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ज्योत्सना शर्मा की दो कविताएं

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ज्योत्स्ना शर्मा (11 मार्च 1965-23 दिसंबर 2008) अपनी कुछ कविताओं के प्रकाशन के बावजूद हिंदी साहित्य की दुनिया में अनजाना नाम है। अनजाना की जगह उपेक्षित शब्द भी इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि उनकी जो कविताएं `अनुनाद` ब्लॉग, `संबोधन` और `जलसा` पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, वे एक रचनाकार को लेकर साहित्य के पाठकों और अन्वेषणकर्ताओं में चर्चा, जिज्ञासा और उन्हें और ज्यादा पढ़ने के लिए उनकी अप्रकाशित सामग्री की तलाश की भूख पैदा करने लायक तो हैं ही। लेकिन, इस वक़्त या कहें कि हमेशा ही जो हाल इस दुनिया का रहा है, उसमें ऐसा होना स्वाभाविक है। उपेक्षा की बात करें तो ज्योत्सना में खुद पत्रिकाओं में छपने या हिंदी साहित्य का हिस्सा बनने के प्रति गहरा उपेक्षा का भाव था। यह भाव उनमें शायद हर किस्म के ढांचों से था और अंततः इसका असर उनके अपने जीवन पर भी था। आज ही के दिन उन्होंने जैसा कि गहरी बेचैनियों में जीने वाले संवेदनशील मनुष्यों के साथ होता है, अचानक आत्महत्या का रास्ता चुन लिया था। उनकी स्मृति में उनकी  दो कविताएं, जो `जलसा` में प्रकाशित हो चुकी हैं-


ज्योत्सना की दो कविताएं
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लौटना

लौट चले कमेरे घर की ओर
                         भूख लिये साथ
प्रियजनों की यादें बिखरी बिखरी
जब चिडि़यों के बोल धीमे थे
जब लौटते थे बच्चे थके से
छाती थी पेड़ों पर काली गहराई
जब बकरियों के उदास रेवड़
लौटते थे बाड़ों में
अपने पीछे लिये खोये-खोये चरवाहों को
जब मच्छर निकलते थे भनभनाते
और दीवारों पर खिन्न छिपकलियाँ
जब जलती थी पुश्तैनी अंधेरे कमरों में
                            बल्ब की बीमार रोशनी
मैदान होने लगते थे अकेले
आसमान के गुलाबी सिरे पर
उठती थी अज़ान
                              डूबी डूबी।
..............



गुमनाम साहस

वयस्कों की दुनिया में बच्चा
और पुरूषों की दुनिया में स्त्री
अगर होते सिर्फ़ योद्धा
अगर होती ये धरती सिर्फ़ रणक्षेत्र
                     तो युद्ध भी और जीत भी
आसान होती किस क़दर;
लेकिन मरने का साहस लेकर
आते हैं बच्चे
और हारने का साहस लेकर
आती हैं स्त्रियां
ऐसा साहस जो गुमनाम है
ऐसा विचित्र साहस जो लील जाता है
                        समूचे व्यक्ति को

और कहते हैं वो जो मरा और हारा
                         कमज़ोर था
कि यही है भाग्य कीड़ों का;

ऐसी भी होती है एक शक्ति
उस छाती में जिसपर
हर रोज़ गुज़र जाती है
                              एक ओछी दुनिया।
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बहुसंख्यकवाद, मास मीडिया और मारवा अमीर ख़ान का : शिवप्रसाद जोशी

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सही तो है.. अमीर ख़ान ने जो गाया. जग बावरा. जग बावरा ही तो है. वरना ऐसी मूर्खताएं कहां नज़र आती. ऐसी हिंसाएं. ऐसा कपट ऐसी बेईमानियां.

जग बावरा सुनते हुए मुझे अहसास हुआ कि अरे अमीर ख़ान तो सदियों का हिसाब लिखने बैठ गए. और लिखते ही चले जाते हैं. धीरे धीरे. चुपके चुपके. ऐसा इतिहासकार विरल ही है. गाता संगीत है लेकिन सोचता समय है. अमीर ख़ान का मारवा समकालीन इतिहास का एक अलग ही स्वरूप हमारे सामने पेश करता है. ये एक नया मुज़ाहिरा है. है तो कुछ पुराना लेकिन ये सुने जाते हुए नया ही हो उठता है. समीचीन. समसामयिक. जैसे समकालीन साधारण इंसान का आर्तनाद.

अमीर ख़ान का मारवा जैसे एक एक कर सारे हिसाब बताता है. हमारी बुनियाद बताता है. हमारी करुणा. फिर हमारी नालायकी और बदमाशी के क़िस्से वहां फंसे हुए हैं. सारी अश्लीलताएं जैसे गिरती है और फिर आप सामने होते हैं. सच्चे हैं तो सच्चे, झूठे हैं तो झूठे. सोचिए क्या किसी के गा भर देने से ये संभव है.

लेकिन असल में ये गायन सिर्फ़ सांगीतिक दुर्लभता या विशिष्टता की मिसाल नहीं है, ये जीवन और कर्म और समाज के दूसरे पैमानों पर भी उतना ही खरा उतरता हुआ है. मिसाल के लिए मैं इसे जनसंचार के यूं नये उदित क्षेत्र में एक अध्ययन की तरह पढ़ता हूं. फ़्रेंच स्कूल की जो धारा ग्राम्शी से आगे बढ़ती है, मैं उसके हवाले से कहना चाहता हूं कि अमीर ख़ान उस स्कूल को न सिर्फ़ रिप्रेज़ेंट करते हैं बल्कि उनकी आवाज़ में आप नये वाम को समझने के तरीक़े भी विकसित कर सकते हैं.

वो स्थिर आवाज़, विचलित होती हुई, दाद से बेपरवाह लेकिन टिप्पणी करती हुई, अपने रास्ते के धुंधलेपन को आप ही साफ़ करती हुई, आगे बढ़ती हुई एक निश्चिंत लय में, एक निर्भीक स्पष्टता के हवाले से, एक निस्वार्थ कामना, एक ज़िद्दी धुन सरीखी है वो आवाज़ वो मारवा उनका.

अमीर ख़ान की आवाज़ एक साधारण औजी का ढोल है जो हमारे गांवों में बजाते हैं वे. औजी की अपनी कल्पनाशक्ति से निकला वो नाद ही अमीर ख़ान की आवाज़ में जाकर मिल जाता है. सोचिए तो इतना सिंपल गायन है वो. उसमें क्यों जटिलताएं देखनी. आप चाहें तो एक एक रेशा पढ़ सकते हैं उस गायन का. न चाहें तो भी फ़ितूर ही है. 
मैं अपनी नाकामियां ढूंढता हूं. और उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश करता हूं. बहुत सारे लोग जो ब्लॉगों से, लिखने से, गाने से और चिंतन से दूर हैं वे भी सोचते होंगे, और आगे का सोचते होंगे. ऐसे भी तो होंगे जो उस आवाज़ में घुल जाते होंगे. उनको सलाम है.

आज के दौर में, जब बहुसंख्यक हिंसाएं हम पर आमादा हैं, दोस्तों, अमीर ख़ान का ये मारवा ही हिफ़ाज़त करेगा और तैयार करेगा. अपना ख़याल दुरुस्त रखने की बात है बस.

पेंगुइन को अरुंधति की फटकार

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अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री`को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:

तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगरकी `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री`को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे।

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।

चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें?क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइनसे छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।
-अरुंधति रॉय

पिथागोरस का प्रमेय - सब्ब बेद में बा : आशीष लाहिड़ी

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(बांग्ला अखबार 'एई समय'में प्रकाशित आशीष लाहिड़ी के लेख का वरिष्ठ कवि व वैज्ञानिक लाल्टू का किया अनुवाद। आशीष लाहिड़ी नैशनल काउंसिल ऑफ साइंस म्युज़ियम में विज्ञान के इतिहास के अध्यापक हैं)

वैज्ञानिक मेघनाद साहा कम उम्र में ही ताप-आधारित आयनीकरण की खोज कर दुनिया भर में प्रख्यात हो चुके थे। उनका मन हुआ कि बचपन के गाँव जाकर आम लोगों से बातचीत कर आएँ। एक बूढ़े वकील ने उनसे पूछा, 'बेटा, का खोजा है तुमने कि एतना नाम हो गया।'मेघनाद ने समझाने की कोशिश की कि सूरज के प्रकाश में रंगों का विश्लेषण कर वहाँ मौजूद या जो मौजूद नहीं हैं, उन तत्वों को जानने का तरीका निकाला है। सुनकर उम्रदराज वकील साहब बोले, 'हँ:, इसमें नया का है, सब्ब बेद में बा।'

बीजेपी के सत्ता में आने के बाद यह 'सब्ब बेद में बा'बात काफी फैल चुकी है। ताप-आधारित आयनीकरण की जगह पिथागोरस के प्रमेय या अंग ट्रांस्प्लांटेशन (गणेश इसके प्रमाण हैं) ने ले ली है। एन आर आई की ताकत के बल पर पहलवान बने बजरंगबली की पूँछ में तीन ''शालें धू-धू जल रही हैं - मनी, मैनेजमेंट, मीडिया। हाल में इस मशाल की लपटें विज्ञान महासभा तक धधक उठीं। भले लोग आतंकित हैं। पर अगर ऐसा नहीं होता तो क्या हिसाब ठीक रहता? पढ़े लिखे लोगों ने बीजेपी से इससे अलग और क्या अपेक्षा रखी थी? पिछली बार बीजेपी के सत्ता में आने पर विश्वविद्यालयों में हस्तविद्या-'विज्ञान'को अलग विषय मानकर पढ़ाना लगभग चालू ही हो गया था। नार्लिकर समेत दीगर वैज्ञानिकों ने विरोध जताया था। यह सब जानकर ही तो पढ़े लिखे लोगों ने बीजेपी को सत्ता दी है। तो फिर बंधु अब क्यों चीखो मम्मी, मम्मी...!'

सवाल प्रधानमंत्री या बीजेपी के आचरण का नहीं है। सवाल यह है कि लोग आज क्यों चौंक रहे हैं? इसमें बड़ी बेईमानी है। अगर बीजेपी सत्ता में नहीं भी होती, तो क्या देश के लोगों के बड़े हिस्से की, वैज्ञानिकों की भी, आस्था क्या ऐसी ही नहीं है? सब्ब बेद में होने की परंपरा तो आधुनिक हिंदू-चेतना में अमिट, अमर है। विद्यासागर ने 1853 में कहा था, 'भारत के पंडितों'के लिए वैज्ञानिक सच गौण हैं, गैरज़रूरी हैं, देखना यह है कि इस सच के साथ हिंदुओं के शास्त्रों के किसी विचार का सही या कल्पित मेल कितना है। अक्षय दत्त ने आजीवन ऐसे खयालों का विरोध करते हुए खुद को समाज से बहिष्कृत तक करवा लिया, पर क्या इससे किसी का विचार बदला? जी नहीं, अगर बदला होता तो विवेकानंद क्यों कहते कि न्यूटन के जन्म के एक हजार साल पहले ही हिंदुओं ने गुरुत्वाकर्षण की खोज कर ली थी। विवेकानंद के हमउम्र प्रकांड विद्वान योगेशचंद्र राय विद्यानिधि ने इसका विरोध करते हुए कहा था, 'कम जानकारी रखने वाले कुछ लोग भास्कराचार्य के कथन पेश कर न्यूटन के महत्व को कम करना चाहते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि दोनों में ज़मीं आस्मान का फर्क है। मेघनाद साहा स्वभाव से तीखा लिखते थे, 'इस देश में कई लोग सोचते हैं कि ग्यारहवीं सदी में भास्कराचार्य गुरुत्वाकर्षण पर धुँधला सा कुछ कह गए तो वे न्यूटन के बराबर हो गए। और न्यूटन ने नया क्या किया है? पर ये 'नीम हकीम खतरे जान'वाले श्रेणी के लोग भूल जाते हैं कि भास्कराचार्य ने कहीं यह नहीं कहा कि धरती और दीगर ग्रह सूरज के चारों ओर अंडाकार परिधि में घूम रहे हैं। उन्होंने कहीं यह सिद्ध नहीं किया कि गुरुत्वाकर्षण और गति के नियमों को जोड़कर धरती और दीगर ग्रहों के गति-कक्ष पता लगाए जा सकते हैं। इसलिए भास्कराचार्य या कोई हिंदू, ग्रीक या अरब केप्लर-गैलीलिओ या न्यूटन के बहुत पहले ही गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज चुके हैं, ऐसा कहना पागल का प्रलाप ही होगा। बदकिस्मती से इस मुल्क में ऐसे अंधविश्वास फैलाने वाले लोगों की कमी नहीं है, ये लोग सच के नाम पर महज खाँटी झूठ फैला रहे हैं।'

इससे हमारी निष्क्रिय चेतना पर कोई खरोंच पड़ी क्या? नहीं, अगर पड़ती तो हिग्स बोज़ोन की खोज के बाद देश के उच्च-शिक्षित लोग क्यों कह रहे थे कि अब भारत ने जो वेदांतिक सच खोजा था, वह सिद्ध हुआ।

1961 में रवींद्रनाथ की विज्ञान-चेतना की चर्चा करते हुए परिमल गोस्वामी ने लिखा था, 'प्राचीन भारत में सब कुछ ग्रामीण मान्यताओं पर आधारित था, इस देश में विज्ञान के आने के बाद कई पढ़े-लिखे लोगों में इसका असर दिखने लगा था।... बिना प्रमाण और तर्क के कई बार ऐसा कहा गया है कि आधुनिक यूरोपी विज्ञान असल में प्राचीन भारतीय विज्ञान के एक छोटे से हिस्से की खोज मात्र है। मेरे विचार में बंगाल में अधुनिक विज्ञान को पूरी आस्था के साथ स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति अक्षयकुमार दत्त थे। पर अकेले उनके प्रचार की औकात ही क्या कि वह नए उभरते घमंड के बनिस्बत तर्कशीलता की प्रतिष्ठा करे। रवींद्रनाथ के वक्त झूठे घमंड में बढ़ोतरी होती चली थी।'और इसके विरोध में रवींद्रनाथ ने वयंग्य के औजार की मदद ली थी। हेमंतबाला को लिखे अमर ख़तों में रवींद्रनाथ ने इस मूढ़ता की जम कर खिंचाई की थी। क्या उस तिरष्कार का कोई असर हम पर पड़ा था? नहीं। किसी भी बात से हम पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।

1891 में ज्योतिराव फुले ने लिखा था, 'कुछ साल पहले मराठी में लिखी एक पुस्तक में मैंने ब्राह्मणों के संस्कारों के असली रुप की पोल खोली थी।'उसी महाराष्ट्र में गणेश आगरकर ने लिखा था, 'इंसान के चमड़े के रंग से उसकी काबिलियत कैसे पहचानी जा सकती है? इस चतुर्वर्ण प्रथा को किसने शुरू किया? किस ने यह अतिवादी कथा चलाई कि ब्राह्मणों का जन्म 'समाजपुरुष'नामक किसी पुराणकल्पित आदमी के मुँह से और अछूतों का उसके पैर से जन्म हुआ? ऐसे अन्यायी शास्त्रों का विनाश हो।'विनाश हुआ क्या? नहीं। इसीलिए फुले-आगरकर की चेतावनी के सौ सालों से भी ज्यादा समय के बाद उसी महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथों तर्कशील जनसेवक चिकित्सक नरेंद्र दाभोल्कर की मौत हुई। सनातन धर्म संस्था के सिद्धांतों के नेता डा. जयंत अठवले ने अपनी निजी मानविकता का ब्रांड दिखलाते हुए सार्वजनिक रूप से कहा, हत्यारे के हाथों मारा जाना दाभोलकर का कर्मफल है; अच्छा ही हुआ, डॉक्टर की छुरी सहकर, ऑपरेशन टेबल पर मरने से तो यह तो बेहतर है! उस प्रांत के कुछ वैज्ञानिकों के अलावा हममें से और किसी के सीने में कहीं कोई आग धधकी? नहीं धधकी। रोशनी नहीं चमकी।

हाँ, यह मानना पड़ेगा कि अंधविश्वास और अंधविश्वास मौसेरे भाई हैं। हिंदुत्ववादी सब्ब वेदे में है कहकर जो हुंकार देते हैं, उसकी बिल्कुल एक जैसी प्रतिध्वनि पश्चिमी सीमा के पार सुनाई पड़ती है। बस 'बेद'की जगह वे 'कुरान'कहते हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध नाभिकीय भौतिकी के माहिर परवेज हूदभाई ने इसके कुछ नमूने पेश किए हैं। जैसे 'इस्लामाबाद में विज्ञान सम्मेलन में एक जर्मन प्रतिनिधि ने कहा कि उन्होंने गणितीय टोपोलोजी का इस्तेमाल कर सिद्ध कर दिया है कि वे 'अल्लाह का कोण'माप सकते हैं। यह है पाई बटा n, जहाँ पाई का मान है 3.1415927... और n का मान अनिश्चित है। पाठक इस बात को मानने से इन्कार कर सकते हैं। सही है, ऐसा अजीब हिसाब किसी के दिमाग में कैसे आ सकता है? पर पाकिस्तान के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के इस्लामी विज्ञान सम्मेलन के संक्षिप्त विवरण-ग्रंथ (1983) के पृ. 82 को देखिए। अगर देखें तो अपनी ही आँखों पर यकीन नहीं कर पाएँगे। पाठक यह भी जान लेंगे कि इस पागल को पाकिस्तान सरकार ने निमंत्रण कर उसकी आवभगत का खर्च तक उठाया था। सवाल उठ सकता है कि इस आदमी को ईश निंदा के ज़ुर्म में क्यों नहीं पकड़ा गया? इसकी दो वजहें हैं। एक तो इस आदमी की ऊल-जलूल बातें (जो छपी हैं) ऐसी निरर्थक हैं, कि वह किसी के समझ नहीं आ सकतीं। दूसरी बात यह कि उस सभा में वे अकेले ऐसे पागल नहीं थे।'क्या मुंबई विज्ञान कॉंग्रेस की सभा में मौजूद विद्वान जन हूदभाई की इस पुरानी टिप्पणी से वक्त रहते कोई सीख ले पाए?

इसलिए, बीजेपी का काम बीजेपी कर रही है, इससे दुखी होने का नाटक करने से पहले, हे साधुजन, अपनी नज़र साफ करो।

गणेश विसपुते की कविता

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प्रयोगशाला

कुछ भी हो सकता है वहाँ
मतलब कुछ भी करवाया जाना
संभव होता है उनके लिए वहाँ
इल्जामों  के पौधे बोए जा सकते हैं
अफवाहों के फ़व्वारे उड़ाकर
उस कुहासे में
कवि के होने को न होना किया सकता है

कब्र हुई उसकी तो वह भी उखाड़कर
नामोनिशाँ मिटा दिया जा सकता  उसका
किसी को कानोंकान खबर नहीं होती
इबादतगाहों का क्या
गाँव तक ज़मींदोज़ किए जा सकते हैं
खांडववन का तो 
अच्छा-ख़ासा अनुभव है उनके पास
लिखा हुआ मिटाया जा सकता है
जो घटा नहीं वह लिखवाया जा सकता है

नष्ट की जा सकती हैं सदा हरी रहने वाली फसलें
सरकंडे उगाकर

बहुत ही अद्भुत है
उनकी प्रयोगशाला
बहुत प्राचीन है
उनके ज़हरीले रसायनों का वंश.



~ गणेश विसपुते 
मराठी कवि, चित्रकार, अनुवादक. आलोचना, कला और सिनेमा पर भी लेखन.
 
मराठी से अनुवाद- भारतभूषण तिवारी
चित्र यहां से

शैलप्रिया की कविताएं

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नवभारत टाइम्स के दिनों में अनुराग अन्वेषी बेहद शिद्दत से अपनी मां शैलप्रिया जी को याद करते थे। उन दिनों उन्होंने उनकी कुछकविताएं भी सुनाई थीं और उनकी स्मृति में एक ब्लॉग शेष है अवशेषनाम से बनाया था।कुछ देर पहले अनुराग भाई से ही पता चला कि शैलप्रिया स्मृति सम्मान शुरू करने का निर्णय लिया गया है और इस संबंध में कवि-कथाकार प्रियदर्शन (शैलप्रिया जी के बड़े बेटे) ने जानकीपुल ब्लॉग पर पोस्ट लगाई है। वही पोस्ट यहां साझा कर रहा हूं-
 
18 साल पहले मां नहीं रही। तब वह सिर्फ 48 साल की थी। तब समझ में नहीं आता था, लेकिन आज अपनी 45 पार की उम्र में सोचता हूं, वह कितना कम जी सकी। हालांकि वह छोटा सा जीवन संवेदना और सरोकार से भरा-पूरा था। घर-परिवार-शहर और स्त्रियो के लिए अपने स्तर पर बहुत सारे संघर्षों में वह शामिल रही। कविताएं लिखती रही, कुछ कहानियां भी। उसके रहते उसके दो कविता संग्रह अपने लिएऔर चांदनी आग हैभी प्रकाशित हुए। बाद में घर की तलाश में यात्रा’,  ‘जो अनकहा रहाऔर शेष है अवशेषनाम की किताबें भी आईं। लेकिन सबकुछ जैसे छूटता चला गया। हिंदी के विराट संसार में रांची की एक अनजान और दिवंगत कवयित्री को कौन याद करता- भले ही उसके पास स्त्री संवेदना से जुड़ी कुछ बहुत अच्छी कविताएं हों। हमारा संकोच हमें बार-बार रोकता रहा कि हम अपनी ओर से उसकी चर्चा करें। हम, उसके बच्चे, अक्सर सोचते रहे कि कभी उसकी स्मृति में भी कुछ कर पाएं। अब जाकर एक संयोग बनता दिख रहा है। हमने महिला लेखन के लिए15000 रुपये काशैलप्रिया स्मृति सम्मानदेने का निश्चय किया है। पहला सम्मान उसके जन्मदिन पर इस 11 दिसंबर को रांची में दिया जाएगा। बाकी घोषणाएं बाद में होंगी। फिलहाल उनके संग्रह चांदनी आग हैकी पांच कविताएं आपके लिए प्रस्तुत हैं। बरसों पहले छोटे भाई अनुराग अन्वेषी ने मां की स्मृति में वहीं से ये कविताएं से ली हैं- प्रियदर्शन 
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1.
फुरसत में

जब कभी
फुरसत में होता है आसमान,
उसके नीले विस्तार में
डूब जाते हैं
मेरी परिधि और बिंदु के
सभी अर्थ।
क्षितिज तट पर
औंधी पड़ी दिशाओं में
बिजली की कौंध
मरियल जिजीविषा-सी लहराती है।
इच्छाओं की मेघगर्जना
आशाओं की चकमकी चमक
के साथ गूंजती रहती है।
तब मन की घाटियों में
वर्षों से दुबका पड़ा सन्नाटा
खाली बरतनों की तरह
थर्राता है।
जब कभी फुरसत में होती हूं मैं
मेरा आसमान मुझको रौंदता है
बंजर उदास मिट्टी के ढूह की तरह
सारे अहसास
हो जाते हैं व्यर्थ।


2.
ज़िंदगी
अखबारों की दुनिया में
महंगी साड़ियों के सस्ते इश्तहार हैं।
शो-केसों में मिठाइयों और चूड़ियों की भरमार है।
प्रभू, तुम्हारी महिमा अपरम्पार है
कि घरेलू बजट को बुखार है।
तीज और करमा
अग्रिम और कर्ज
एक फर्ज।
इनका समीकरण
खुशियों का बंध्याकरण।
त्योहारों के मेले में
उत्साह अकेला है,
जिंदगी एक ठेला है।

3.
एक सुलगती नदी

मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास
एक सुलगती नदी
बहती है।
सबकी आंखों का इंद्रधनुष
उदास है
अर्थचक्र में पिसता है मधुमास।
मैं देखती हूं
सलाखों के पीछे
जिंदगी की आंखें
आदमियों के समंदर को
नहीं भिगोतीं।
उस दिन
लाल पाढ़ की बनारसी साड़ी ने
चूड़ियों का जखीरा
खरीदा था,
मगर सफेद सलवार-कुर्ते की जेब में
लिपस्टिक के रंग नहीं समा रहे थे।
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।


4. 
उत्तर की खोज में

एक छोटे तालाब में
कमल-नाल की तरह
बढ़ता मेरा अहं
मुझसे पूछता है मेरा हाल।
मैं इस कदर एक घेरे को
प्यार क्यों करती हूं?
दिनचर्याओं की लक्ष्मण रेखाओं को
नयी यात्राओं से
क्यों नहीं काट पाती मैं?
दर्द को महसूसना
अगर आदमी होने का अर्थ है
तो मैं सवालों के चक्रव्यूह में
पाती हूं अपने को।
मुक्तिद्वार की कोई परिभाषा है
तो बोलो
वे द्वार कब तक बंद रहेंगे
औरत के लिए?
मैं घुटती हुई
खुली हवा के इंतजार में
खोती जाऊंगी अपना स्वत्व
तब शेष क्या रह जाएगा?
दिन का बचा हुआ टुकड़ा
या काली रात?
तब तक प्रश्नों की संचिका
और भारी हो जाएगी।
तब भी क्या कोई उत्तर
खोज सकूंगी मैं?

 5.
फाग और मैं

एक बार फिर
फाग के रंग
एक अनोखी जलतरंग छेड़ कर
लौट गये हैं।
मेरे आंगन में फैले हैं
रंगों के तीखे-फीके धब्बे।
चालीस पिचकारियों की फुहारों से
भींगती रंगभूमि-सी
यह जिंदगी।
और लौट चुके फाग की यादों से
वर्तमान में
एक अंतराल को
झेलती हूं मैं
अपने संग

फाग खेलती हूं मैं।

लाल सिंह दिल की कविताएं

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कुत्ते पुकारते हैं
`मेरा घर, मेरा घर`
जगीरदार
`मेरा गाँव, मेरी सल्तनत`
लीडर
`मेरा देश, मेरा देश`
लोग सिर्फ कहते हैं
`मेरी क़िस्मत, मेरी क़िस्मत`
मैं क्या कहूँ?
 (दिल की कविता का एक अंश)

लाल सिंह दिल की कविताओं को पढ़ने के लिए जीवट चाहिए। तल्ख़ हकीकतों में सने इक़लाब के ख़्वाब, इन ख़्वाबों की तामील के लिए संघर्ष, कड़े संघर्षों और लगभग न जी सकने के हालात में भी ज़िंदगी की दुर्लभ छवियां, एक ऐताहिसक पराजय की विडंबनाओं का गहरा बोध...। उम्मीदों और अवसादों का एक अटूट सिलसिला। एक क्लासिक कविता जिसकी भाषा और शिल्प में एक सुच्चा अनगढ़पन है और पुख़्तापन भी, वैचारिक संज़ीदगी है, अद्भुत सौंदर्यबोध है, मुहब्बतों, ख़्वाबों से भरी आग है और झूठी तसल्लियों के लिए कोई जगह नहीं है। फूल, पत्ती, कुहुक, गांव-गांव चिल्लाकर लोक-लोक करने के बजाय यहां गांव, किसानी, मजूरी, जात और इनसे जुड़ी ज़िल्लतों, कमबख्तियों के बीच संघर्षों का असली लोक है।
नक्सल आंदोलन के असर में उभरे पंजाबी कवियों पाश, अमरजीत चंदन, सुरजीत पातर आदि के समकालीन दिल की ज़िंदगी की दास्तान कम कमबख़्तियों से भरी नहीं है। लेकिन, उसका जिक्र बाद के लिए, हालांकि वह हमारे समाज के टुच्चेपन की भी दास्तान है। वे दलित थे और इस सच ने इंकलाबी होने, बड़ा कवि होने और इस्लाम कबूल करने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा, इस दास्तान का एक मार्मिक पहलू है। एक लंबी इंतजार और कवि के जाने के बाद ही सही, आधार प्रकाशन ने उनकी कविताओं के हिंदी अनुवाद के प्रकाशन का ऐतिहासिक काम कर दिखाया है। अनुवाद का `आग का दरिया दिल से` गुजारने जैसा काम संवेदनशील हिंदी कवि सत्यपाल सहगलने किया है। और उनकी कविताओं के मिजाज सा ही कवर डिजाइन कवि भूपेंद्र सिंह बराड़का है। 
संग्रह से कुछ कविताएं-


मातृभूमि

प्यार का भी कोई कारण होता है?
महक की कोई जड़ होती है?
सच का हो न हो मकसद कोई
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता!

तुम्हारे नीले पहाड़ों के लिए नहीं
न नीले पानियों के लिए
यदि ये बूढ़ी माँ के बालों की तरह
सफेद-रंग भी होते
तब भी मैं तुझे प्यार करता
न होते तब भी
मैं तुझे प्यार करता
ये दौलतों के खजाने मेरे लिए तो नहीं
चाहे नहीं
प्यार का कोई कारण नहीं होता
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता

खजानों के साँप
तेरे गीत गाते हैं
सोने की चिड़िया कहते हैं।


लहर

वह
साँवली औरत
जब कभी बहुत खुशी से भरी
कहती है
``मैं बहुत हरामी हूं!``

वह बहुत कुछ झोंक देती है
मेरी तरह
तारकोल के नीचे जलती आग में
मूर्तियाँ
किताबें
अपनी जुत्ती का पाँव
बन रही छत
और
ईंटें ईंटें ईंटें।



हृढ़

वे तो हमें वहाँ फेंकते हैं
जहाँ शहीद गिरा करते हैं
, गिरते आये हैं
नहरों दरियाओं में जो, वही हमारे हैं
, कानून की चिताओं में
जो वही, अंग्रेंज वाले हैं
वहाँ लाखों करोड़ों देशभक्तों की राख है
उन्होंने सरमायेदार तो
एक भी नहीं जलाया
उन्होंने तो जट्टों सैणियों के लड़के
, झीवर पानी ढोते ही जलाये हैं
, भट्टों में कोयला झोंकने वाले लोग
काले काले प्यारे नैन-नक्श वाले पुरबीए।

वे तो हमें फेंकते हैं
हरी लचकीली काही* में
या पहाड़ी कीकरों की महक में, हम उनको
नालियों में
गोबरों में
कुत्तों के बीच से
लोगों की जूतियों के नीचे से घसीटेंगे

 * काही- नदियों, नहरों के किनारे उगने वाले सरकंडे



प्रतिकांति के पैर

सपना ही रह गया
कि फंदा पहनायेंगे
बुरे शरीफज़ादों को
वे लकीरें निकालेंगे नाक के साथ
हिसाब देंगे लोगों के आगे।

प्रतिक्रांति के पैर
हमारी छातियों पर आ टिके
ज़लील होना ही हमारा
जैसे एकमात्र
पड़ाव रह गया।


गैर विद्रोही कविता की तलाश


मुझे गैर विद्रोही
कविता की तलाश है
ताकि मुझे कोई दोस्त
मिल सके।
मैं अपनी सोच के नाखून
काटना चाहता हूँ
ताकि मुझे कोई
दोस्त मिल सके।
मैं और वह
सदा के लिए घुलमिल जायें।
पर कोई विषय
गैर विद्रोही नहीं मिलता
ताकि मुझे कोई दोस्त मिल सके।


हमारे लिए

हमारे लिए
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए
बहारें नहीं आतीं
हमारे लिए
इंकलाब नहीं आते


जात

मुझे प्यार करने वाली
पराई जात कुड़िये
हमारे सगे मुरदे भी
एक जगह नहीं जलाते
 -------

लाल सिंह दिल (1943-2007) 

आधार प्रकाशन
एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16
पंचकूला-134113 हरियाणा।

चे के शहादत दिवस पर गणेश विसपुते की कविता

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महान क्रांतिकारी और वामपंथी विचारक अर्नेस्टो चे गुएवारादुनिया भर में वंचित तबकों के संघर्षों के प्रतीक और प्रेरणास्रोत हैं। अर्जेन्टीना में जन्मे (14 जून 1928) डॉक्टर अर्नेस्टो क्यूबाई क्रांति के लिए हुए सशस्त्र संघर्ष में फिदेल कास्त्रोके चे (साथी) थे और फिर क्यूबा के हर नागरिक के। दुनिया भर में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ गरीब जनता के पक्ष में क्रांति का सपना देखने वाले चे ने लातिनी अमेरिकी देशों में जनता के संघर्षों में सीधे भागीदारी की। और इसी संघर्ष में हिस्सा लेते हुए वे आज ही के दिन 9 अक्टूबर 1967 को बोलीविया में शहीद हो गए। उनके शहादत दिवस पर मराठी कवि, चित्रकार, चिंतक गणेश विसपुतेकी यह कविता `मोटरसाइकिल डायरीज़` भारतभूषण तिवारी ने हिंदी में अनुवाद करके भेजी है। गौरतलब है कि `द मोटरसाइकिल डायरीज़` चे का मशहूर यात्रा वृत्तांत है जो अमेरिकी अत्याचारों और जनता के बुरे हालातों से उनके साक्षात्कार का दस्तावेज भी है। इसी शीर्षक से फिल्म भी बन चुकी है।
 
मोटरसाइकिल डायरीज़

डेढ़ सौ कुर्सियों वाले हॉल में तीन सौ लड़के
पसीने से तरबतर होते हुए भीड़ लगाए देख रहे हैं झुककर
चे गुएवारा की डायरी में
दो उँगलियों के बीच बेफिक्री से सिगार पकड़े हुए
चे लिख रहे हैं डायरी मग्न होकर
पीछे माउंट माक्चूपिक्चू का ऊंचा नीला पहाड़
उनकी डायरी में झांकते हुए पढ़ हे हैं लड़के
किसी उत्साही संस्था द्वारा रखे गए फ्री शो के लिए आए हुए
हॉल में भीड़ लगाए

सिगार से उठ रहे हैं धुएँ के छल्ले
चे लिखते हुए बैठे हैं डायरी
ऊपर से झांकते हुए धुएँ के छल्लों में
धूसर नज़र आते हैं उनकी डायरी के हर्फ़
मगर लड़कों ने पढ़ डाला है उन्हें स्पष्ट दिखाई देने वाला शब्द
लड़के भी लिखने लगे हैं डायरियाँ विसंगतियों की

दमे के मरीज चे की साँस फूल रही है और वे
नदी पार कर रहे हैं बड़े प्रयत्नपूर्वक
ऑक्सीजन पाने का प्रयास कर रहे हैं
डूब रहे-उतरा रहे हैं लड़के हाथ पैर मार रहे हैं
उन्हें चाहिए सीधी ज़िंदगी
उम्मीदों के बोझे तले से
उछल कर निकल जाने का प्रयास कर रहे हैं लड़के.
 

हिमालय के निर्जन की जमा देने वाली रात में
सार्च्यू के पठार पर सांय-सांय हवाएँ बहती हैं
पानी जमने लगता है
तम्बू से बाहर निकल कर ऊपर देखते हुए
जादुई सितारों की जगमगाती दुनिया
इंडिगो ब्लू आसमान में नीचे आ चुका होता है
सार्च्यू का पठार और दक्षिण अमेरिका के रास्तों की
फिल्में एक-दूसरे पर सुपरइम्पोज़ होती हैं

हिमालय के निर्जन में सार्च्यू के पठार पर
मोटरसाइकिलों पर कुछ लड़के आकर रुकते हैं
कड़कड़ाती उँगलियों से चाय के कप पकड़े
बातें करते हैं आगे के सफर की
आगे का रास्ता लेह को जाता है
शायद वही रास्ता और आगे भी जाता होगा
जहाँ पहुँचे थे
चे गुएवारा

गणेश विसपुते


















हिटलर के यातना शिविर हैं ये गांव- शंबूक

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देसां म्हैं देस हरियाणा जित......

30मार्च, शनिवार तक़रीबन शाम साढ़े 5बजे के आस-पास का बात है, जब मदीना गांव, भैराण रोड़ नहर पर दबंग जाति के लोगों द्वारा खेतों में मेहनत-मजूरी करके लौट रहे दलितों के साथ जमकर ख़ून की होली खेली गई। ताक़तवर दबंग जाति के ये बिगड़े हुए शोहदे बकायदा योजनाबद्ध तरीके से, हथियारों से लैस होकर, नहर के पास झाड़ियों में घात लगाए बैठे थे। दलित मज़दूरों में महिलाएं भी थीं और बच्चे भी। दिन भर की कड़ी मेहनत और पसीने से रवां शरीर, मज़दूरी ख़त्म होने के बाद जब शाम को सूरज ढल रहा होता है, दोबारा से नई ताज़गी हासिल कर लेता है। क्योंकि इस बात का इत्मीनान होता है कि आाज का काम ख़त्म। चेहरे पर मेहनत की लकीरें चुहलबाज़ी करने लगती हैं और हल्की-फुल्की चुटकियां लेते मज़दूर घर को लौटने लगते हैं। इसी वक़्त परींदे भी अपने घोंसलों को लौटते हैं। ये दलित परीवार भी इसी तरह अपने घर को लौट रहा था। इस बात से अनभिज्ञ कि नहर पर मौत उनका इंतज़ार कर रही है।
जैसे ही दलितों की बुग्गी नहर पर पहुंची, बदमाशोंने हमला बोल दिया। अंधाधुंध फायरिंग कर दी। एक 10साल के बच्चे के सिर में गोली लगी और बच्चा ख़ून से लथपथ तड़पने लगा। एक नौजवान की छाती में गोली लगी और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। एक नौजवान की जांघ में गोली लगी जो आज भी मेडिकल में ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। महिलाओं और लड़कियों ने खेतों में भागकर, छिपकर अपनी जान बचाई।
हादसे का कारण ये है कि दलितों ने बस्ती में महिलाओं के साथ बदसलूकी करने वाले दबंग जाति के इन बदमाशोंको टोक दिया था। ये घटना कोई 8-9महीने पहले की है। दबंग जाति के ये नौजवान एक मरतबा रात को जबरन एक दलित परिवार के घर में घुस गये अैर महिलाओं के साथ बदतमीज़ी करने लगे तो दलितों ने उसकी जमकर पिटाई की। गौरतलब है कि दलित बस्ती में गांव के सरपंच ने अपना अड्डा बना रखा है जहां दिन-रात लफंगे पड़े रहते है। राब पीते हैं, अय्याशीकरते हैं और कहीं भी खड़े होकर पेशाब करने लगते हैं। पानी भरने या अन्य किसी काम से भीतर-बाहर जाने वाली लड़कियों के साथ बदतमीज़ी करते हैं। शौच के लिये बाहर जाना पड़ता है, इस वक़्त महिलाओं को तंग किया जाता है और जोर-जबरदस्ती तक की नौबत आ जाती है। इन लफंगों ने पहले भी कई बार बस्ती में महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की है और कहासुनी हुई है। ये मामला 8-9महीने पुराना है। इस दरम्यान पुलिस थाने में भी कई बार इतिल्ला दी गई लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नही की। आज गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और दलित ख़ौफ के साये में हैं।
ऐसा ही सन्नाटा उस वक़्त पसरा था जब दलितों ने दबंग जाति के नौजवान की पिटाई की थी। तब जाटों ने योजना बनाई थी कि दलितों को गांव से खदेड़ दिया जाये। लेकिन गांव के ही एक पूर्व चेयरमैन और ज़िला प्रशासन के हस्तक्षेप से बड़ा हादसा टल गया था। बहरहाल उसी मौके पर लड़के ने भरी पंचायत में ऐलान कर दिया था कि मैं जेल से छूटते ही इन (दलित) लोगों को क़त्ल करूंगा। अभी कुछ दिन हुये ये लड़का जेल से छूटकर आया था। इसने आते ही अन्य बदमाशोंको इकठ्ठा किया, गैंग बनाया और दलितों की बर्बरतापूर्ण हत्या कर दी। गांव के लोंगों का मानना है कि अगर पुलिस समय रहते कार्रवाई करती तो ये हादसा टल सकता था।
गौरतलब है कि हरियाणा में ये कोई पहली घटना नही है और ना ही मदीना में पहली घटना है। मदीना में पहले भी दबंगों ने एक दलित की हत्या की थी और पंचायत आदि करके मामले को रफा-दफा कर दिया गया था। जाटों ने पीड़ित परिवार को मुआवज़ा देने की बात तय की थी लेकिन गांव गवाह है कि आज तक कोई मुआवज़ा नही दिया गया। इसके अलावा गाहे-बगाहे दलितों के साथ मारपीट आम है। एक बार एक दबंग जाति के किसान ने दलितों की चैहनीशमशानघाट पर कब्ज़ा कर लिया था और मात्र थोड़ी सी ज़मीन छोड़ दी। दलित बस्ती के लोग इकठ्ठा होकर तुरंत मौके पर पहुंचे तब शान घाट पर बाड़ की जा रही थी। दलितों ने ऐतराज़ जताया तो उन्होंने बहुत बेहूदा और घटिया अंदाज़ में कहा था कि ‘‘के सारे चूड़े कठ्ठे मरोगे, जो इतना बड़ा शान घाट चाहिये।’’
रविदास जयंति पर मदीना गांव में ही कुछ दबंग जाति के नौजवान जानबूझकर बार-बार महिलाओं में घुस रहे थे। वहीं पर पास में कढ़ाई चढा रखी थी, प्रसाद के लिये। कुछ नौजवान वहां बैठकर सब्ज़ी काट रहे थे, आलू वगैरह छील रहे थे। इन दलित नौजवानों ने जब उन लफंगों को टोका तो उन्होंने चाकू से हमला कर दिया। जिसमें तीन नौजवान घायल हुए। एक नौजवान का ज़ख़्म आज तक नही भरा है। इसके अलावा वाल्मीकि जाति के नौजवान पंकज को सर्दियों में दबंगों ने तक़रीबन जान से मार दिया था। ख़ुदा की ख़ैर है कि वो बच गया लेकिन छः महीने तक खाट भुगती। सर्दियों की बात है, सुबह 6-7बजे के आस-पास पंकज शौच आदि से निवृत्त होकर घर लौट रहा था। कोल्हू के पास दबंग जाति के नौजवान छिपे हुये थे। उन्होंने गुड़ बनाने वाले गरम पलटों से हमला बोल दिया....। मात्र मदीना ही नही बल्कि हर गांव में दलित उत्पीड़न के महाकाव्य हैं।
हरियाणा के गांव हिटलर के यातना शिविर बने हुए हैं। हर गांव में बर्बर हादसे सिर दबाये बैठे हैं। ये हर रोज़ गर्दन निकालते हैं और दलित ख़ून का घूंट पीकर, अपमान झेलकर, माफी आदि मांगकर इन हादसों को दो क़दम दूर ठेल देते हैं। रोजमर्रा के स्वाभाविक काम मसलन भीतर-बाहर आना-जाना, बच्चों का स्कूल जान, पानी लाना, दुकान से सौदा लाना, टट्टी-पेशाब जाना आदि अत्यंत अपमान से गुजरकर अंजाम पाते है। अगर कोई व्यक्ति ये स्वाभाविक क्रियाएं करने के लिये भी सौ बार सोचे तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति है। ग़रीबों का पूरा कुनबा खटता है तब पेट भरता है। दिहाड़ी-मजूरी करनी ही पड़ती है। दिहाड़ी के लिये इन्हीं के खेतों में जाना होता है। मजूरी के पैसे के लिये झगड़े होते हैं। ईंधन लेने जाने वाली महिलाओं के पीछे दबंग जाति के ये तथाकथित इज़्ज़तदार लोग और इनके सुपुत्र कपड़े निकाल कर भाग पड़ते हैं। अैसी कई घटनाएं सामने आई हैं। गुजारे के लिये कुछ परिवार पशुपालन करते हैं मसलन एकाध मुर्गी, बकरी या सुअर पालते है। इन पशुओं को लेकर दलितों को आये दिन धमकाया जाता है, पीटा जाता है। कई मरतबा पषुओं को ज़हर दे दिया जाता है। गांव में गुजारा कैसे हो? गांव में गुजारे के साधन यही हैं- ज़मीन, शुपालन या फिर दिहाड़ी-मजूरी। ज़मीन चाहे खेती योग्य हो या शामलाती, सब जगह वे ही पसरे पड़े हैं। जातिगत उत्पीड़न का ताल्लुक़ ज़मीन से सीधा है। हरियाणा में भूमि सुधार लागू किया जाना चाहिये और बेज़मीनी दलित परिवारों को भूमि आवंटित की जानी चाहिये।
दलित महिलाएं ताक़तवर तबकों के निशाने पर हैं। हरियाणा में पिछले दिनों हुई सामूहिक बलात्कार की घटनाओं में ज़्यादातर शिकार दलित लड़कियां हैं। दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी, बलात्कार करना दबंग जाति के ये लफंगे अपना अधिकार समझते हैं। शायद गाम-राम, मौज़िज़ लोग, पुलिस और प्रशासन भी। तभी तो कोई कार्रवाई नही होती। उल्टा अगर दलित ऐतराज़ ज़ाहिर करते हैं, महिलाएं विरोध करती हैं तो सबमें कभी खुली तो कभी छिपी प्रतिक्रिया होती है। मात्र मदीना ही नही तक़रीबन हर गांव में दलित बस्ती को इन लफंगों ने अपनी चारागाह बना रखा है। अगर कोई टोक दे तो मारपीट, क़त्ल, दंगा, आगजनी।
कितने अैसे मामले हैं जिनमें टोकने पर दलितों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और पंचायत में माफी भी मंगवाई और बेइज़्ज़त भी किया। सवाल उठता है कि ये असामाजिक तत्व इतना बेख़ौफ़ क्यों है? जवाब स्पष्ट है कि पुलिस, क़ानून, कोर्ट किसी बात का डर नही है। क्योंकि इन सब ने बार-बार दलित और महिला उत्पीड़न के मामलों में इन ताकतवर जातियों और लफंगों के साथ ही प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है। गौरतलब है कि दुलीना में पुलिस चौकी के अंदर पांच दलितों की पीट-पीट कर हत्या की गई थी, गोहाना में पुलिस की मौजूदगी में दलित बस्ती को आग लगाई और मिर्चपुर के दलित जब न्याय के लिये प्रतिरोध कर रहे थे तब उन पर लाठियां भांजी गई। सामूहिक बलात्कारों और यौन हिंसा के खि़लाफ रोहतक में प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर लाठीचार्ज किया गया। प्रदर्शन में पीड़ित लड़कियां, उनके परिजन और पूर्व सांसद वृंदा करात भी थी। इन असामाजिक तत्वों को दूसरी ताक़त मिलती है जात से, ज़मीन से, दलाली से आयी नई पूंजी से, खाप पंचयतों से, पुरूष होने के दंभ से। हरदम ग़रीबों की जान हलक़ में अटकाये रखने वाले ये बदमाश हरियाणा की राजनीति को चलाने के महत्वपूर्ण क़िरदार हैं। इनको बकायदा राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है। क्योंकि दलित, अल्पसंख्यक, महिलाओं के साथ मनमर्ज़ी करना, अपमान करना, बेगार कराना इन बातों को सामाजिक स्वीकार्यता है, हरियाणा के दंभी समाज में।
इसलिये इस तरह की घिनौनी हरकतों को टोल बनाकर, गैंग बनाकर भीड़ बनाकर अंज़ाम दिया जाता है। इसके कई फायदे हैं ताकत तो बढ़ती ही है, इसके अलावा क़ानूनी चोर दरवाज़ों की मदद भी मिलती है। चाहे दुलीना का मामला हो, चाहे मिर्चपुर हो, हरसौला हो या फिर गोहाना हो या फिर मदीना हो, टोल बनाकर, इकठ्ठे होकर ये लोग अपनी ताकत का झण्डा कमजोरों की छाती में गाड़ते हैं। परिणामस्वरूप केस ज़्यादा लोगों के ख़िलाफ दर्ज़ होता है। इस बात पर और अधिक प्रतिक्रिया होती है। यहां तक कि कई संवेदनषील व समझदार लोग भी बेक़सूरोंको बचाने की दुहाई देने लगते हैं। ये फिनोमिना की तरह सामने आया है। मिर्चपुर में बेक़सूरोंको बचाने के लिये पंचायतें हुई। प्रगतिषील लोगों ने भी सुर में सुर मिलाया। आॅनर किलिंग के मामलों में भी अैसी बात सामने आई और अब मदीना में भी 1अप्रैल को जाटों की पंचायत हुई। जिसमें यही बात सामने आई कि बेक़सूरोंके नाम भी लिखे गये हैं। मदीना कांड मामले की जांच कर रहे एसपी राजेष दुग्गल का कहना है कि ‘‘मामला गंभीर है और बेक़सूरों को सजा नही मिलनी चाहिये।’’ कमाल है बिना किसी कार्रवाई, पूछताछ, जांच, गिरफ्तारी के इन्हें कैसे मालूम पड़ जाता है कि कौन बेक़सूर है। दलित उत्पीड़न के केस में ये अधिकारी जांच करने की बजाय अंतर्यामी बन जाते हैं। गौरतलब है कि गांव के सरपंच जितेन्द्र के ख़िलाफ भी एफआईआर है। लेकिन वो गांव में खुला घूम रहा है और उसी ने गांव में पहलकदमी करके समानांतर पंचायत का आयोजन किया। जिसमे दलितों के किसी प्रतिनिधि और पीड़ित परीवार को पक्ष रखने के लिये षरीक तक नही किया गया। इससे साफ पता चलता है कि इस तरह की पंचायतों के क्या रूझान हैं। जिस पर गुजरी है वो ढंग से एफआईआर भी नही करा सकता। ये सुनिष्ति करना बहुत ज़रूरी है कि पीड़ितों के द्वारा दर्ज़ कराई गई एफआईआर को ही जांच का आधार बनाया जाये और भविष्यवाणी के आधार पर स्वयंभू न्यायधीष बनने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो।
इन गांवों की रोजमर्रा की ज़िंदगी में फासीवाद पसरा पड़ा है। प्रतिदिन का अपमान और उत्पीड़न, थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बर्बर हमले और उसके बाद न्याय की लड़ाई। न्याय की प्रक्रिया और भी कष्टकारी है। क्येंकि बाद में धमकियों का दौर षुरू हो जाता है। डराया जाता है, कर्ज़ वापसी का दबाव बनाया जाता है, स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है, दुकानों से सामान नही लेने दिया जाता मतलब पूरी ज़िंदगी अस्त-व्यस्त। हरियाणा में कितनी ही बार दलित विस्थापन की नौबत आई है। 200-250परिवार, बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे, पषु वगैरह खुले आसमान के नीचे मौसम की मार खाते हैं। मिर्चपुर के ज़्यादातर परिवार अभी गांव से बेदखल हैं।
प्रष्न ये उठता है कि पुलिस, नौकरषाह, राजनेता, न्यायपालिका क्या अफीम खाये बैठे हैं। कब तक महिला सषक्तिकरण और दलित उत्थान के गूंगे ढोल पीटते रहेंगे। हरियाणा में दलित आयोग का गठन क्यों नहीं किया जा रहा है। ये सुनिश्चित किया जाये कि आयोग में ऐसे लोग हों जो सामाजिक न्याय और जातिगत मसलों पर संवेदनशील हों, जिनका इन मसलों पर संघर्ष करने का रिकार्ड हो। वर्ना महिला आयोग की तरह ही खानापूर्ति होगी। जगजाहिर है कि हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष ने लड़कियों के लिये ड्रैस कोडकी वकालत की थी। यूं तो 6-7महीने पहले ही हरियाणा में मानवाधिकार आयोग बनाया गया है, जो ख़ुद दयनीय हालत में है। आयोग के नाम पर बेहूदा मज़ाक। ये और भी ज़्यादा भयानक बात है क्योंकि उत्पीड़ित तबकों के हक़ों, मान-सम्मान और सुरक्षा के लिये बनी महत्वपूर्ण एजेंसी प्रहसन बन जाती है। उत्पीड़ितों के बचे-खुचे एकाध सहारे भी छीन लिये जाते हैं, उनका अपहरण कर लिया जाता है।
जिस भी इलाके में जातिगत हिंसा होती है वहां पर कार्रवाई ना करने वाले पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को दोषी करार दिया जाये, सजा मिले। चुने हुये प्रतिनिधियों की जवाबदेही फिक्सकी जाए। इस तरह के मामलों पर उल-जुलूल बयान देने वाले राजनेताओं और पंचायतियों पर भी कार्रवाई की जाये। केस के दौरान होने वाली पंचायतों पर अंकुश लगे जो गुण्डों को बचाने के भोंडे तर्क देते हैं। पीड़ितों पर दबाव बनाते हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। दलित उत्पीड़न के केसों में पीड़ितों के द्वारा बार-बार जोर दिये जाने के वजूद भी एससीएसटी एक्ट नही लगाया जाता। मात्र पुलिस ही नही बल्कि आमतौर पर समाज में भी जातिगत हिंसा को आम झगड़े व अपराध की तरह देखने का रुझान है। दुख और हैरानी की बात ये है कि संवेदनशील लोग भी इस रुझान की चपेट में आ जाते हैं। असल में एफआईआर दर्ज़ कराना ही महाभारत है और अगर हो भी जाये तो साधारण मारपीट, झगड़े आदि के केस बनाये जाते हैं। एफआईआर दर्ज़ करने की प्रक्रिया सुगम बने और कार्यरत प्रभारी कर्मियों की मनमानी पर अंकुश लगाने और उन्हें मॉनीटर करने का प्रबंध किया जाये। एफआईआार दर्ज़ ना करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो। असल में विडम्बना ये है कि बदमाशों के पास आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक ताकत है, साथ ही औपचारिक और अनौपचारिक ढांचे भी कहीं न कहीं इन्हें ही सर्पोट मुहैया कराते हैं। ग़रीब, दलित और महिलाओं के मदद, सुरक्षा और न्याय के लिये बनी एजेंसियों मसलन थानों आदि तक से ये तबके तौबा करते हैं, डरते हैं। ये बड़ा प्रश्न है कि कानूनों को व्यवहारिक तौर पर अमल में कैसे लाया जाये? थाने, तहसील, कोर्ट, पुलिस, प्रशासन को अपना क़िरदार बदलना होगा। ताकि पीड़ित लोग बेहिचक अपनी शिकायतें दर्ज़ करा पाएं और बदमाशों के आत्मविष्वास को ढीला किया जाये। वर्ना एफआईआर, शिकायत तो दूर की बात, अभी तो हालत ये है कि आपका कलेजा निकाल लें और रोने भी ना दें।

नोटः- गौरतलब है कि मदीना काण्ड में 18लोगों के खि़लाफ एफआईआर दर्ज़ है लेकिन अब तक मात्र चार लोगों को ही गिरफ्तार किया गया है। इसी दरम्यान पबनावा कैथल में भी जातिगत उत्पीड़न का गंभीर मामला सामने आ चुका है। हिसार ज़िला के कल्लर भैणी गांव में 15साल के बच्चे से दबंगों ने पानी का बर्तन छीन लिया, बर्तन का पानी उड़ेला और पीने के पानी के बर्तन में पेषाब किया। लड़के के मामा ने विरोध किया तो जातिसूचक गालियां दी, लाठियों और बल्लम से उस पर हमला बोल दिया। यहां भी दबंग जाति के इन लफंगों ने दलित बस्ती को अपना अड्डा बना रखा है।
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(मार्च 2013 में मदीना कांड के बाद दिल्ली से वहां गए एक दलित युवक ने येबातें मेल के जरिये भेजी थीं। तब से जींद में दलित युवती के साथ रेप औरउसकी हत्या समेत जाने कितनी वारदातें हो चुकी हैं। उन सभी को इस मेल कीरोशनी में देखा जा सकता है कि हर बार सरकार और उसकी मशीनरी का रवैया वहीरहता है। चाहें तो हरियाणा के पड़ोसी राज्यों और देश के बाकी हिस्सों केगांवों को भी इस मेल की रोशनी में देख-समझ सकते हैं। इसीलिए इस पुराने मेलको इतने दिन बाद भी पूरी तरह प्रासंगिक पाकर यहां चिपका रहा हूं।-धीरेश)

विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है - असद ज़ैदी

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`प्रभात खबर` अख़बार में छपा वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का इंटरव्यू

‘कविता’ आपके लिए क्या है?

कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीक़ा है। पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ़ते हों। कविता समाज को मुख़ातिब करती बाहरी आवाज़ नहीं, समाज ही में पैदा होने वाली एक आवाज़ है। चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख़। यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है। एक बात यह भी है कि कविता आदमी पर अपनी छाप छोड़ती है - जैसी कोई कविता लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इन्सान।


लेखन की शुरुआत स्वत: स्फूर्त थी या कोई प्रेरणा थी?

खुद अपने जीवन को उलट पुलटकर देखते, और जो पढ़ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मैं लिखने की तरफ़ माइल हुआ। घर में तालीम की क़द्र तो थी पर नाविल पढ़ने, सिनेमा देखने, बीड़ी सिगरेट पीने, शेरो-शाइरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था। यह लड़के के बिगड़ने या बुरी संगत में पड़ने की अलामतें थीं। लिहाज़ा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था। पर मिज़ाज में बग़ावत है, यह सब पर ज़ाहिर था।


आपने शुरुआत कहानी से की थी फिर कविता की ओर आये. कविता विधा ही क्यों?

शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से। मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है। यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है। कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है, और उसे किफ़ायत से बरतना भी सिखाती है। कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज़ है। वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है। हर कवि के अंदर कई तरह के लोग - संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार, फ़िल्मकार, कथाकार, मिनिएचरिस्ट, अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन श्रोता और एक ख़ामोश आदमी - हरदम मौजूद होते हैं।


अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.

मैं अक्सर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूँ। जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या ख़बर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फ़लाँ बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं। कई दफ़े अवचेतन में बनती कोई तस्वीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है जैसे कोई फ़िल्म निगेटिव अचानक धुलकर छापे जाना माँगता हो। मिर्ज़ा ने बड़ी अच्छी बात कही है - 'हैं ख़्वाब में हनोज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।'

दरअसल रचना प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज़ हो जाती है। यह तो बाद में जानने या फ़िक्र में लाने की चीज़ है। यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है - चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो - जो रचना में कोई मदद नहीं करता।

मुक्तिबोध से बेहतर चिंतन इस मामले में किसी ने नहीं किया, वह इन मामलात की गहराई में गए थे। 'कला का तीसरा क्षण'निबंध और 'बाह्य के आभ्यंत्रीकरण'और 'अभ्यन्तर के बाह्यकरण'का चक्रीय सिद्धान्त जानने और समझने की चीज़ें हैं। लेकिन मुझे यक़ीन है कवि के रूप में मुक्तिबोध 'तीसरे क्षण'के इन्तिज़ार में नहीं बैठे रहते थे।


अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज और परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?

संबंध इस तरह का है कि 'दस्ते तहे संग आमदः पैमाने वफ़ा है' (ग़ालिब)। मैं इन्ही चीज़ों के नीचे दबा हुआ हूँ, इनसे स्वतंत्र नहीं हूँ। लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड़ी राहत की बात है।


क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?

पानी में गीलापन होना उचित माना जाए या नहीं, वह उसमें होता है। समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है - आदिम गुफाचित्रों के समय से ही। विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं। बाज़ार से लाकर रचना पर कोई चीज़ थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीचकर या बीनकर निकालना बुरी बात है। यह उसकी मनुष्यता का हरण है। और एक झूटी गवाही देने की तरह है।


आप अपनी कविताओं में बहुत सहजता से देश और दुनिया की राजनीतिक विसंगतियों को आम आदमी की जिंदगी से जोड़ कर एक संवाद पेश करते हैं. क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?

मौजूदा वक़्त ख़राब है, और शायद इससे भी ख़राब वक़्त आने वाला है। यह कविता के लिए अच्छी बात है। कविकर्म की चुनौती और ज़िम्मेदारी, और कविता का अंतःकरण इसी से बनता है। अच्छे वक़्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गई हो। जो लिखी भी गई है वह बुरे वक़्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही। जहाँ तक कवि की आवाज़ के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिन्ता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि ख़ुद अपनी आवाज़ सुन पा रहा है? या उसी में एबज़ॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके तो बाक़ी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा।


आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) आपके साथ ‘हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है? इसके पीछे क्या वजहें हो सकती हैं?

मैं अपना ही आकलन कैसे करूँ! या क्या कहूँ? ऐसी कोई ख़ास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई। मेरी पिछली किताब मेरे ख़याल में ग़ौर से पढ़ी गई और चर्चा में भी रही। कुछ इधर का लेखन भी। इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला।


लेखन से जुड़े पुरस्कारों को कितना अहम मानते हैं एक लेखक के लिए?

मुझे अपने मित्र पंकज चतुर्वेदी की कविता 'कृतज्ञ और नतमस्तक'की याद आ रही है। यह कालजयी रचना बहुत थोड़े शब्दों में वह सब कह देती है जो इस मसले पर कहा जा सकता है।


कृतज्ञ और नतमस्तक
पंकज चतुर्वेदी

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे ख़ुद को
और पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना


आप अपनी सबसे प्रिय रचना के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?

इस बारे में राय बदलता रहता हूँ, किसी समय कोई कविता ठीक लगती है किसी और समय दूसरी। मेरे दोस्तों से पूछिए तो कहेंगे मेरी ज़्यादातर रचनाएँ अप्रिय रचनाएँ हैं। यह भी ठीक बात है। उन लोगों को जो पसन्द हैं - या सख़्त नापसंद हैं - वे कविताएँ हैं : बहनें, संस्कार, आयशा के लिए कुछ कविताएँ, पुश्तैनी तोप, दिल्ली दर्शन, कविता का जीवन, अप्रकाशित कविता, सामान की तलाश, आदि।


इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं? और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?

कुछ ख़ास नहीं। वही जो हमेशा से करता रहा हूँ। मेरी ज़्यादातर प्रेरणाएँ और मशग़ले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है। समाजविज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर "थ्री एसेज़"प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूँ। और अपना लिखना पढ़ना भी करता ही रहता हूँ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख़ासकर ख़याल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुज़ार दी है।


ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद ज़ेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?

चलते चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। मैं पुराना पाठक हूँ। जवाब देने बैठूँ तो बक़ौल शाइर - 'वो बदख़ू और मेरी दास्ताने-इश्क़ तूलानी / इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे।'कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अन्तोन चेख़व की कहानी 'वान्का'जो मैंने किशोर उम्र में ही पढ़ ली थीं ज़ेहन में नक़्श हो गईं हैं। इसके बाद की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बीहै।
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`प्रभात खबर ` में इस बातचीत के कुछ पैराग्राफ नहीं हैं।

सुधीश पचौरी की उत्तर आधुनिक बेशर्मी

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वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल कैंसर से जूझ रहे हैं, पूरी ज़िंदादिली के साथ। उनके दोस्तों और उन्हें चाहने वालों ने अपने इस प्यारे कवि को पिछले दिनों एक कार्यक्रम आयोजित कर दिल्ली बुलाया था। जाने क्यों यह बात सुधीश पचौरी को हज़म नहीं हुई और उन्होंने `हिन्दुस्तान` अख़बार में में वमन कर डाला। जनवाद के नाम पर मलाई चाटने के बाद वक़्त बदलते ही `आधुनिक-उत्तर आधुनिक` होकर वामपंथ को कोसने और हर बेशर्मी को जायज ठहराने के धंधे में जुटे शख्स की ऐसी घिनौनी हरकत पर हैरानी भी नहीं है। `समयांतर` के `दिल्ली मेल` स्तंभ में इस बारे में एक तीखी टिपण्णी छपी है जिसे यहां साझा किया जा रहा है। 


शारीरिकबनाममानसिकरुग्णता
पहलेयहटिप्पणीदेखलीजिए:
''एकगोष्ठीमेंएकथोड़ेजीआएऔरएकअकादमीबनादिएगएकविकेबारेमेंबोलेवहउनथोड़ेसेकवियोंमेंहैं, जोइनदिनोंअस्वस्थचलरहेहैं।वहगोष्ठीकविताकीअपेक्षाकविकेस्वास्थ्यपरगोष्ठितहोगई।फिरस्वास्थ्यसेफिसलकरकविकीमिजाजपुरसीकीओरगई।थोड़ेजीबोलेकिउनकाअस्वस्थहोनाएकअफवाहहै, क्योंकिउनकेचेहरेपरहंसीशरारतअबभीवैसीहीहै।(क्यागजब'फेसरीडिंग` है? जराशरारतेंभीगिनादेतेहुजूर)हमनेजबथोड़ेजीकेबारेमेंउसथोड़ीसीशाममेंमिलनेवालेथोड़ोंसेसुना, तोलगाकियारयेसवालतोथोड़ेजीसेकिसीनेपूछाहीनहींकिभईथोड़ेजीआपकविताकरतेहैंयाबीमारीकरतेहैं? बीमारीकरतेहैंतोक्यावेबुजुर्गचमचेआपकेडाक्टरहैंजोदवादेरहेहैं।लेकिन'चमचई` मेंऐसेसवालपूछनामनाहै।``
यहटुकड़ा'ट्विटरागायन, ट्विटरावादन!` शीर्षकव्यंग्यकाहिस्साहैजोदिल्लीसेप्रकाशितहोनेवालेहिंदीदैनिकहिंदुस्तानमें 6 अक्टूबरकोछपाथा।इसव्यंग्यकीविशेषतायहहैकियहएकऐसेव्यक्तिकोनिशानाबनाताहैजोएकदुर्दांतबीमारीसेलड़रहाहै।हिंदीकेअधिकांशलोगजानतेहैंकिवहकौनव्यक्तिहै।दुनियामेंशायदहीकोईलेखकहोजोबीमारपरव्यंग्यकरनेकीइसतरहकीनिर्ममता, रुग्णमानसिकताऔरकमीनापनदिखानेकीहिम्मतकरसकताहो।
परयहकुकर्मसुधीशपचौरीनेकियाहैजिसेअखबार'हिंदीसाहित्यकार` बतलाताहै।हिंदीवालेजानतेहैंयहव्यक्तिखुरचनियाव्यंग्यकारहैजिसकीकॉलमिस्टीसंबंधोंऔरचाटुकारिताकेबलपरचलतीहै।
इसव्यंग्यमेंउसगोष्ठीकासंदर्भहैजोसाहित्यअकादेमीपुरस्कारसेसम्मानितसबसेमहत्त्वपूर्णसमकालीनजनकविवीरेनडंगवालकोलेकरदिल्लीमेंअगस्तमेंहुईथी।वहनिजीव्यवहारकेकारणभीउतनेहीलोकप्रियहैंजितनेकिकविकेरूपमें।वीरेनउनसाहसीलोगोंमेंसेहैंजिन्होंनेअपनीबीमारीकेबारेमेंछिपायानहींहै।वहकैंसरसेपीडि़तहैंऔरदिल्लीमेंउनकाइलाजचलरहाहै।पिछलेहीमाहउनकाआपरेशनभीहुआहै।
हमव्यंग्यकेनामपरइसतरहकीअमानवीयताकीभत्र्सनाकरतेहैंऔरहिंदीसमाजसेभीअपीलकरतेहैंकिइसव्यक्तिकी, जोआजीवनअध्यापकरहाहैनिंदाकरनेसेचूके।यहसोचकरभीहमारीआत्माकांपतीहैकियहअपनेछात्रोंकोक्यापढ़ाताहोगा।हमउसअखबारयानीहिंदुस्तानऔरउसकेसंपादककीभीनिंदाकरतेहैंजिसनेयहव्यंग्यबिनासोचे-समझेछपनेदिया।हममांगकरतेहैंकिअखबारइसघटियापनकेलिएतत्कालमाफीमांगेऔरइसस्तंभकोबंदकरे।
परकविवीरेनडंगवालपरयहअक्टूबरमेंहुआदूसराहमलाथा।ऐनउसीदिनजनसत्तामें'पुरस्कारलोलुपसमयमें` शीर्षकलेखछपाऔरउसमेंअकारणवीरेनकोघसीटागयाकिउन्हेंकिसगलततरीकेसेसाहित्यअकादेमीपुरस्कारमिला।लेखकयहकहनेकीहिम्मतनहींजुटापायाकिवहइसकेलायकनहींथे।परअरुणकमलऔरलीलाधरजगूड़ीजैसेअवसरवादियोंकोयहपुरस्कारक्योंऔरकिसतरहमिलाइसपरकोईबातनहींकीगई(क्योंकिवेअकादेमीकेसदस्यहैं)परसबसेविचित्रबातयहहैकिइसलेखकेलेखकनेयहनहींबतलायाकिसाहित्यअकादेमीकेइतिहासमेंअबतककासबसेभ्रष्टपुरस्कारअगरकिसीकोमिलाहैतोवहउदयप्रकाशकोमिलाहैजोतत्कालीनउपाध्यक्षऔरवर्तमानअध्यक्षविश्वनाथप्रसादतिवारीकेकारणदियागया।यहपुरस्कारयहीनहींकिरातों-रातएकखराबकहानीकोउपन्यासबनाकरदियागयाबल्किइसेलेनेकेलिएगोरखपुरकेहिंदूफासिस्टनेताआदित्यनाथकेदबावकाभीइस्तेमालकियागया।
इसकेदोकारणहोसकतेहैं।पहलावामपंथियोंपरकिसीकिसीबहानेआक्रमणकरनाऔरदूसरालेखकहीनहींबल्किअखबारकासंपादकभीअकादेमीकेटुकड़ोंसेलाभान्वितहोतारहताहैऔरअगलेचारवर्षोंतकहोतारहेगा।
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समयांतरके नवंबर, 2013 अंक से साभार

ख्वाजादास के पद वाया मृत्युंजय

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पिछले कुछ दिनों से वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी पर महाकवि ख्वाजादास की कृपा बनी हुई है। खुशी की बात यह है कि अब वे हमारे एक और बेहतरीन हिंदी कवि मृत्युंजयपर भी नाजिल हुए हैं। उन्होंने जो फरमाया, वह मृत्युंजय भाई की ही जुबानी-
 


[ख्वाजादास से असद जी ज़ैदी साहब ने तआररूफ़ करवाया था। असद जी की साखी पर मुझ नाचीज पर भी उनकी अहेतुक कृपा बरसी।]

[क]
सुबकत-अफनत ख्वाजादास !
नैहर-सासुर दोनों छूटा टूटी निर्गुनिये से आस
लतफत लोर हकासल चोला बीच करेजे अटकी फांस
गगने-पवने, माटी-पानी, अगिन काहु पर नहिं बिस्वास
थहकल गोड़ रीढ़ पर हमला जुद्धभूमि में उखड़ी  सांस  
सुन्न सिखर पर जख्म हरियरा फूलन लागे चहुंदिस बांस 
जेतने संगी सब मतिभंगी नुचड़ी-चिथड़ी दिखे उजास
बिरिछे बिरिछे टंगी चतुर्दिक फरहादो शीरीं की लाश

[ख]
ख्वाजादास पिया नहिं बहुरे !
नैनन नीर न जीव ठेकाने कथा फेरु नहिं कहु रे
यह रणभूमि नित्यप्रति खांडा गर्दन पे लपकहु रे 
ज़ोर जुलुम तन-मन-धन लूटत, जेठे कभु कभु लहुरे
कवन राहि तुम बिन अवगाहों खाय मरो अब महुरे
जहर तीर बेधत हैं तन-मन अगिन कांट करकहु रे
तुम्हरी आस फूल गूलर कै मन हरिना डरपहु रे
नाहिं कछू, हम कटि-लड़ि मरबों पाछे जनि आवहु रे

[ग]
ख्वाजा का पियवा रूठा रे !
भीतर धधकत मुंह नहिं खोलत दुबिधा परा अनूठा रे
आवहु सखि मिलि गेह सँभारो गुरु के छपरा टूटा रे
कोही कूर कुचाली कादर कुटिल कलंकी लूटा रे  
जप तप जोग समाधि हकीकी इश्क कोलाहल झूठा रे
पछिम दिसा से चक्रवात घट-पट-पनघट सब छूटा रे
मन महजिद पे मूसर धमकत राई-रत्ता कूटा रे   
सहमा-सिकुड़ा-डरा देस का पत्ता, बूटा-बूटा रे  

[घ]
ख्वाजा, संत बजार गये !
बधना असनी रेहल माला सब कुछ यहीं उतार गये
जतन से ओढ़ी धवल कामरी कचड़ा बीच लबार गये 
जनम करम की नासी सब गति करने को व्योपार गये
छोड़ि संग लकुटी-कामरि को हाथ लिये ज्योनार गये
नेम पेम जप जोग ज्ञान सब झोंकि आगि पतवार गये
हड़बड़ तड़बड़ लंगटा-लोटा बीच गली में डार गये
नये राज की नयी नीत के सिजदे को दरबार गये
 
[ङ]
ख्वाजा कहा होय अफनाये !
राजनीति बिष बेल लहालह धरम क दूध पियाये
देवल महजिद पण्य छापरी पंडित - मुल्ला छाये
सतचितसंवेदन पजारि के कुबुधि फसल उपजाये
देस पीर की झोरी - चादर साखा मृग नोचवाये
मन भीतर सौ-सौ तहखाना घृणा प्रपंच रचाये
दुरदिन दमन दुक्ख दरवाजे दंभिन राज बनाये
सांवर सखी संग हम रन में जो हो सो हो जाये

(ऊपर पेटिंग जाने-माने चित्रकार मनजीत बावा की है।)

मुज़फ़्फ़रनगर के ओमप्रकाश वाल्मीकि

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ओमप्रकाश वाल्मीकि मुज़फ़्फ़रनगर जिले के थे और इस तरह एक चलन की तरह मैं कह सकता हूं कि यह मेरी निजी क्षति है। कहने को मुज़फ़्फ़रनगर की `साहित्यिक?` संस्थाएं भी ऐसे बयान अखबारों के लोकल पन्नों पर छपवा सकती हैं कि यह उनकी और मुज़फ़्फ़रनगर की `अपूर्णीय क्षति` है। लेकिन, सच यह है कि वे दिल्ली-देहरादून राजमार्ग पर मुज़फ़्फ़रनगर जिला मुख्यालय के पास ही स्थित बरला गांव में पले-बढ़े होने के बावजूद न मुज़फ़्फ़रनगर के ताकतवर सामाजिक-सांस्कृतिक मिजाज का प्रतिनिधित्व करते थे और न खुद को साहित्य-संस्कृति की संस्था कहने वाले स्थानीय सवर्ण नेतृत्व वाले जमावड़ों का। ऊपर से कोई कुछ भी कहे, इन संस्थाओं के हालचाल, इनकी नातियों, एजेंडों और इनकी किताबों को देखते ही पता चल जाएगा कि वाल्मीकि जी बचपन के प्राइमरी स्कूल के त्यागी मास्टर की तरह इनके लिए भी `अबे चूहडे के` ही बने रहे। जिन संस्थाओं ने कवि सम्मेलनों के मंच पर ज़िंदगी भर अश्लील-फूहड़ चुटकुलेबाजी करने वाले सत्यदेव शास्त्री भोंपू को हास्यारसावतार बताकर उसकी पालकी ढ़ोई हो और जहां कभी जाति, वर्ग और दूसरे यथार्थवादी सवालों पर बहस आते ही इस्तीफों और निष्कासन की नौबत आ जाती हो, जिन संस्थाओं की सालाना किताबें फूहड़ ब्राह्मणवादी, स्त्री विरोधी और उन्मादी और दक्षिणपंथी सामग्री से भरी रहती हों, वहां वाल्मीकि जी को आयकन होना भी नहीं चाहिए था।

लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से परिचय से पहले स्कूली दिनों मैंने शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा `अक्करमाशी` के बारे में किसी अखबार के इतवारी पन्ने पर पढ़ा था और किसी तरह दिल्ली पहुंचकर यह किताब हासिल भी कर ली थी। इस किताब ने दिल-दिमाग में तूफान खड़ा कर दिया था। जूठन चूंकि अपने ही आसपास की `कहानी` थी, उसे पढ़ने पर बेचैनी और ज्यादा बढ़ जाना स्वाभाविक था। मैंने कई लोगों को बड़ी बेशर्मी से यह कहते भी सुना कि मेलोड़्रामा पैदा कर किताब बेचने का यह बढ़िया तरीका है। इनमें एक सज्जन गाहे-बगाहे दलितों के प्रति भावभीने उद्गार सुनाने में प्रवीण थे। मैंने कहा कि कौन नहीं जानता कि इसमें लिखा एक-एक शब्द सही है और गांव का नाम बदलने और मास्टर से पहले त्यागी की जगह जाट, राजपूत वगैरहा ऐसा कोई दूसरा `ताकतवर शब्द` जोड़ देने से भी उतना ही सही रहता है।

1992 के बाद के किसी साल वाल्मीकि जी मुज़फ़्फ़रनगर के लेखकों के पास रुके होंगे। मुझे अगले दिन `अमर उजाला` में पहुंची `वाणी` नाम की एक संस्था की प्रेस विज्ञप्ति से यह पता चला। उन्होंने गोष्ठी में क्या कहा, स्थानीय लेखकों से उनकी क्या बातचीत हुई, इस बारे में विज्ञप्ति में कोई शब्द नहीं था। मैंने उनके कार्यक्रम की कोई पूर्व सूचना न देने और विज्ञप्ति में उनकी कही बातों का जिक्र तक न होने पर नाराजगी जताई तो वाणी के एक जिम्मेदार पदाधिकारी ने बताया कि वे तो बस यूं ही आए थे, मुलाकात हुई, कुछ बातें हुईं। पिछले साल इसी संस्था की सालाना किताब के संपादन की जिम्मेदारी एक दलित युवक को दी गई थी जिसने `समन्वय` उनवान को सार्थक बनाने के लिए पूरा समर्पण कर रखा था। तो भी संस्था के सवर्ण संचालकों को जाने क्या नागवार गुजरा कि इस बरस शर्त बना दी गई कि रचनाएं शोधपरक न हों और सद्भाव बिगाड़ने वाली न हों। तो मुझे लगता है कि उस दिन बाल्मीकि जी की बातें `सद्भाव की हिफाजत` करने के लिहाज से ही जारी नहीं की गई होंगी।

मेरे लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि की `जूठन` मेरे `घर` के यथार्थ को सामने रखने वाली किताब थी और वे इस जिले की उन हस्तियों की तरह मेरे लिए गौरव की वजह थे जिन्हें मुख्यधारा या तो भुलाए रखती है या याद भी करती है तो इस तरह कि उनकी ज़िंदगी और उनके कामों के जिक्र से कथित सद्भाव में कोई खलल न पड़े। वाल्मीकि जी ने कई उल्लेखनीय कविताएं और कहानियां लिखीं पर `जूठन` के साथ कुछ ऐसा रहा कि वह मेरे पास कभी नहीं रह सकी। मैं इस किताब को हमेशा किसी को पढ़ने के लिए देता रहा और मौका लगते ही फिर-फिर खरीदता रहा। `अमर उजाला` ने करनाल भेज दिया तो वहां रंगकर्मी युवक अमित नागपाल ने `जूठन` के कुछ हिस्सों की अनेक बार एकल प्रस्तुति दी। तरह-तरह के तर्क देकर इस मंचन को रोकने की कोशिशें बार-बार की गईं। युवा महोत्सव में यह तर्क दिया गया कि एक अकेले कलाकार की प्रस्तुति को सामूहिकता दर्शाने वाले कार्यक्रम में नहीं होना चाहिए। कॉलेजों के ऐसे जाहिल और धूर्त मास्टरों-`कला-संरक्षकों` को उनकी असल चिढ़ का कारण बताकर हम लोगों ने हमेशा चुप भी कराया।

संयोग से वाल्मीकि जी से एकमात्र मुलाकात कुछ बरस पहले रोहतक में एक सेमिनार में हुई थी। उनकी कई बातों से मैं सहमत नहीं था बल्कि कई बातों से हैरान था। सीपीआईएम से जुड़े लोगों और बहुजन समाजवादी पार्टी से जुड़े एक अध्यापक व उनके कार्यकर्ताओं के रवैये से सेमिनार में सवाल-जवाब का मौका भी नहीं मिल सका। मैं उनसे फिर कभी मिलकर विस्तार से बहुत सारी बातें करना चाहता था। उन्हें लम्बे समय से पसंद करने की अपनी वजहें एक आम कस्बाई पाठक की तरह बताना चाहता था और उनसे अपनी असहमतियों और सामने खड़े खतरों पर चर्चा करना चाहता था। इन दिनों जबकि मुज़फ़्फ़रनगर उन्हीं मनुवादी ताकतों की साम्प्रदायिक चालों का शिकार हो रहा हो, जिनके खिलाफ संघर्ष से उनका लेखन निकला था, ये बातें और भी ज्यादा जरूरी लग रही थीं। मुझे उम्मीद थी कि वे ठीक होकर फिर से सक्रिय होंगे।

`जनसंदेश टाइम्स` अखबार में आज 18 नवंबर को प्रकाशित।
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और मुज़फ़्फ़रनगर के ही रहने वाले कवि-मित्र परमेंद्र सिंहकी फेसबुक पर इस पोस्ट पर आई टिपण्णी के बिना ओमप्रकाश वाल्मीकि और मुज़फ़्फ़रनगर के साहित्यिक समाज के रिश्ते की यह गाथा अधूरी रह जाती। इसलिए वह टिपण्णी यहां भी साझा कर रहा हूं-`ओमप्रकाश वाल्मीकि का निधन एक बहुत बड़ी क्षति है पूरे हिंदी समाज के लिए. जहाँ तक मुज़फ्फरनगर से उनके सम्बन्ध का सवाल है, तो मुज़फ़्फ़रनगर की साहित्यिक संस्थाएं जिस तरह से अन्य मूर्धन्यों का नाम लेकर आत्मगौरव के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करती रही हैं, करती रहेंगी. ओमप्रकाश वाल्मीकि मुज़फ्फरनगर आये थे 'वाणी'संस्था के वार्षिक संकलन 'तारतम्य' (सम्पादक - नेमपाल प्रजापति) के विमोचन के लिए. समारोह में उनके वक्तव्य में प्रसाद, प्रेमचंद, पन्त पर की गयीं उनकी टिप्पणियों से अग्रिम पंक्ति में बैठे डिग्री कॉलेज के हिंदी विभागों के अध्यक्ष, रीडर, प्रोफेसर वगैरह जिन्होंने साहित्यकार होने का सर्टिफिकेट देने का ठेका उठा रखा ही, कैसे उछल-उछल पड़े थे तिलमिलाकर, देखते ही बनता था. प्रोफेसर साहिबान के कुछ शिष्यों ने तो बाकायदा नारेबाजी तक की थी. हम कुछ लोगों ने मिलकर उन उपद्रवी शिष्यों पर बामुश्किल काबू पाया था. उक्त संकलन में शामिल किया गया 'दलित खंड'ही दरअसल में उन लोगों की आँख की किरकिरी बन गया था, और बना भी रहा... हमारा यह प्रतिरोध बना रहा और अंततः हम तीन मित्रों ने उस संस्था से किनारा कर लिया... खैर, उस गोष्ठी के बाद भाई Ashwani Khandelwalके घर पर 'प्रोफेसरों के साथ चाय पर भी बड़ी गरमा-गरम बहस हुई... एक प्रोफेसर ने अंत में कहा - दलितों को बराबरी का दर्जा देते हुए हमारे संस्कार आड़े आते हैं.`

अपने से डरा हुआ बहुमत : असद ज़ैदी

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क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ (ग़ालिब)

नमरूद बाइबिल और क़ुरआन में वर्णित एक अत्याचारी शासक था जिसने ख़ुदाई का दावा किया और राज्याज्ञा जारी की कि अब से उसके अलावा किसी की मूर्ति नहीं पूजी जाएगी। पालन न करने वालों को क़त्ल कर दिया जाता था। नरेन्द्र मोदी ने, जिनके नाम और कारनामे सहज ही नमरूद की याद दिलाते हैं, अब अपने आप को भारत का प्रधानमंत्री चुन लिया है। बस इतनी सी कसर है कि भारत के अवाम अगले साल होने वाले आम चुनाव में उनकी भारतीय जनता पार्टी को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं तो सबसे ज़्यादा सीट जीतने वाला दल बना दें। इसके बाद क्या होगा यह अभी से तय है। पूरी स्क्रिप्ट लिखी ही जा चुकी है। इस भविष्य को पाने के लिए ज़रूरी कार्रवाइयों की तैयारी एक अरसे से जारी है । मुज़फ़्फ़रनगर में मुस्लिम जनता पर बर्बर हमला, हत्याएँ, बलात्कार, असाधारण क्रूरता की नुमाइश और बड़े पैमाने पर विस्थापन इस स्क्रिप्ट का आरंभिक अध्याय है। यह उस दस-साला खूनी अभियान का भी हिस्सा है जिसके ज़रिए हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ हिन्दुस्तानी राज्य और समाज पर अपने दावे और आधिपत्य को बढ़ाती जा रही हैं।

यह आधिपत्य कहाँ तक जा पहुँचा है इसकी प्रत्यक्ष मिसालें देना ज़रूरी नहीं है -- क्योंकि जो देखना चाहते हैं देख ही सकते हैं -- पर जो परोक्ष में है और भी चिंताजनक है। मसलन, लेखक कवियों और कलाकारों के बीच विमर्श को जाँचिए, उस स्पर्धा और घमासान को देखिए जो हमेशा उनके बीच होता ही रहता है, हिन्दी के अध्यापकों से बात कीजिए, और मुज़फ़्फ़रनगर का ज़िक्र छेड़िये तो लगेगा मुज़फ़्फ़रनगर में शायद कोई मामूली वारदात हुई है जो होकर ख़त्म हो गई। जैसे किसी को मच्छर ने काट लिया हो! मुज़फ़्फ़रनगर की बग़ल में, दिल्ली में, बैठे हुए किसी को सुध नहीं कि पड़ोस में क्या हुआ था और हो रहा है, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, भोपाल, पटना, चंडीगढ़ और शिमला का तो ज़िक्र ही क्या! इक्के दुक्के पत्रकारों, चंद कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों की को छोड़ दें तो किसी लेखक-कलाकार को वहाँ जाने की तौफ़ीक़ नहीं हुई। उनमें से एक शरणार्थी कैम्प तो दिल्ली की सीमा ही पर है। मात्र एक ज़िले में क़रीब एक लाख लोग अपने गाँवों और घरों से खदेड़ दिये गए, शायद अब कभी वहाँ लौट नहीं पाएँगे, उनके भविष्य में असुरक्षा और अंधकार के सिवा कुछ नहीं, उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति साहित्य, कला, संस्कृति, पत्र-पत्रिका, अख़बार, सोशल मीडिया में सरसरी तौर से भी ठीक से दर्ज नहीं हो पा रही। ऐसे है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और जो अब हो रहा है वो भी नहीं हो रहा!

मामला इतने पर ही नहीं रुकता। संघ परिवार, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का इस प्रसंग से जैसे कोई वास्ता ही नहीं! मीडिया को उनका नामोल्लेख करना ग़ैर-जायज़ लगता है। मामले को ऐसे बयान किया गया कि यह सिर्फ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की चुनावी चाल थी जो उल्टी पड़ गई। अगर कोई कहता है कि कैसे मुज़फ़्फ़रनगर में गुजरात का प्रयोग विधिवत ढंग से दोहराया गया है, और इस वक़्त वहाँ की दबंग जातियाँ, पुलिस और काफ़ी हद तक प्रशासन मोदी-मय हो रहा है, और यह कि मुज़फ़्फ्ररनगर क्षेत्र में संघ परिवार बहुत दिन से ये कारनामा अंजाम देने की तैयारी कर रहा था, तो आम बौद्धिक कहने वाले की तरफ़ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत दूर की कौड़ी लाया हो। हिन्दी इलाक़े के बौद्धिकों में -- जिनमें अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी कम नहीं हैं -- फ़ासिज़्म को इसी तरह देखा या अनदेखा किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले हिन्दी के एक पुराने बुद्धिमान ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी पर ज़्यादा चर्चा से उसीका महत्व बढ़ता है; बेहतर हो कि हम मोदी को 'इगनोर'करना सीख लें। एक प्रकार से वह साहित्य की दुनिया में आज़माये फ़ार्मूले को राष्ट्रीय राजनीति पर लागू कर रहे थे। इतिहास में उन जैसे चिन्तकों ने पहले भी हिटलर और मुसोलिनी को 'इगनोर'करने की सलाह दी थी।

अगर यह नादानी या मासूमियत की दास्तान होती तो दूसरी बात होती। इसी तबक़े के लोगों ने यू आर अनंतमूर्ति प्रकरण में जिस मुस्तैदी और जोश से बहस में हिस्सा लिया वह कहाँ से आई? अनंतमूर्ति ने जब यह कहा कि वह ऐसे मुल्क में नहीं रहना चाहेंगे जहाँ मोदी जैसा आदमी प्रधानमंत्री हो, संघ परिवार द्वारा लोकतंत्र पर जैसी फ़ासीवादी चढ़ाई की तैयारी है, अगर वह सफल हो गई तो यह देश रहने लायक़ नहीं रह जाएगा, तो लगा जैसे क़हर बरपा हो गया! शायद ही वर्तमान या अतीत के किसी लोहियावादी को एक साथ संघ परिवार और हिन्दी के उदारमना मध्यममार्गी लोगों का ऐसा कोप झेलना पड़ा हो। अचानक साहित्य और पत्रकारिता के सारे देशभक्त जाग उठे और बुज़ुर्ग लेखक के 'देशद्रोह'की बेहूदा तरीक़े से निन्दा करने लगे। यह अनंतमूर्ति की वतनपरस्ती ही थी कि उन्होंने ऐसी बात कही। रंगे सियारों के मुँह से यह बात थोड़े ही निकलने वाली थी! कौन चाहेगा कि उसका वतन एक क़ातिल और मानवद्रोही के पंजे में आ जाए? क्या इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि हज़ारों, बल्कि लाखों बल्कि लोगों को, रोते और बिलबिलाते हुए, अपने वतन को अलविदा कहनी पड़ी? पिछली सदी में जर्मनी में और स्पेन में, और १९४७ के भारत में क्या हुआ था? हर तरह के फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक लोग क्या इसी को शुद्धिकरण और राष्ट्र-निर्माण का दर्जा नहीं देते थे? कुछ लोग तमाम जानकारी जुटा कर यह साबित करने पर तुल गए कि अनंतमूर्ति नाम का शख़्स कितना चतुर, अवसरवादी और चालबाज़ रहा है। मामला फ़ासिस्ट ख़तरे से फिसलकर एक असहमत आदमी के चरित्र विश्लेषण पर आ ठहरा। वे किसका पक्ष ले रहे थे? ऐसी ही दुर्भाग्पूर्ण ख़बरदारी वह थी जिसका निशाना मक़बूल फ़िदा हुसेन बने। कई बुद्धिजीवी और अख़बारों के सम्पादक हुसेन को देश से खदेड़े जाने और परदेस में भी उनको चैन न लेने देने के अभियान का हिस्सा बन गए थे।

मुज़फ़्फ़रनगर पर ख़ामोशी और अनंतमूर्ति के मर्मभेदी बयान पर ऐसी वाचालता दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे यह पता चलता है कि ज़हर कितना अन्दर तक फैल चुका है। फ़ासिज्‍़म लोगों की भर्ती पैदल सैनिक के रूप में लुम्पेन तबक़े से ही नहीं, बीच और ऊपर के दर्जों से भी करता है। उसका एक छोटा दरवाज़ा बायें बाज़ू के इच्छुकों के लिए भी खुला होता है। कुछ साल के अन्तराल से आप किसी पुराने दोस्त और हमख़याल से मिलते हैं तो पता चलता है वह बस हमज़बान है, हमख़याल नहीं। आपका दिल टूटता है, ज़मीन आपके पैरों के नीचे से खिसकती लगती है, अपनी ही होशमन्दी पर शक होने लगता है। वैचारिक बदलाव ऐसे ही चुपके से आते हैं। बेशक इनके पीछे परिस्थितियों का दबाव भी होता है, पर यही दबाव प्रतिरोध के विकल्प को भी तो सामने कर सकता है। ऐसा नहीं होता नज़र आता इसकी वजह है बहुमत का डर और वाम-प्रतिरोध की परंपरा का क्षय। मेरी नज़र में जब लोग लोकतंत्र के मूल्यों की जगह बहुमतवाद के सिद्धान्त को ही सर्वोपरि मानने लगें, और राजनीति-समाज-दैनिक जीवन सब जगह उसी की संप्रभुता को स्वीकार कर लें, बहुमतवाद के पक्ष में न होकर भी उसके आतंक में रहने लगें, अपने को अल्पमत और अन्य को अचल बहुमत की तरह देखने लगें और ख़ुद अपने विचारों और प्रतिबद्धताओं के साथ नाइन्साफ़ी करने लगें तो अंत में यह नौबत आ जाती है कि बहुमत के लोग ही बहुमत से डरने लगते हैं। बहुमत ख़ुद से डरने लगता है।आज हिन्दुस्तान का लिबरल हिन्दू अपने ही से डरा हुआ है, उसे बाहर या भीतर के वास्तविक या काल्पनिक शत्रु की ज़रूरत नहीं रही। फ़ासिज़्म का रास्ता इसी तरह बना है, इसी से फ़ासीवादियों की ताक़त बढ़ी है। यह वह माहौल है जिसमें प्रगतिशील आदमी भी सच्ची बात कहने से घबराने लगता है, साफ़दिल लोग भी एक दूसरे से कन्नी काटने लगते हैं। बाक़ी अक़्लमंदों का तो कहना ही क्या, उनके भीतर छिपा सौदागर कमाई का मौक़ा भाँपकर सामने आ जाता है और अपनी प्रतिभा दिखाने लगता है। अक़लमंद लोग अपनी कायरता को भी फ़ायदे के यंत्र में बदल लेते हैं।

१९८९ के बाद पंद्रह बीस साल ऐसे आए थे जब भारत का मुख्यधारा का वाम (संसदीय वामपंथ ) यह कहता पाया जाता था कि दुनिया भर में समाजवादी राज्य-व्यवस्थाएँ टूट रही हैं, कुछ बिल्कुल मिट चुकी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में वाम की शक्ति घटी नहीं बल्कि इसी दौर में उत्तरोत्तर बढ़ी है। वाम संगठनों की सदस्यता में इज़ाफ़ा हुआ है और यह इसका प्रमाण है कि वाम दलों की नीतियाँ सही हैं, और यह कि हमारी वाम समझ ज़्यादा परिपक्व, ज़मीनी और पायेदार है। बूर्ज्वा पार्टियों का दिवालियापन अब ज़ाहिर होने लगा है। इस सूत्र को इसी दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति से मिलाकर देखें तो पता चलता है कि वाम के एक हिस्से ने अपने लिए कितनी बड़ी मरीचिका रच ली थी, और यथार्थ के प्रतिकूल पक्ष की अनदेखी करना सीख लिया था। वाम दलों ने अपनी बनाई मरीचिका में फँसकर अपने ही हौसले पस्त कर लिए हैं। इसी दौर में संघ परिवार की ख़ूनी रथयात्राएँ और सामाजिक अभियान शुरू हुए जिनकी परिणति बाबरी मस्जिद के विध्वंस और मुम्बई और सूरत के नरसंहारों में हुई। यह दौर हिन्दुत्व के राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य बनने का है, पहले खाड़ी युद्ध के साथ पश्चिम एशिया पर अमरीकी साम्राज्य के हमलों का है, और भारत में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मसमर्पण का है। इसी दौर में भारत स्वाधीन नीति छोड़कर अमरीका का मातहत और इज़राइल का दोस्त हुआ। इसी दौर में बंगाल की लम्बे अरसे से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार ने अवाम के एक हिस्से का समर्थन खो दिया क्योंकि वाम सरकार और वाम पार्टियों के व्यवहार में वाम और ग़ैर-वाम का फ़र्क़ ही नज़र आना बंद हो गया था। यही दौर मोदी की देखरेख में गुजरात में सन २००२ का ऐतिहासिक नरसंहार सम्पन्न हुआ जिसमें राजसत्ता के सभी अंगों ने अभूतपूर्व तालमेल का परिचय दिया और भारत में भावी फ़ासिज़्म क्या शक्ल लेगा इसकी झाँकी दिखाई। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार, निजीकरण और कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इसी हिन्दू फ़ासिस्ट मॉडल को विकास के अनुकरणीय आदर्श की तरह पेश किया जाता रहा है।

आज हिन्दुस्तान में संसाधनों की कारपोरेट लूट लूट नहीं राजकीय नीति के संरक्षण में क्रियान्वित की जाने वाली हथियारबंद व्यवस्था है। भारतीय राज्य का राष्ट्रवाद अवामी नहीं, दमनकारी पुलिसिया राष्ट्रवाद है, अर्धसैनिक और सैनिक ताक़त पर आश्रित राष्ट्रवाद है। यह अपनी ही जनता के विरुद्ध खड़ा राष्ट्रवाद है। वैसे तो सर्वत्र लेकिन उत्तरपूर्व, छत्तीसगढ़ और कश्मीर में सुबहो-शाम इसका असल रूप देखा जा सकता है। आर्थिक नीति, सैन्यीकृत राष्ट्रवाद और शासन-व्यवस्था के मामलों में कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। फ़ासिज्‍़म के उभार में इमरजेम्सी के ज़माने से ही दोनों का साझा रहा है। हिन्दुस्तान में फ़ासिज़्म के उभार का पिछली सदी में उभरे योरोपीय फ़ासिज़्म से काफ़ी साम्य है। जर्मन नात्सीवाद के नक़्शे क़दम पर चल रहा है। वह अपने इरादे छिपा भी नहीं रहा । बड़ा फ़र्क़ बस यह है कि भारतीय मीडिया और मध्यवर्ग इसी चीज़ को छिपाने में जी-जान से लगा है। फ़ासिज़्म फ़ासिज़्म न होकर कभी विकास हो जाता है कभी दंगा, गुजरात का नस्ली सफ़ाया गोधरा कांड की प्रतिक्रिया हो जाता है, मुज़फ़्फ़रनगर की व्यापक हिंसा जाट-मुस्लिम समुदायों की आपसी रंजिश का नतीजा या कवाल कांड की प्रतिक्रिया बन जाती है। हमारे बुद्धिजीवी विषयांतर में अपनी महारत दिखाकर इस फ़ासिज़्म को मज़बूत बनाए दे रहे हैं।

इस दुष्चक्र को तोड़ने का एक ही तरीक़ा है इन ताक़तों से सीधा सामना, हर स्तर पर सामना। और समय रहते हुए सामना। अपने रोज़मर्रा में हर जगह हस्तक्षेप के मूल्य को पहचानना। ऐसी सक्रिय नागरिकता ही लोकतंत्र को बचा सकती है। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है आज व्यवस्था के सताये हुए अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई), दलित और आदिवासी के साथ मज़बूती से खड़े होने की। अगर वाम शक्तियाँ और ग़ैर-दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वर्ग प्रतिबद्धता से यह कर सकें तो फ़ासिज़्म की इमारतें हिल जाएँगी और उनके आधे मन्सूबे धरे रह जाएँगे। इस समय ज़रूरत है फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ व्यापक वाम और अवामी एकता की -- अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी। बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी का काम इससे बाहर नहीं है।
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 `प्रभात खबर`दीवाली विशेषांक से साभार

वाम पक्षों में यौन हिंसा के मामले और जवाबदेही : लॉरी पैनी

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(लॉरी पेनी ब्रिटेन की मशहूर नारीवादी वामपंथी लेखक और ब्लॉगर हैं. उनकी यह टिप्पणी न्यू स्टेट्समन पत्रिका में प्रकाशित हुई  थी जिसमें वे नियमित स्तम्भ लिखती हैं. घटना विशेष और देश के ख़ास सन्दर्भ में लिखी गई यह टिप्पणी हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी कितनी मौजूं है ये देखकर हैरत और अफ़सोस दोनों का अहसास होता है. इस टिप्पणी का अंग्रेजी से अनुवाद भारतभूषण तिवारीने किया है।)

वाम पक्षों में होने वाली यौन हिंसा के साथ किस तरह पेश आएँएक केस स्टडी पर नज़र डालते हैं.
जो लोग पहले से वाकिफ़ नहीं है उनके लिए बता दिया जाए कि सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी (एसडब्ल्यूपी) कई हज़ार सदस्यों वाला एक राजनीतिक संगठन है जो 30 से भी अधिक सालों से ब्रिटिश वाम की प्रमुख ताक़त रहा है ब्रिटेन में सड़कछाप फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में वह आगे रहा है,पिछले कई सालों से छात्र और कामगार आंदोलन में उसकी बड़ी सांगठनिक उपस्थिति रही है और जर्मनी की डी लिंख जैसे अन्य देशों के बड़े,सक्रिय दलों से संलग्न रहा है. यूके के बहुत से बेहद महत्वपूर्ण चिन्तक और लेखक इस पार्टी के सदस्य हैं अथवा पूर्व सदस्य रहे हैं.
ब्रिटेन के बहुत से वामपंथियों की तरह मेरी भी उनसे अपनी असहमतियाँ रही हैं मगर मैं उनके सम्मेलनों में बोल चुकी हूँउनकी चाय पी चुकी हूँ और जो काम वे करते हैं उसके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान हैउनका समूह गौण या परिधि के बाहर का नहीं हैवे महत्त्व रखते हैंऔर यह भी महत्त्व रखता है इस वक्त लैंगिकवाद (सेक्सिज़्म), यौन हिंसा और जवाबदेही के वृहत मुद्दों पर बहस की वजह से पार्टी का ठीकरा बहुत बुरे तरीके से फूट रहा है.
जनवरी के दूसरे हफ्ते में पता चला कि एक वरिष्ठ पार्टी सदस्य के खिलाफ जब बलात्कार और यौन हिंसा के आरोप लगाए गए,तो मामले की रपट पुलिस को नहीं दी गई बल्कि उसे खारिज किए जाने से पहले उससे 'अंदरूनी तौरपर निपटा गयाजनवरी की शुरुआत में हुए पार्टी के वार्षिक सम्मेलन की लिखित प्रतिलिपि (ट्रांसक्रिप्टके अनुसार शिकायत की तहक़ीक़ करने की अनुमति कथित बलात्कारी के मित्रों को दी गई,इतना ही नहीं बल्कि कथित पीड़ितों का और भी उत्पीडन किया गयाउनके पीने की आदतों और पूर्व संबंधों पर सवाल उठाए गए,और जिन्होंने उनका साथ दिया उन्हें निष्कासित कर दिया गया या किनारे कर दिया गया.
पार्टी के एक सदस्य टॉम वॉकर ने इस हफ्ते उकताकर इस्तीफ़ा दे दिया. वे बताते हैं कि नारीवाद (फेमिनिज़्म) को  "पार्टी नेतृत्व के समर्थक बड़े प्रभावशाली ढंग से अपशब्द की तरह इस्तेमाल करते हैं..जेंडर के मुद्दों पर जो 'अति चिंतितनज़र आता है उसके खिलाफ यह असरदार तरीके से इस्तेमाल किया जाता है."
10 जनवरी को प्रकाशित अपने साहसी और सिद्धांतों पर आधारित अपने त्यागपत्र में वॉकर ने कहा कि“वाम पक्षों में शक्तिशाली पदों पर आसीन बहुत से पुरुषों की यौन राजनीति पर ज़ाहिर तौर पर एक सवालिया निशान लगा हैमुझे लगता है इसकी जड़ इस बात में है कि या तो प्रतिष्ठा के कारण,या आतंरिक लोकतंत्र के अभाव के कारण या दोनों ही वजहों से ये अक्सर ऐसे पद होते हैं जिन्हें असल में चुनौती नहीं दी जा सकतीये यूँ ही नहीं हुआ कि हाल में दुनिया भर में लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों का फोकस 'सज़ा से ऊपर होने की संस्कृति’ (कल्चर ऑफ इम्प्युनिटीके विचार पर था.सोशलिस्ट वर्कर ने इशारा किया है कि किस तरह संस्थाएँ अपने अंदर के ताक़तवर लोगों को बचाने के लिए अपने आप को बंद सा कर लेती हैंजो बात स्वीकार नहीं की गई है वह यह कि जीवित रहने के लिए आत्म-रक्षा की अपनी प्रवृत्ति के साथ एसडब्ल्यूपी भी इन अर्थो में एक संस्था ही हैजैसा कि पहले कहा गया हैस्वयं के विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व में उसका भरोसा ऐसी बातों को छिपाने की कोशिशों और दुष्कर्मियों को सुरक्षित महसूस करवाने का निमित्त बनता है.
पार्टी के सम्मेलन में यह मामला सामने आने पर और बहसों की लिखित प्रतिलिपि के इंटरनेट पर लीक होने के बाद अब सदस्य भारी संख्या में पार्टी छोड़ रहे हैं या निष्कासित किए जा रहे हैं.
एसडब्ल्यूपी के काफी पुराने सदस्य और लेखक चाइना मिएविल ने मुझसे कहा कि बहुत से सदस्यों की तरह वे भी "हक्का-बक्काहैं: “इन आरोपों को लेकर जिस तरह का बर्ताव किया गया आरोप लगाने वालों के पूर्व संबंधों और पीने की आदतों को लेकर उठाये गए सवालों से भरपूरकिसी और सन्दर्भ में हम तुरंत और उचित ही इसकी लैंगिकवादी कह कर भर्त्सना कर देते वह भयावह हैलोकतंत्रजवाबदेही और आतंरिक संस्कृति की यह भीषण समस्या है कि ऐसी स्थिति उपजती है और यह तथ्य भी कि प्रभारी वर्ग जिसे अवांछनीय मानता है उस तरीके से ऑफिशियल लाइन के खिलाफ बात करने वालों को 'गुप्त गुटवादके लिए निष्कासित किया जा सकता है.
मिएविल ने समझाया कि अन्य कई संगठनों की ही तरह उनकी पार्टी में भी इस तरह की समस्याओं को आगे बढाने वाले शक्ति सोपानक्रम (पावर हाइरार्कीलंबे समय से विवादास्पद रहे हैं.

उन्होंने मुझे बताया कि "बिलकुल इसी तरह के लोकतंत्र के अभावकेंद्रीय समिति और उनके वफादारों की अत्यधिक शक्तिकथित 'असहमतिको लेकर सख्त पुलिसिया रवैयाऔर गलतियों को मानने से इनकारजैसे कि वर्तमान स्थिति जो नेतृत्व के दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार से उपजी त्रासदी है-जैसे मुद्दों को सुलझाने के लिए हम बहुत से लोग बरसों से संगठन की संस्कृति और संरचना में बदलाव के लिए खुले रूप से लड़ रहे हैंपार्टी के हम सभी लोगों में इस तरह के मुद्दों को स्वीकार करने की विनम्रता होनी चाहिएएसडब्ल्यूपी के सदस्यों की ये ज़िम्मेदारी है कि वे हमारी परम्परा के भले के लिए लड़ें,बुरी बातों को बर्दाश्त न करें और हमारे संगठन को ऐसा बनाएँ जैसा वह हो सकता है मगर बदकिस्मती से अब तक हुआ नहीं है.

शक्तिशाली पदों पर बैठे पुरुषों द्वारा यौन दुर्व्यवहार और महिला-द्वेष (मिसोजनीअबाधित रूप से चलने देने वाली संरचनाएँ रखने में राजनीतिक दलों के बीचवामपंथी समूहों के बीचप्रतिबद्ध लोगों के संगठनों के बीचया वास्तव में मित्रों या सहकर्मियों के समूहों के बीच ब्रिटिश सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी का मामला शायद ही असामान्य हैफक़त पिछले 12 महीनों के दौर में जिन बातों की इशारा किया जा सकता है वह हैं जिमी साविल के मामले में बीबीसी का बर्तावया विकिलीक्स के वे समर्थक जो मानते हैं कि जूलियन असांज को स्वीडन में बलात्कार और यौन दुष्कर्म पर सफाई देने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.
व्यक्तिगत तौर पर मैं दो मिसालें दे सकती हूँ जिनमें सम्मानित व्यक्ति कष्टपूर्वक अलग हो गए और फौरेवर फ्रेंडशिप समूह जिनमें ऐसी घटनाओं को स्वीकार करने का साहस नहीं थाएकमात्र फर्क यह है कि एसडब्ल्यूपी ने खुले रूप से उन अनकहे नियमों की बात की जिनकी वजह से ऐसा डराना-धमकाना अक्सर चलता जाता हैदीगर समूह इतने बेशर्म नहीं हैं जो यह कह दें कि उनके नैतिक संघर्ष नारीवाद जैसे महत्त्वहीन मुद्दों से ज्यादा अहम हैं भले ही असलियत में उनका तात्पर्य यही होया यह दावा कर दें की सही सोच रखने वाले वे लोग और उनके नेतागण कानून से ऊपर हैंप्रतीत होता है कि एसडब्ल्यूपी के नेतृत्व ने यह बात अपने नियमों में लिख रखी थी.
यौन हिंसा के मामले बरतने में वाम को दिक्कत होती है ऐसा कहने का मतलब यह नहीं कि दूसरी जगहों पर यह समस्या नहीं हैमगर खास तौर पर वाम में या वृहत रूप में प्रगतिशीलों में पाए जाने वाले 'रेप कल्चरको स्वीकार करने और हल करने को लेकर एक अड़ियल अस्वीकार ज़रूर हैनिश्चित रूप से इसका सम्बन्ध इस ख़याल से है कि प्रगतिशील होने के नातेबराबरी और सामाजिक न्याय  के लिए लड़ने के नातेऔर हाँइस नाते के नातेकिसी तरह से हम नस्ल,जेंडर और यौन हिंसा के मुद्दों को लेकर व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराए जाने से ऊपर हैं.
हमारे अपने बर्ताव का विश्लेषण करने को लेकर अनिच्छा जल्दी ही जड़सूत्र (डॉग्माबन जाती हैतस्वीर ऐसी बनती है कि ये तुच्छज़रा-ज़रा सी बात को मुद्दा बनाने वाली औरतों की वाम के भले आदमियों के अच्छे काम को बर्बाद करने की कोशिश हैऔरतों वाले शिकायती अंदाज़ में इस बात पर ज़ोर देकर कि प्रगतिशील स्पेस भी ऐसी स्पेस हों जहाँ उन्हें बलात्कार कीदुर्व्यवहार कीबदचलन कहे जाने कीऔर अपनी बात कहने पर शिकार बनाए जाने की उम्मीद न होऔर भावनाओं में रोष और नाराजगी है किवर्ग युद्ध,पारदर्शिता और सेंसरशिप से आज़ादी का हमारा विशुद्ध और परिपूर्ण संघर्ष क्यों कर 'अस्मिता की राजनीतिसे प्रदूषित होऔर अस्मिता की राजनीति इस तरह मुँह बनाकर बोला जाता है जैसे यह लफ्ज़ कितना बेस्वाद हैआम कट्टरपंथियों से अधिक जवाबदेही की अपेक्षा हम से क्यों की जाएक्यों हमें उच्चतर आदर्शों पर रखा जाए?
वह इसलिए कि अगर हम ऐसे नहीं हैं,तो हमें प्रगतिशील कहलाने का कोई हक नहींक्योंकि अगर हम अपनी संस्थाओं के भीतर हिंसादुर्व्यवहार और जेंडर हाइरार्की के मुद्दों को स्वीकार नहीं करते तो हमें इन्साफ़ के लिए लड़ने का क्या उसकी बात करने का भी हक नहीं.
वॉकर लिखते हैं, "लोकतंत्र और लैंगिकवाद के मुद्दे अलग नहीं हैंवे विकट रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैंलोकतंत्र का अभाव लैंगिकवाद  के बढ़ने हेतु स्पेस तैयार करता है और जब वह बढ़ जाता है तो उसे जड़ से दूर करने को और भी मुश्किल बनाता है." वे एसडब्ल्यूपी के बारे में बात कर रहे हैं मगर यह बात वाम की किसी भी पार्टी के बारे में कही जा सकती है जो पीढ़ियों के महिला-द्वेषी असबाब से स्वयं को मुक्त करने के लिए संघर्ष कर रही है
बराबरी कोई वैकल्पिक पूरक या गौण मुद्दा नहीं जिस से इन्कलाब के बाद निपटा जा सकता हैमहिलाओं के अधिकारों के बिना न कोई सच्चा लोकतंत्र हो सकता है और न ढंग का वर्ग-संघर्षवाम जितनी जल्दी इस बात को स्वीकार कर लेगा और अपने साझा पिछवाड़े से  दम्भीपन और पूर्वाग्रह का भारी-भरकम डंडा निकालने  का काम शुरू कर देगाउतनी जल्दी हम अपना असली काम शुरू कर पाएँगे.

पेंगुइन को अरुंधति की फटकार

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अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री`को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:

तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगरकी `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री`को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे।

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।

चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें?क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइनसे छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।
-अरुंधति रॉय

वीरेन डंगवाल की याद कचोटती रहेगी : शिवप्रसाद जोशी

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साठ के दशक के फ़ौरन बाद की हिंदी कविता के जिन कवियों का नई पीढ़ी से सबसे ज़्यादा नाता थाः वो त्रयी वीरेन डंगवाल, असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल की रही है.

वीरेन ठिकानेदारों को ठिकाने लगाने वाले कवि थे. उन्होंने कई मतलबियों, नकलचियों और चतुरों के तेवर उतारे हैं. उनकी बातों में इतनी तीक्ष्णता और इतना पैनापन और इतना आवेग था.

हिंदी कविता में वो मोमेंटम के सबसे बड़े कवि थे. उनके न रहने से सबसे ज़्यादा नुकसान नई पीढ़ी को हुआ है.
अपनी बातों, अपनी कविता, अपनी सलाहों और अपनी झिड़कियों से वे एक पेड़ बन गए थे. उस पेड़ की छांह अब स्मृति में चली गई है.

वीरेन डंगवाल ने उत्तर भारत की हिंदी पत्रकारिता को भाषा और व्यक्ति दोनो दिए. उनके शागिर्दों का एक अभूतपूर्व फैलाव है. वे प्रिंट से लेकर टीवी और रेडियो तक बिखरे हुए हैं. उनमें से कई लोग अत्यन्त कामयाब जीवन में आए हैं और एक भव्य भविष्य की ओर उन्मुख हैं. वे भी आज वीरेन के न रहने पर निश्चित ही चुपके चुपके रो न भी रहे हों तो एक असहाय धक्के में आ गए होंगे. ये धक्का वे निकाल नहीं पाएंगें. ऐसी उपस्थिति की शर्त के साथ वीरेन ने अपनी शख़्सियत का जादू फैलाया था.

वीरेन लटकी हुई कथित उदासियों पर गुलेल खींच कर भौंचक करने वाले कवि पत्रकार थे. वो नकली नैराश्य के विरोधी थे और उन्होंने एक अपना मार्क्सवाद विकसित किया था. वीरेन की आवाज़ एक ऐसी नाव थी जो मुसीबत के मारों को किनारे छोड़ आती थी. फिर वो मुसीबत प्रेम करने वालों की हो या नौकरी के लिए दर दर भटकने वालों की या सामाजिक लड़ाइयों में इंतज़ार की.

इस तरह उन्होंने संघर्ष को एक लोकप्रिय विधा में बदल दिया.

उन्हें समझने वालों और उन्हें मानने वालों ने संघर्ष के पानी से प्यास बुझाई. ऐसा विवेक भरने वाले वीरेन डंगवाल, इसीलिए स्मृति को कचोटते रहेंगें.

एक अपराजेय का जाना : मंगलेश डबराल

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अब ऐसे लोगों का होना बहुत कम हो गया है, जिनसे, बकौल शमशेर बहादुर सिंह, ‘जिंदगी में मानी पैदा होते हों।’ वीरेन डंगवाल ऐसा ही इंसान था, जिससे मिलना जीवन को अर्थ दे जाता था। वीरेन पहली भेंट में अपनी नेकदिली की छाप मिलने वाले के दिल में छोड़ देता था। वह प्रसन्नता की प्रतिमूर्ति था-दोस्तों की संवेदना को सहलाता हुआ, उन्हें धीरज बंधाता हुआ। यह उसकी जीवनोन्मुखता ही थी कि तीन साल तक वह कैंसर से बहादुरी के साथ लड़ता रहा। बीमारी के दिनों में उसे देख हेमिंग्वे के उपन्यास द ओल्ड मैन ऐंड द सी का यह वाक्य याद आता था कि ‘मनुष्य को नष्ट किया जा सकता है, पर उसे पराजित नहीं किया जा सकता।’ वीरेन चला गया, पर यह जाना एक अपराजेय व्यक्ति का जाना है।
वीरेन के जीवन पर यह बात पूरी तरह लागू होती थी कि एक अच्छा कवि पहले एक अच्छा मनुष्य होता है। कविता वीरेन की पहली प्राथमिकता भी नहीं थी, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और इंसानियत के भविष्य के प्रति अटूट आस्था का ही एक विस्तार, एक आयाम थी, उसकी अच्छाई की महज एक अभिव्यक्ति और एक पगचिह्न थी। तीन संग्रहों में प्रकाशित उसकी कविताएं अनोखी विषयवस्तु और शिल्प के प्रयोगों के कारण महत्वपूर्ण हैं, जिनमें से कई जन आंदोलनों का हिस्सा बनीं। उनकी रचना एक ऐसे कवि ने की है, जो कवि-कर्म के प्रति बहुत संजीदा नहीं रहा। यह कविता मामूली कही जाने वाली चीजों और लोगों को प्रतिष्ठित करती है, और इसी के जरिये जनपक्षधर राजनीति भी निर्मित करती है।
वीरेन की कविता एक अजन्मे बच्चे को भी मां की कोख में फुदकते रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पिचकते, कोई शरारत भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है, दोस्तों की गेंद जैसी बेटियों को अच्छे भविष्य का भरोसा दिलाती है और उसका यह प्रेम मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, वनस्पतियों, फेरीवालों, नींबू, इमली, चूने, पाइप के पानी, पोदीने, पोस्टकार्ड, चप्पल और भात तक को समेट लेता है। वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर शमशेर जैसे क्लासिकी ‘सौंदर्य के कवि’ हैं, तो दूसरा सिरा नागार्जुन की देशज, यथार्थपरक कविता से जुड़ता है। दोनों के बीच निराला हैं, जिनसे वीरेन अंधेरे से लड़ने की ताकत हासिल करता रहा। उसकी कविता पूरे संसार को ढोनेवाली/नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत की पहचान करती हुई कविता है, जिसके विषय वीरेन से पहले हिंदी में नहीं आए। वह हमारी पीढ़ी का सबसे चहेता कवि था, जिसके भीतर पी टी उषा के लिए जितना लगाव था, उतना ही स्याही की दावात में गिरी हुई मक्खी और बारिश में नहाए सूअर के बच्चे के लिए था। एक पेड़ पर पीले-हरे चमकते हुए पत्तों को देखकर वह कहता है, पेड़ों के पास यही एक तरीका है/यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं। मीर तकी मीर ने एक रुबाई में ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की है, जो ‘सचमुच मनुष्य हो, जिसे अपने हुनर का अहंकार न हो, जो कुछ बोले, तो पूरी दुनिया सुनने को इकट्ठा हो जाए और जब वह खामोश हो, तो लगे कि दुनिया खामोश हो गई है।’ वीरेन की शख्सियत कुछ ऐसी ही थी, जिसके खामोश होने से जैसे एक दुनिया खामोश हो गई है।
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(अमर उजाला से साभार)

एक बस अपील...लौटा दीजिए पुरस्कार : शिवप्रसाद जोशी

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साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने चाहिए. जिनके पास जिन जिन वक़्तों के पुरस्कार हैं. वे सब आगे आएं और अपने पुरस्कार लौटा दें. इस फेर में न फंसे कि इसका कोई मूल्य नहीं, कि ये निजी शहादत है, कि इसका कोई हासिल नहीं, कि पैसा कैसे चुकाएंगें, कि साहित्य अकादमी तो सरकारी यूं भी नहीं हैं आदि आदि. और इधर तो एक जालसाज़ी ये भी हो रही है कि कह रह हैं कीर्ति भी लौटाओ. जैसे कीर्ति वहां से अर्जित हुई होगी. पूरा हिसाबकिताब ऐसे ढंग से पेश किया जा रहा है कि ख़बरदार अगर लौटाया तो ये हिसाब ध्यान रखना. ऐसी बेशर्मी, ऐसी ख़ुराफ़ात, ऐसा मज़ाक, ऐसी अपमान और ऐसा फ़ाशीवादी रवैया इस देश में आन पड़ा है तो क्या अचरज?

वरिष्ठो, आगे आइए और ये पुरस्कार लौटा दीजिए. इसके गहरे निहितार्थ होंगे. आप सब जानते हैं. दुनिया भर के लोगों में संदेश जाएगा. जा रहा है. प्रतिरोध आंदोलनों को मज़बूती मिलेगी. लोग और जुटेंगे. एक बड़ी अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का समर्थन होगा. एक चेन बनेगी. विश्व शक्तियों की नई धुरियों का नया जनतांत्रिक और अवाम केंद्रित विलोम तैयार होगा. आप पुकारे जाएंगें. आपको सलाम होगा. 

और हम, साथियो, हम लोग न ताकें न रुकें न चुप रहें. बोलें. भरसक. लिखें. आश्वासन और राहतें और छलावे और पेशकशें और ऑफ़र लौटा दें. सरकारों को ख़बरदार करें. आपने यूं ही जन्म नहीं लिया है. एक सार्थक जीवन की परिभाषा और उद्देश्य क्या होता है. ये बताने का पुरज़ोर समय है. हम लोग दलाली नहीं कर सकते हैं. हमारे वरिष्ठ दलाल नहीं हो सकते हैं. हम लोग मनुष्य हैं और हम लोगों का एक जीवन है जो सुंदर है जिसमें प्रेम है, परिवार है परिजन और दोस्त और संबंधी हैं, और ये सारी की सारी दुनिया है. हम लोग ख़ुशकिस्मत हैं फिर घेरा डाले हुए हमारे आसपास ये ताक़तें कौन हैं. ये हमारा अच्छा बुरा क्यों तय करेंगी, हम खुद क्यों नहीं? इन घेरों की जगह तो हमारी सदियों से बनाई हुई मनुष्यता के डेरे होने चाहिए.

लोग सवाल कर रहे हैं और इस विश्वव्यापी प्रायोजित जय-जय के बीच संदेह में हैं. कि आखिर ये जयगान उस देश से आ रहा है जहां मांस और इंसान के बीच जीवन और मौत का संघर्ष चल रहा है. पूंजीवादी व्यवस्थाएं जब फ़ाशीवाद से गठबंधन करती हैं तो ऐसा ही होता है. ऐसा इस देश की प्राचीनता में नहीं हुआ था. इतिहास की विकृति हावी है. और ये कहने वाले लोग कम होते जा रहे हैं कि भारत में ऐतिहासिक सच्चाई ये है कि यहां मांस खाया जाता था.
अब इस मांस भक्षण का विरोध इतना प्रबल है कि मनुष्य भक्षण पर आमादा ताक़तें फैल गई हैं और उन्होंने जैसे विचार पर ही क़ब्ज़ा कर लिया है. 

लोग या तो मांस के नाम पर मारे जा रहे हैं या महिमा न करने के अपराध में. अगर आप अनवरत जयजय में शामिल नहीं हैं तो आप समाज विरोधी, जाति विरोधी, धर्म विरोधी और देशद्रोही हैं.

तो साथियो, जो किसी भी तरह की फ़ाशीवादी सुविधा के घेरे में हैं उन्हें छोड़ें, जिनके पास सरकार के दिए पुरस्कार हैं, उन्हें लौटा दें. भले ही वो किसी भी पार्टी या समूह या गठबंधन की सत्ता के दौरान के हों. या किसी और दौर के.
आज क्या कर सकते हैं और किस चीज़ का क्या अर्थ हो सकता है, इसे सोचें. लेकिन इसमें आगामी जीवन का मोलभाव न सोचें. आगामी सिर्फ़ मौत है या उससे कम कोई दयनीय हालत. आप हंसेंगे, दैनन्दिन काम निपटाएंगें, दावतों में जाएंगें, घरबार करेंगें लेकिन मौत आपके साथ ऐसे चलेगी जैसे आप उसकी गिरवी रखी हुई कोई चीज़ हों.
वरना तो मौत स्वाभाविक रूप से आती ही है. आकस्मिक भी आती है, और लड़कर भी.... लेकिन आप उस समय इंसान होते हैं- विवशता, इच्छा, लालच, किंकर्तव्यविमूढ़ता, फ़र्माबरदारी और जहालत से भरा हुआ कोई बोरा नहीं जिसे किसी ने जीवन के कगार से हमेशा हमेशा के लिए धकेल दिया हो.


पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas

नफ़रत की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है : लाल्टू

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देश भर में तकरीबन पचीस साहित्यकारों ने अपने अर्जित पुरस्कार लौटाते हुए मौजूदा हालात पर अपनी चिंता दिखलाई है। जब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया तो यह चर्चा शुरू हुई कि इसका क्या मतलब है। क्या एक लेखक महज सुर्खियों में रहने के लिए ऐसा कर रहा है। और दीगर पेशों की तरह अदब की दुनिया में भी तरह-तरह की स्पर्धा और ईर्ष्या हैं। इसलिए हर तरह के कयास सामने आ रहे थे। उस वक्त भी ऐसा लगता था कि अगर देश के सभी रचनाकार सामूहिक रूप से कोई वक्तव्य दें तो उसका कोई मतलब बन सकता है, पर अकेले एक लेखक के ऐसा करने का कोई खास तात्पर्य नहीं है। अब जब इतने लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं, यह चर्चा तो रुकी नहीं है कि सचमुच ऐसे विरोध से कुछ निकला है या नहीं, पर साहित्यकारों को अपने मकसद में इतनी कामयाबी तो मिली है कि केंद्रीय संस्कृति मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी बौखलाहट दिखला गए। तो क्या ये अदीब बस इतना भर चाहते थे या इसके पीछे कोई और भी बात है।

आम तौर से कई अच्छे रचनाकार सीधे-सीधे ऐसा कोई कदम लेने से कतराते हैं जिसमें सियासत की बू आती हो। खास तौर पर साहित्य अकादमी जैसी संस्था को जो स्वायत्तता मिली हुई है, उसे बनाए रखना और राजनीति से उसे दूर रखना ज़रूरी है। पर सियासत की जैसी समझ अदब की दुनिया के लोगों को होती है, वैसी आम लोगों में नहीं होती। सियासत में उतार-चढ़ाव से इंसानी रिश्तों में कैसे फेरबदल आते हैं, इसकी समझ किसी भी अच्छी साहित्यिक कृति को पढ़ने से मिल सकती है। यहाँ तक कि प्राचीन महाकाव्यों में भी यही खासीयत होती थी कि उनमें समकालीन सियासी दाँव-पेंच के बीच पिसते इंसानियत की तस्वीर होती थी। महाभारत को तो इसका आदर्श माना जा सकता है। इसलिए जब इतने सारे अदीब एक साथ ऐसा कदम ले रहे हैं तो वह महज सुर्खियों में रहने के लिए उठाया गया कदम नहीं है। जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइट की उपाधि वापस कर दी थी तो वह एक ऐतिहासिक कदम था। कुछ ऐसा ही आज के साहित्यकार कर रहे हैं। कोई कह सकता है कि रवींद्र तो जालियाँवाला बाग हत्याकंड के विरोध में ऐसा कर रहे थे। क्या ऐसा कुछ हुआ है जिसे उस हत्याकांड के बराबर माना जा सकता है? यह वाजिब सवाल है और इसका जवाब यह है कि हाँ, आज ऐसा ही एक ऐतिहासिक समय है। मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी तक हमारे सामने एक के बाद एक भयंकर घटनाएँ होती जा रही हैं। चुनावों में बुनियादी समस्याओं की जगह इस पर बात होती है कि आप का खान-पान क्या है। राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं में भाषा से लेकर व्यवहार के हर पहलू में हिंसा बढ़ती जा रही है। अदीब इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी ऐतिहासिक भूमिका है कि वे इस देश को तबाह होने से बचाएँ।

एक सामान्य किसान या कामगार को भड़काना आसान होता है। देश, धर्म, जाति आदि कई हथियार हैं जिनसे एक आम आदमी को उसके शांत सामान्य जीवन से भटकाकर उसे हत्यारी संस्कृति में धकेल देना संभव है। ऐसा होता रहा है। जब तक यह सीमित स्तर तक होता है, उदारवादी लोग इसे दूर से देखते हैं और कुछ कह सुनकर बैठ जाते हैं। हमारे ज्यादातर लेखक कवि ऐसे ही हैं। पर जब बात यहाँ तक आ जाती है कि आस-पास समूची इंसानियत खतरे में दिखती हो तो यह लाजिम है कि साहित्यकारों को सोचना पड़े। सही है, 1984 में सब ने पुरस्कार नहीं लौटाए, 2002 में भी नहीं लौटाए। यह पुरस्कृत रचनाकारों की सीमा थी। शायद तब इतना साहस नहीं था जितना आज वे दिखला पा रहे हैं। यह भी है कि इनमें से अधिकतर को तब पुरस्कार मिले नहीं थे। वे इसे अलग-अलग तर्क देकर ठीक ठहराते होंगे। पर ये बातें कोई मायना नहीं रखतीं। आज सांप्रदायिक ताकतों का राक्षस हर अमनपसंद इंसान को निगलता आ रहा है। ऐसे में हमारे अदीब उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका को समझा है, यह महत्वपूर्ण बात है।

जो लोग भाजपा के समर्थक हैं या जो संघ परिवार की गतिविधियों को देश के हित में मानते हैं, उन्हें तकलीफ होती है कि उनके विरोध में इतनी आवाजें उठ रही हैं। कल्पना करें कि अफ्रीका के किसी मुल्क में बिना किसी तख्तापलट के देश के गृह मंत्री को अल्पसंख्यकों का कत्लेआम करवाने के लिए सज़ा--मौत हो जाती है। ऊपर की अदालत इसे आजीवन कारावास में बदल देता है और देश की सरकार कुछ वक्त तक अपने ही मंत्री को मृत्युदंड देने के लिए अदालत में पैरवी करती है। इस सरकार के साथ काम कर रहे पुलिस प्रमुख और दीगर अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ों के लिए कई सालों की कैद होती है। हमारी नस्लवादी सोच के लोग यही कहेंगे कि अरे ये अफ्रीकी ऐसे ही होते हैं, साले मारकाट करते रहते हैं। यही बात जब आज़ादी के बाद पहली बार हमारे देश में एक राज्य की सरकार के साथ होता है, और हमें कुछ भी ग़लत नहीं लगता तो यह गहरी चिंता की बात है। उल्टे सांप्रदायिक नफ़रत की संस्कृति बढ़ती चली है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि देश की सारी समस्याएँ अल्पसंख्यकों की वजह से हैं, जो कुल जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा हैं। विज्ञान और तर्कशीलता से दूर पोंगापंथी सोच को लगातार बढ़ाया जा रहा है। रचनाकारों का विरोध संघ परिवार के साथ जुड़े काडर को और आम लोगों को यह सोचने को मजबूर करेगा कि क्या वे सही रास्ते पर हैं।

आज़ादी के बाद पहली बार हम ऐसी स्थिति में हैं कि पाकिस्तान जैसे ग़लत माने जाने वाली विचारधारा के मुल्क के लोग खुद को हमारे नागरिकों से बेहतर मान सकते हैं। न केवल दानिशमंद अदीबों की हत्याएँ हुई हैं, महज इस अफवाह पर कि एक जानवर को मारा गया है, एक इंसान का कत्ल हुआ। बेशक गाय महज जानवर नहीं है, इसके साथ आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं, पर जब भीड़ कानून को अपने हाथ ले लेती है और यह आम बात बनती जा रही है तो सोचना लाजिम है कि हम कहाँ जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं पर जो भी कारवाई हो रही है, उस पर किसी को यकीन नहीं है। सरकार पर आम आदमी का कोई भरोसा नहीं रह गया है। ऐसे में अगर पढ़ने लिखने वाले लोग विरोध के तरीके न ढूँढें तो कोई उन्हें ज़िंदा कैसे कहे! सृजन बाद में आता है, पहले तो जीवन है। नफ़रत और हत्या की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है। इसलिए हमारे अदीब विरोध में सामने आ रहे हैं।1905 में बंगभंग के विरोध में रवींद्रनाथ साथी रचनाकारों के साथ सड़क पर उतर आए थे। बंगाल की अखंडता को लेकर तब उन्होंने कविताएँ और गीत लिखे थे जो आज तक पढ़े गाए जाते हैं। आज वक्त है कि हमारे कवि लेखकों को सड़क पर उतरना होगा। लोगों तक संवेदना के जरिए यह पैगाम ले जाना होगा कि इंसानियत को बचाए रखना है। विविधताओं भरी हमारी साझी विरासत को बचाए रखना है। तर्कशील तरक्कीपसंद भारत को बचाए रखना है।

कवि की यह तस्वीर सतीश कुमार ने रोहतक में क्लिक की थी।
(यह लेख दैनिक भास्कर के `रसरंग` में प्रकाशित हो चुका है।)

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