Quantcast
Channel: एक ज़िद्दी धुन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 132

अविनाश मिश्र की चार कविताएं

$
0
0




सफदर हाशमी से निर्मल वर्मा में तब्दील होते हुए

मैं थक गया हूं यह नाटक करते-करते
रवींद्र भवन से लेकर भारत भवन तक
एक भीड़ के सम्मुख ‘आत्म सत्य’ प्रस्तुत करते-करते
मैं अब सचमुच बहुत ऊब गया हूं
इस निर्मम, निष्ठुर और अमानवीय संसार में...

मैं मुक्तिबोध या गोरख पांडेय नहीं हूं
मैं तो श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ का वह बच्चा भी नहीं हूं
जो एक अय्यास सामंत की जागीर पर
एक पत्थर फेंककर भागता है
मैं ‘हल्ला बोल’ का ‘ह’ तक नहीं हूं
मैं वह किरदार तक नहीं हूं
जो नुक्कड़ साफ करता है ताकि नाटक हो
मैं उस कोरस का सबसे मद्धिम स्वर तक नहीं हूं
जो ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर...’ गाता है

मैं कुछ नहीं बस एक संतुलन भर हूं
विक्षिप्तताओं और आत्महत्याओं के बीच

मैं जो सांस ले रहा हूं वह एक औसत यथार्थ की आदी है
इस सांस का क्या करूं मैं
यह जहां होती है वहां वारदातें टल जाती हैं

मैं अपने गंतव्यों तक संगीत सुनते हुए जाता हूं
टकराहटें दरकिनार करते हुए...
मुझे कोई मतलब नहीं-
धरना...विरोध...प्रदर्शन...अनशन...बंद... वगैरह से

मैंने बहुत नजदीक से नहीं देखा कभी बर्बरता को
मैंने इसे जाना है तरंगों के माध्यम से


शहर भर में फैली बीमारियां फटक नहीं पातीं मेरे आस-पास
मेरे नौकर मेरे साथ वफादार हैं
और अब तक बचा हुआ है मेरा गला धारदार औजारों से

मैं कभी शामिल नहीं रहा सरकारी मुआवजा लेने वालों में
शराब पीकर भी मैं कभी गंदगी में नहीं गिरा
और शायद मेरी लाश का पोस्टमार्टम नहीं होगा
और न ही वह महरूम रहेगी कुछ अंतिम औपचारिकताओं से...

खराब खबरें बिगाड़ नहीं पातीं मेरे लजीज खाने का जायका
      
मैंने खिड़कियों से सटकर नरसंहार देखे हैं और पूर्ववत बना रहा हूं

...इस तरह जीवन कायरताओं से एक लंबा प्रलाप था
और मैं बच गया यथार्थ समय के ‘अंतिम अरण्य’ में
मुझे लगता है मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा
कि मैं स्वयं को एक प्रत्यक्षदर्शी की तरह अभिव्यक्त कर सकूं

लेकिन जो देखता हूं मैं आजकल नींद में--
सब कुछ एक भीड़ को दे देता हूं
अंत में केवल अवसाद बचता है मेरे शरीर पर
इस अवसाद के साथ मैं खुद को खत्म करने जा ही रहा होता हूं
कि बस तब ही... चाय आ जाती है
और साथ में आज का अखबार...

प्रतिभाएं अपनी ही आग में

कोई इलाहाबाद का था
यह उसके लिए बहुत था
कोई ‘सिंह’ था
यह उसकी सबसे बड़ी योग्यता थी
वह इसे नाम के आगे लगाए या न लगाए

सब इस तरह अपने-अपने
जनपदीय और जातीय वैभव में
बहुत और योग्य थे
        
जबकि बहुत सारे योग्य लोग
सिर्फ इस वजह मार दिए जाते थे
क्योंकि वे इनकार करते थे...
  

चंद्रमोहन के बीवी बच्चे 

चंद्रमोहन की शादी हो गई और दो बच्चे भी और इस होने में चंद्रमोहन मर भी गया सामाजिकताएं प्राय: नैरंतर्य में कुछ भिन्न होने पर उसके सूत्र तलाशने के लिए बाध्य हैं। चंद्रमोहन के सामाजिक नैरंतर्य में उसका मर जाना कुछ भिन्न है। चंद्रमोहन अकेले सोने से ऊब गया था नतीजतन उसने शादी कर ली नतीजतन बच्चे हुए नतीजतन चंद्रमोहन का जीवन सर्वथा सामान्य होता चला गया। चंद्रमोहन संभवतः रचनात्मक था और वह एक ऐसे समय में था जब रचना से सामान्यता विलुप्त होती जा रही थी। समय के साथ होने के लिए चंद्रमोहन ने आत्मघात किया क्योंकि जीवन जो सामान्य हो गया था उसकी ही रचना था।

चंद्रमोहन अब नहीं है यह एक सर्वमान्य तथ्य है और अब चंद्रमोहन के बीवी और बच्चों को मैं पाल रहा हूं यह एक सर्वमान्य रस। जीवन की संकुचित अवधारणाओं के विराट पैनेपन में यह भाषा वर्जित और अव्यावहारिक हो सकती है लेकिन जब बच्चे मर रहे हों तब मां से अवैध संबंध बना लेने में कोई बुराई नहीं है।

ऐसी हास्यास्पद स्थितियों के जाहिर वैभव में चंद्रमोहन की बीवी मेरी रखैल है और उसके बच्चे मेरे गुलाम। रखैलों और गुलामों के ईश्वर बहुत अजीब होते हैं। मैं जानता हूं वे मेरे विरुद्ध अदृश्यताओं के सम्मुख प्रार्थनारत हैं। लेकिन फिलहाल मैं ईश्वर की तरह ही ताकतवर हूं और इसलिए वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेकिन एक दिन मैं ताकतवर नहीं रहूंगा। तब चंद्रमोहन के बच्चे ताकतवर होंगे और ईश्वर के न्याय और मध्यथता दोनों को ही नकारकर मुझे सजा देंगे। यह अलग बात है कि मांएं प्राय: बच्चों को हिंसा की इजाजत नहीं देतीं...


शादी के कार्ड

इस संसार में कई व्यक्तियों के जीवन में
केवल शादी के कार्ड ही अच्छे होते हैं
लेकिन वे भी वक्त की चोट से धीरे-धीरे
एक जर्जर और मटमैली सी चीज होते जाते हैं 

वे कहीं से भी आए हों
घर की एक उपेक्षित अलमारी में रख दिए जाते हैं
पूर्वजों के चित्रों, एलुमिनियम के बर्तनों, तुलसी के बीजों,
दीपकों, पंचांगों, पुस्तकों, पतंगों और लट्टुओं के साथ
उन्हें नष्ट करना अपशगुन समझा जाता है
जबकि इस कृत्य से बहुत बड़े-बड़े उजड़ने और उजाड़ने के खेल
शगुन बनकर चलन में उपस्थित रहते हैं
समय व समाज के अंतवंचित शुभाशुभ कार्यक्रमों में

समय समर में असंख्य शीर्षक एक संग परिणय में गुंथे हुए
श्री गणेशाय नम: और वक्रतुंड महाकाय... की अनिवार्यता में
बुजुर्ग दर्शनाभिलाषी और स्वागतोत्सुक बच्चे
प्रीतिभोज के स्वाद से जुड़ी हुईं वे मधुर और कड़वी स्मृतियां
और वह संगीत ‘तू हो तो बढ़ जाती है कीमत मौसम की...’
और इसका विस्तार ‘अरमां किसको जन्नत की रंगीं गलियों का...’

लेकिन यह रोमांटिसिज्म सब संसर्गों में संभव नहीं होता
जो अभी और भद्दी होंगी वे भद्दी लडकियां भी बड़ी आकर्षक लगती हैं
काली करतूतों वाले व्यसनी पुरुष चेहरे भी
मर्यादा पुरुषोत्तम से जान पड़ते हैं प्रथम भेंटों में...

लेकिन मेरे इस अद्भुत राष्ट्र में परंपरा है कि बस ठीक है
यहां असंख्य प्रसंगों और प्रचलनों में तर्क की गुंजाइश नहीं

विवाह को मार्क्स और एंगेल्स ने ‘संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति’ कहा है
लेकिन जैसाकि ज्ञात है भारतीय परिवेश में ही नहीं
अपितु अखिल विश्व में अब तक
इन दोनों महानुभावों का कहा हुआ काफी कुछ गलत सिद्ध हुआ है
वैसे ही यह घृणित कथन भी...

‘प्रेम काव्य है और विवाह साधारण गद्य’
ऐसा कहीं ओशो ने कहा है
लेकिन यह कथन स्वयं वैसे ही साधारण हो गया
जैसे एक भाषा की कुछ सामयिक लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित काव्य...

फिलहाल तलाक तलाक तलाक और दहेज प्रताड़नाएं व हत्याएं
और कन्या भ्रूण हत्याएं और कई स्थानीयताओं और जातियों में
पुरुषों की तुलना में घटता महिला अनुपात 
 और घरेलू अत्याचार और स्वयंवरों का बाजार
और लिवइनरिलेशनशिप और समलैंगिकता और स्त्री-विमर्श और महंगाई 
और और भी कई सारी बुराइयों के बावजूद
‘शादी के कार्ड’ हैं कि आते ही जाते हैं बराबर और बदस्तूर
मेरे घर नई-नई जगहों पर मुझे न्योतते हुए...
 --------------

'समावर्तन'के फरवरी अंक के रेखांकित स्तंभ में प्रकाशित

Viewing all articles
Browse latest Browse all 132

Trending Articles