भारत पाकिस्तान के बीच सियाचिन से सेनाएं लौटाने के स्थूल कूटनीतिक क़िस्म के प्रस्तावों और बातचीत की पेशकशों के बीच दोनों देशों के रिश्तों की तल्खी को मिटाने और एक दूसरे से फिर से जुड़ जाने की बड़ी कोशिश या कमसेकम उसका छोटा सा मुज़ाहिरा ये होता अगर मेहदी हसन साब को हिंदुस्तान इलाज के लिए ले आया जाता या दोनों देश संयुक्त रूप से उनका इलाज कराने की पेशकश करते हुए उन्हें किसी तीसरी बड़ी जगह भेजते.
लेकिन ऐसा हो न सका. लंबी बीमारी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी रागदारी वाली ग़ज़ल गायकी से मोहित करते रहने वाले मेहदी न रहे. कई दशकों से वो गहरी बीमारियों से तड़प रहे थे. अगले महीने 18 जुलाई को वो 85 साल के हो जाते. गाना वो काफ़ी पहले छोड़ चुके थे, 2009 में अलबत्ता एक रिकॉर्डिंग में शामिल थे.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में हमारे समय के एक बहुत बड़े उस्ताद अमीर ख़ान ने संगीत के बारे में कहा था कि बिना पोएट्री के क्या गाना. मेहदी उनके इस कथन पर खरा उतरने वाले चुनिंदा गायकों में थे. भले ही वो विशुद्ध क्लासिक गायकी से अलग था लेकिन उन्होंने रागों से कभी परहेज़ नहीं किया बल्कि शास्त्रीय संगीत के अपने सबक को ग़ज़ल गायकी में ढाल दिया. शब्दों पर ज़ोर, उनके घुमाव और उनके रहस्य रोमांच और दर्द के क़रीब मेहदी हमें ले जाते थे. गुलों में रंग भरे...इसकी एक मिसाल है.
उनकी गायकी में रागों के रंग भरे थे. वो एक प्यास में भटकती हुई आवाज़ थी. एक इंतज़ार में. मेहदी इसी इंतज़ार को देखते रहे साधते रहे और इसी को बरतते रहे. वो हमारे वक़्तों की एक तड़प थी जो ग़ज़ल में नुमायां होती रही और हमें किसी कथित चैनोसुकून से ज़्यादा तड़पाती रहेगी. रचना के साथ ऐसा घुलमिल जाना और फिर सुनने वालों को भी उस अनुभव के भीतर ले आना, ये मेहदी साब की गायकी की ख़ूबी थी.
मेहदी हसन की आवाज़ सुनने वालों को लिए एक रुहानी अनुभव इसीलिए थी कि वो गहरे उतरकर वहां तैरती रहती थी. उसे सुनने के लिए आपको अपने भीतर तमीज़ पैदा करनी होती थी. आप यूं फ़ॉर्मूलाबद्ध पोप्युलिस्ट तरीक़ों आस्वादों से उससे रीझने उसपर झूमने जैसी कवायदें नहीं करते रह सकते. मेहदी हसन की गायकी में ऐसी दुर्लभ ईमानदारी थी कि वो सुनने वालों से भी एक अलग क़िस्म की नैतिकता और ईमानदारी चाहती थी. उसे दाद की कभी परवाह नहीं थी, दर्द उसका सबसे बड़ा हासिल था.