने पर उसकी आँखें
कैसे चमक उठीं.

हाँ, कविता ज़िंदगियाँ बचाती है.
सारी जंगें घर से ही शुरू होती हैं
युद्धरत आत्म के भीतर.
ना, हमारी कविताएँ नहीं रोक सकतीं
जंग, ना यह जंग और ना कोई और
बल्कि वह जो
अपने अंदर धधकती है.
जो पहला और एकमात्र कदम है.
यह एक
पाक यकीन है, एक कर्तव्य
कवि का शगल.
हम लिखते हैं कविता जो हमें लिखनी चाहिए.


नोट्स:

  1. स्टेट ऑफ़ दि यूनियन: अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्र के नाम दिया जाने वाला सालाना अभिभाषण
  2. दूसरी कविता का सन्दर्भ है प`रू देश केजेम्स ओस्को अनामरिया नामक कवि और एक्टिविस्ट की दिसम्बर 2005 में टॉर्चर के बाद की गई हत्या। प`रू में अबानकाइएक शहर है जोपचाचाका नदी पर बसा है।
  3. हेडन करूथ(1921-2008): अमेरिका के एक और रेडिकल कवि जिनसे सैम हैमिल प्रभावित रहे।



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